मधुविद्या का वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद (२।५।१-१९) तथा छान्दोग्य उपनिषद (३।१-५) में आया है। इन्द्र ने दधीचि को मधुविद्या सिखायी और उन्हें यह विद्या किसी और को न बताने के लिए कहा था।

दोनों अश्विनीकुमारों ने अनेक विद्याएँ अर्जित कर ली थीं। इस कारण तीनों लोकों में उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही थी। एक दिन उन्होंने मधुविद्या को भी प्राप्त करने का निश्चय किया। जब देवराज इन्द्र को उनके इसका पता चला, तो वह अत्यन्त व्याकुल हो उठे। उनने त्रिलोक में घोषणा कर दिया कि कोई भी अश्विनी कुमारों को मधुविद्या प्रदान न करे। यदि किसी ने ऐसा किया, तो उसका शीश धड़ से अलग कर दिया जायेगा।

उस समय दधीचि निर्भीक ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों में गिने जाते थे। इसीलिए दोनों कुमार इन्हीं के आश्रम में पहुँचे। ऋषि के सम्मुख होकर दोनों ने हाथ जोड़कर मधुविद्या प्रदान करने की प्रार्थना की। साथ ही उन्हें इन्द्र की घोषणा के विषय में बताया। ऋषि दधीची ने कहा - "जिज्ञासुओं को निस्वार्थी और निर्भय होकर विद्या प्रदान करना ऋषि का कर्त्तव्य है, जिसका मैं पालन करूँगा। फिर चाहे इस कर्त्तव्य पालन में मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएँ।"

अश्विनीकुमारद्वय ने कहा, 'नहीं ऋषिवर, इस समस्या से उबरने एक उक्ति हमारे पास। यदि आप स्वीकार करें तो…’। ऋषि ने भी उसके लिए स्वीकृति दे दी। तत्पश्चात दोनों कुमारों ने ऋषि दधिचि का सिर काटकर उसके स्थान पर एक घोड़े का सर लगा दिया। दधिचि ने इसी अश्व-शीश में दोनों कुमारों को मधुविद्या प्रदान की। जैसे ही इन्द्र को ये पता चला, तो तत्क्षण अपने दिव्यास्त्र द्वारा उन पर अमोघ प्रहार किया। ऋषि के धड़ पर लगा अश्वशीश खण्ड-खण्ड होकर धरा पर आ गिरा। इन्द्र तो अपनी कोपाग्नि बरसा कर चले गए। अब अश्विनी कुमारों ने अपनी युक्ति से ऋषि दधिचि के सुरक्षित रहे हुए शीश को पहले की ही भांति उनके धड़ से संयुक्त कर दिया।