मतभेद समाधान (Conflict resolution या Reconciliation) से तात्पर्य किसी संघर्ष (कानफ्लिक्ट) को शान्तिपूर्ण ढंग से अन्त कर देने की विधि या प्रक्रिया से है।

अन्तरराष्ट्रीय राजनीति और मतभेद समाधान

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यथार्थवादियों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति राज्यों के मध्य शक्ति हेतु संघर्ष है। अन्य विद्वानों का भी मत है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति विभिन्न राज्यों के अंतर्गत होने वाली प्रक्रियाओं का रूप होती है। परन्तु सभी राज्यों के राष्ट्रीय हित समान नहीं होते अतः राज्यों के मध्य संघर्ष अनिवार्य बन जाता है। संघर्षों का स्वरूप, विषय क्षेत्र व क्षमता विभिन्न हो सकती है। शायद इसी कारण संघर्षों के समाधान के बारे में जानने से पूर्व संघर्षों के स्वरूप व प्रकार के बारे में संक्षिप्त जानकारी भी अति आवश्यक हो जाती है।

सामान्य रूप से संघर्षों को दो भागों में ही बांटा जा सकता है - अहिंसात्मक व हिंसात्मक। देखने से यह प्रतीत होता है कि इस वर्गीकरण के आधार पर संघर्षों के स्वरूप को समझना बहुत आसान है। परन्तु आज के वर्तमान सन्दर्भ में सैन्य साधनों के अति आधुनिकतम शस्त्रों की उत्पत्ति के कारण यह पता लगाना इतना सरल नहीं है कि अमुक संघर्ष हिंसात्मक है या अहिंसात्मक। कई बार हिंसात्मक प्रवृतियों का दिखावा मात्र करके राष्ट्र अपने हितों की पूर्ति कर लेते हैं। अतः संघर्ष के बारे में जानकारी हेतु उनके हितों का विस्तृत ज्ञान अनिवार्य बन जाता है। इसीलिए कई लेखक विश्लेषणात्मक दृष्टि से संघर्षों को निम्नलिखित दो प्रमुख श्रेणियों में बांट देते हैं -

  • (१) संतुलित उद्देश्यों हेतु संघर्ष
  • (२) वर्चस्व उद्देश्यों हेतु संघर्ष

संतुलित उद्देश्यों हेतु संघर्ष

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अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बदलाव के दौर की स्थिति में शक्ति विभाजित रहती है तथ अस्थिरता बनी रहती है। ऐसे में राज्यों के पास केवल सीमित विकल्प ही रह जाते हैं। अतः आपकी संघर्षों की स्थिति में केवल संतुलन के उद्देश्य प्राप्ति हेतु ही प्रयास करता है। उन संघर्षों को संतुलित-उद्देश्यों हेतु संघर्ष कहते हैं। इस श्रेणी में निम्न प्रकार के संघर्षों को सम्मिलित किया जा सकता है-

  • (क) विस्तारवादी नीतियां
  • (ख) परिवर्तनशीलता बनाम यथास्थिति
  • (ग) राष्ट्रवाद हेतु संघर्ष
  • (घ) ऐतिहासिक अनुभवों पर आधारित संघर्ष
  • (ङ) जातिवादी संघर्ष
  • (च) धार्मिकता हेतु संघर्ष
  • (छ) सामाजिक व सांस्कृतिक संघर्ष

वर्चस्व उद्देश्यों हेतु संघर्ष

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शीतयुद्ध काल में संघर्ष पूर्व सोवियत संघ एवं अमेरिका के मध्य संघर्षात्मक द्वंद्व का पर्यायवाची बन गया था। दोनों के बीच संघर्ष शस्त्रों की होड़, सैन्य क्षमता का विकास, सैन्य अड्डों की स्थापना, कच्चे माल पर नियंत्रण, सहयोगियों की निरन्तर तलाश आदि पर आधारित बन गया था। इसके परिणामस्वरूप दोनों ही मनोवैज्ञानिक रूप से एक दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने की होड़ में लगे रहते थे। इस प्रकार के संघर्ष में राज्य अपनी शक्ति विस्तार के साथ-साथ समूह को संगठित करने तथा उसे और प्रतियोगिक बनाने की होड़ में लीन हो गया। इस प्रकार से विश्व पूर्ण रूप से वैचारिक रूप में दो गुटों में बंट गया। इस प्रकार के संघर्ष को 'वर्चस्व स्थापना हेतु संघर्ष' कहा जा सकता है। इस प्रकार के संघर्ष हेतु लम्बी दूरी की योजनाएं बनानी पड़ती हैं तथा यह निरंतर चलती रहती हैं। इसके अतिरिक्त, दोनों के बीच इस स्थिति में सम्पूर्ण युद्ध की सम्भावनाएं भी अत्यधिक रूप से व्याप्त रहती हैं।

संघर्षों को प्रारम्भ करना तो आसान होता है, लेकिन उनको लम्बे समय तक जारी रखना अति कठिन होता है। अतः प्रत्येक राष्ट्र संघर्षों से बचना चाहते हैं। परन्तु एक बार संघर्ष प्रारंभ होने पर चार विकल्पों के माध्यम से ही उनसे बचा जा सकता है-

  • (क) प्रथम, यदि राष्ट्र अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल हो जाता है;
  • (ख) द्वितीय, वार्ता के माध्यम से ऐसे समझौते पर पहुंच जाते हैं जो चाहे पूर्ण संतुष्टि तो नहीं परन्तु आवश्यक संतुष्टि अवश्य प्रदान करें;
  • (ग) तृतीय, अनिर्णायक स्थिति में किसी संघर्ष को छोड़ देना; तथा
  • (घ) पूर्ण हार की स्थिति में।

दूसरी स्थिति अति उत्तम होती है परन्तु यह तभी संभव है जब दोनों प्रतिद्वंद्वी समझौता करना चाहते हों तथा अपनी न्यूनतम उपलब्धि के संदर्भ में समान विचार रखते हों। अनिर्णयातक स्थिति जब आती है जब दोनों प्रतिभागी अड़ियल हो व लाभ-हानि अनिश्चित हो। इस प्रकार के संघर्ष बिना किसी दिखावे के टूट जाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संघर्ष की स्थिति राज्यों द्वारा उनके समाधान के विभिन्न साधनों व तकनीकों के खोजने पर बल देती है। परन्तु इन साधनों की खोज व उनकी सफलता संघर्ष के उद्देश्यों, स्वरूप एवं विरोधी पार्टियों के हितों पर निर्भर करती है। इसके अतिरिक्त, यह भी सत्य है कि सभी संघर्षों के समाधान हेतु विभिन्न तरीकों की आवश्यकता नहीं होती, अपितु कई बार संघर्ष केवल अपने आप पर छोड़ देने पर भी सुलझ जाते हैं। लेकिन कई बार भावनात्मक स्वरूप अति तीव्र रूप धारण कर लेता है तब विवादों का औपचारिक हल ढूंढना आवश्यक हो जाता है। कई बार उन विवादों का हल भी आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता जिनके साथ राज्य अपने आत्म-सम्मान को जोड़ लेते हैं।

अंतरराष्ट्रीय विवादों का हल निम्नलिखित तीन प्रमुख तरीकों के आधार पर किया जा सकता है -

  • (१) शांतिपूर्ण तरीकों से हल
  • (२) दण्डात्मक, परन्तु युद्ध रहित तरीकों द्वारा