मत्तविलास प्रहसन
मत्तविलास प्रहसन एक प्राचीन संस्कृत एकांकी नाटक है। यह सातवीं शताब्दी की शुरुआत में विद्वान राजा महेन्द्रवर्मन प्रथम (571- 630 सीई) द्वारा लिखित दो महान एकांकी नाटकों में से एक है।[1]
यह संस्कृत का प्राचीनतम प्रहसन है। यह प्रहसन छोटा होने पर भी बड़ा रोचक है। इसमें मदिरा के नशे में धूत एक कापालिक की मनोदशा का वर्णन है। इस नाटक में धार्मिक आडंम्बरो पर कटाक्ष है तथा बौद्ध तथा कापालिकों की हँसी उड़ाई गयी है।
इस नाटक में एक शाक्य भिक्षु है जिसे पूरा विश्वास है कि बुद्ध के पिटक ग्रन्थोंं की मूल प्रति में सुरापान और स्त्री-समागम का समावेश अवश्य रहा होगा। उसे लगता है कि यह वृद्ध बौद्धों का युवा बौद्धों के विरुद्ध रचा हुआ षड्यन्त्र है। वह उस मूल पिटक के अनुसंधान में रत है, वह उसे खोजना चाहता है। या उनमें यह प्रावधान जोडऩा चाहता है। इसी कर्म में वह शाक्य भिक्षु निमग्न रहता है। एक दिन बौद्ध-मठ जाते हुए वह सोचता है-’अत्यंत दयालु भगवान बुद्ध ने महलों में निवास, सुन्दर सेज लगे पलंगों पर शयन, पहले प्रहर में भोजन, अपराह्म में मीठे रसों का पान, पाँचों सुगन्धों से युक्त ताम्बूल और रेशमी वस्त्रों का पहनना इत्यादि उपदेशों से भिक्षु-संघ पर कृपा करते हुए क्या स्त्री-सहवास और मदिरापान का विधान भी नहीं किया होगा? अवश्य किया होगा। अवश्य ही इन निरुत्साही तथा दुष्ट वृद्ध बौद्धोंं ने हम नवयुवकों से डाह कर पिटक-ग्रन्थों में स्त्री-सहवास और सुरापान के विधान को अलग कर दिया है।
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ Bhat and Lockwood, pg. 51
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- मत्तविलासप्रहसनम् (संस्कृत विकिस्रोत)
- मत्तविलास प्रहसन