मनसबदार

मुगल काल में प्रचलित एक प्रशासनिक प्रणाली
(मनसबदारी से अनुप्रेषित)

मनसबदारी प्रणाली मुगल काल में प्रचलित एक प्रशासनिक प्रणाली थी जिसे अकबर ने आरम्भ किया था। 'मनसब' मूलतः अरबी शब्द है जिसका अर्थ 'पद' या 'रैंक' है। मनसब शब्द, शासकीय अधिकारियों तथा सेनापतियों का पद निर्धारित करता था। सभी सैन्य तथा असैन्य अधिकारियों की मनसब निश्चित की जाती थी जो अलग-अलग हुआ करती थी। मनसब के आधार पर अधिकारियों के वेतन और भत्ते निर्धारित होते थे।

'मनसबदार' उस व्यक्ति को कहते थे जिसकी मनसब निर्धारित की गयी होती थी। सिद्धान्तरूप में समस्त मन्सबदारों की नियुक्ति बादशाह द्वारा होती थी। प्राय: मुगलों की सैनिक भर्ती जाति अथवा वंश के आधार पर ही की जाती थी, योग्यता के लिये कोई विशेष स्थान नहीं था। उच्चवंशीय न होने पर व्यक्ति के राजकीय सेवा में प्रवेश के अवसर सीमित थे।

फ़ारसी में 'मंसबदार' का अर्थ है मंसब (पद या श्रेणी) रखनेवाला। मुगल साम्राज्य में मंसब से तात्पर्य उस पदस्थिति से था जो बादशाह अपने पदाधिकारियों को प्रदान करता था। मंसब दो प्रकार के होते थे, 'जात' और 'सवार'।

मंसब की प्रथा का आरंभ सर्वप्रथम अकबर ने सन् 1575 में किया। 'जात' से तात्पर्य मंसबदार की उस स्थिति से था जो उसे प्रशासकीय पदश्रेणी में प्राप्त थी। उसका वेतन भी उसी अनुपात में उन वेतन सूचियों के आधार पर जो कि उस समय लागू थीं निर्धारित होता था। सवार श्रेणी से अभिप्राय था कि कितना सैनिक दल एक मंसबदार को बनाए रखना है; और इसके लिये उसे कितना वेतन मिलेगा। इसका निर्धारण प्रचलित वेतनक्रम को सवारों की संख्या से गुणा करके होता था।

कहा जाता है, मंसब प्रथा की उत्पत्ति प्रारंभिक तुर्की और मंगोल सेना के 'दशमलवात्मक' संगठन में देखी जा सकती है और इसी को आधार मानकर अकबर न केवल वर्तमान सैनिक श्रेणी को 'जात' श्रेणी में परिवर्तित किया और एक नई 'सवार' श्रेणी को जन्म देकर उस उद्देश्य को पूरा किया जो कि प्राचीन श्रेणी करती थी। लेकिन इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि 1575 से पूर्व भी मंसब दिए जाते थे। इससे यही प्रतीत होता है कि 'जात' तथा 'सवार' श्रेणियों का आरम्भ एक साथ ही उसी वर्ष किया गया।

अकबर के समय में सवार श्रेणी प्राय: या तो जात श्रेणी के बराबर अथवा कम ही होती थी। जहाँगीर ने मंसबदारी पद्धति में एक महत्वपूर्ण प्रयोग किया अर्थात् दो अश्व और तीन अश्व श्रेणी का प्रारंभ। दो अश्व व तीन अश्व श्रेणी को सवार श्रेणी का ही भाग माना जाता था। दो अश्व तीन अश्व श्रेणी प्राप्त करनेवाले का वेतन तथा सैनिक जिम्मेदारियाँ दोनो ही दोहरे हो जाते थे।

'जात' श्रेणी पर वेतन प्रत्येक श्रेणी के लिये अलग-अलग निर्धारित था। वेतन में वृद्धि श्रेणी में वृद्धि होने के समानुपात में नहीं हाती थी। पाँच हजार से नीचे की जात श्रेणी पर वेतन तीन वर्गो में अलग अलग निर्धारित था- प्रथम, जब सवार श्रेणी जात श्रेणी के बराबर हो; द्वितीय, जब 'सवार' श्रेणी 'जात' श्रेणी से कम तो हो परंतु आधे से कम न हो; तृतीय जब आधे से भी कम हो। प्रथम वर्गवालों का वेतन द्वितीय वर्ग से, तथा द्वितीय वर्गवालों का वेतन तृतीय वर्ग से अधिक होता था। सवार श्रेणी पर वेतन श्रेणियों के अनुसार अलग अलग निश्चित नहीं था; लेकिन प्रति इकाई पर वेतन की दर स्थायी रूप से बताई गई है। शाहजहाँ से लेकर बाद तक 'सवार' श्रेणी के प्रति इकाई की वेतन की दर आठ हजार दाम थी। सवार श्रेणी का वेतन इस योग (8 हजार दाम) को सवार संख्या से गुणा करके निकाला जा सकता है। मंसबदार को वेतन या तो नकद अथवा जागीर के रूप में दिया जाता था।

शाहजहाँ के राज्यकाल में 'मासिक अनुपात' व्यवस्था का जन्म हुआ। यह व्यवस्था नकद वेतनों पर भी लागू की गई। इसके परिणामस्वरूप मंसबदारों के वेतन, सुविधाओं तथा कर्तव्यों में कमी आ गई।

'निश्चित वेतन' में बहुत सी कटौतियाँ होती थीं। सबसे अधिक कटौती दक्खिनी मंसबदारों के वेतनों में की जाती थी और यह दामों में एक चौथाई की कमी होती थी। विशेष रूप से न माफ होने पर निम्नलिखित कटौतियाँ सभी मंसबदारों पर लागू की जाती थीं- पशुओं के लिये चारा, रसद के लिये माँग तथा रूपए में दो दाम।

मंसब के साथ-साथ अकबर ने 1575 में दागने की प्रथा का प्रारंभ किया। इसका उद्देश्य प्रतयेक मंसबदार को उतने घोड़े तथा घुड़सवार वास्तविक रूप में बनाए रखने के लिये मजबूर करना था, जितने उससे राजकीय सेवा के लिये अपेक्षित थे। फलस्वरूप सैनिक जिम्मेदारियों से बचाव को रोकने के लिये अकबर ने घोड़ों को दागने तथा व्यक्तियों के लिये 'चेहरा' की प्रथा को अपनाया। अबुलफ़ज्ल के विवरण से पता चलता है कि अकबर के समय में मंसबदार से उम्मीद की जाती थी कि वह उतने सैनिक प्रस्तुत करेगा जितनी कि उसकी 'सवार' श्रेणी हो। ऐसा न करने पर उसे दंडित किया जाता था। विचारणीय बात रह जाती है कि मंसबदार से उसकी 'सवार' श्रेणी के अनुरूप जो संख्या प्रत्याशित होती थी वह घोड़ों की थी अथवा सैनिकों की ? शाहजहाँ के समय में 'तृतीयांश' नियम के अंतर्गत, 100 सवार श्रेणी वाले मंसबदार को 33 सवार और 66 घोड़े रखने पड़ते थे। इससे यही प्रतीत होता है कि अकबर के समय में 100 'सवार' श्रेणी के लिये 50 सवार और 100 घोड़ों से अधिक नहीं माँगे जाते होंगे।

शाहजहाँ ने नए सिरे से मंसबदारी पद्धति को संगठित किया। जो मंसबदार उन प्रदेशों में ही नियुक्त थे जहाँ उनको जागीरें प्राप्त थीं, उनसे यह उम्मीद की जाती थी कि वे अपनी 'सवार' श्रेणी के एक तिहाई सवार प्रस्तुत करेंगे; ऐसे प्रदेशों में नियुक्त होने पर जहाँ उनकी जागीरें नहीं थीं केवल एक चौथाई; और बल्ख या बदकशाँ में नियुक्त होने पर पंचमांश। जिन मंसबदारों को वेतन नकद मिलता था उनपर भी पांचवें हिस्से का नियम लागू होता था। पंचमांश नियम के अंतर्गत वार्षिक व्यवस्था में 5000 'सवार' श्रेणी पर 1000 सवार तथा 2200 घोड़े रहेंगे।

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