मनुचारी
मनुचारी (Manuchari)
मनुचारी का अर्थ-
मनुचारी यह शब्द दो शब्दों के मेल से बना है- मनु+चारी। मनु शब्द का अर्थ हैं- मननशील मनुष्य और चारी शब्द संस्कृत के चर् धातु से बना है जिसका अर्थ विचरण करना या आचरण करना है। इस प्रकार मनुचारी शब्द का अर्थ मनुष्यता का आचरण करना या मानवीय गुणों का प्रचार प्रसार करना है। यह अधिकतर दक्षिण कर्नाटक में निवास करने वाले संकेथी/संकेती ब्राह्मणों का उपनाम होता है। यह गांवों में निवास करने वाली एक रूढ़िवादी ब्राह्मण जाती है। ये मूल रूप से तमिल क्षेत्र के निवासी थे किंतु कालांतर में किसी कारणवश अपने स्थान का परित्याग किया अथवा स्मृति का प्रचार-प्रसार करते हुए कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में बस गए और इसी को अपना निवास स्थान बनाया एवं ये फिर कभी मुड़कर अपने मूल क्षेत्र की ओर नहीं गए। एक किंवदन्ती के अनुसार नाचरम्मा नामक देवी ने इनके मूल निवास स्थान को शाप दिया और तुरंत अपने स्थान का त्याग करने को कहा। जिन लोगों ने नाचरम्मा देवी का आदेश मानकर अपने स्थान का परित्याग किया वे जीवित बच गए। और जिन लोगों ने इस आदेश का पालन नहीं किया वे सभी नाचरम्मा देवी के शाप के कारण मारे गए।
एक दूसरी मान्यता के अनुसार मनु शब्द के दो अर्थ हैं- मनुष्य और स्वयंभुव मनु (स्वयंभुव मनु जो एक धर्मशास्त्रकार थे, धर्मग्रन्थों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम से विख्यात है। ये ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से थे जिनका विवाह ब्रह्मा के दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था।) चारी शब्द संस्कृत के चर् धातु से बना है जिसका अर्थ विचरण करना या आचरण करना होता है। इस प्रकार मनुचारी का अर्थ मनुस्मृति नामक स्मृति ग्रंथ के विचारों का अनुसरण करना होता है। भारत में मनुचारी उपनाम मुख्यतः संकेती ब्राह्मणों का उपनाम होता है। ये बहुत ही रूढ़िवादी ब्राह्मणों की जाति है।
ये वर्तमान समय में अधिकतर दक्षिण में ही पाए जाते हैं। इनका मानना है कि इनके पूर्वज तमील प्रदेश से धर्म का प्रचार करते हुए धीरे धीरे कर्नाटक में बस गए। वर्तमान समय में सरकारी आंकडों के अनुसार संकेती दक्षिणी ब्राह्मणों की जनसंख्या लगभग 25000 हैं। इनका मानना है कि व्यक्ति की पहचान उनका आचरण ही है। जो सदाचार का पालन करता है वास्तव में वही मनुष्य कहलाने योग्य है। कहा गया है-आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः। मनुष्य संस्कारों के कारण ही जीवन में प्रगति करता है अतः इन जातियों के लोग मनु प्रमाणित १६ संस्कारों पर विशेष ध्यान देते हैं। जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति ही है न कि भोग।
मनुस्मृति
वेद, उपनिषद, ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थों के पश्चात् स्मृतियों का स्थान हैं। स्मृति ग्रन्थों में सर्व प्राचीन मनुस्मृति है। जिसकी रचना स्वयंभुव मनु ने की थी। स्वयंभुव मनु सृष्टी के प्रथम मनुष्य थे। सम्पूर्ण मानव मात्र के कल्याण के लिए ही मनुस्मृति की रचना की थी। दक्षिण भारत में मनुचारी ब्राह्मण प्राचीन काल से ही मंदिरों में पूजा करके, यज्ञादि द्वारा अपनी जीविका चलाते आए हैं। आज भी इस कुल में उत्पन्न कोई एक सदस्य अपना सम्पूर्ण जीवन वेदादि ग्रन्थों के पठन-पाठन में ही बीताता है। आज भी दक्षिण भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जिसमें मनुचारी ब्राह्मण ही पूजा करते हैं। इन परिवारों में मनुस्मृति की पूजा होती है। बालक जब ८ साल का होता है उस समय उसका उपनयन संस्कार किया जाता है। कई परिवारों में यह संस्कार ५ साल की उम्र में भी किया जाता है। मनुस्मृति के अनुसार जन्म से सभी व्यक्ति शुद्र होते हैं, संस्कार से ही द्विज कहलाते है ! स्कन्द पुराण में ब्रह्मा जी नें आध्यात्मिक तौर पर कहा है-जन्मना जायते शुद्रः संस्कारात् द्विजोच्यते। इन परिवारों में नारी को भी विशेष सम्मान दिया जाता है। नारी को भी ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है। नारी ही परिवार का निर्माण करती है। बच्चों को संस्कार दिलाती है। इसलिए नारी को पढ़ा-लिखा होना चाहिए। जहॉ नारी की पूजा होती है वहॉ देवता निवास करते हैं और जहॉ अपमान किया जाता है वहॉ दुर्भिक्ष और अकाल पडता है। नार्यस्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।
मनु का परिचय
मनु जो एक धर्मशास्त्रकार थे, धर्मग्रन्थों के बाद धर्माचरण की शिक्षा देने के लिये आदिपुरुष स्वयंभुव मनु ने स्मृति की रचना की जो मनुस्मृति के नाम से विख्यात है। ये ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से थे जिनका विवाह ब्रह्मा के दाहिने भाग से उत्पन्न शतरूपा से हुआ था। उत्तानपाद जिसके घर में ध्रुव पैदा हुआ था, इन्हीं का पुत्र था। मनु स्वायंभुव का ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत पृथ्वी का प्रथम क्षत्रिय माना जाता है। इनके द्वारा प्रणीत 'स्वायंभुव शास्त्र' के अनुसार पिता की संपत्ति में पुत्र और पुत्री का समान अधिकार है। इनको धर्मशास्त्र का और प्राचेतस मनु अर्थशास्त्र का आचार्य माना जाता है। मनुस्मृति ने सनातन धर्म को आचार संहिता से जोड़ा था। आपव नामक प्रजापति के धर्म से अयोनिज कन्या शतरूपा का जन्म हुआ। आपव (जो कि बाद में स्वायंभुव मनु कहलाये) ने प्रजा की रचना करने के उपरांत शतरूपा को अपनी पत्नी बना लिया। उसके पुत्र का नाम वीर हुआ। वीर ने प्रजापति कर्दम की कन्या काम्या से विवाह किया तथा दो पुत्रों को जन्म दिया- (1) प्रियव्रत तथा (2) उत्तानपाद। मनु की विस्तृत संतति में ही ध्रुव, वेन इत्यादि हुए। वेन से मनुगण बहुत रुष्ट थे क्योंकि वह अनाचारी था। मुनियों ने उसके दाहिने हाथ का मंथन किया, जिससे राजा पृथु का जन्म हुआ। वे राजसूय यज्ञ करने वाले राजाओं में सर्वप्रथम था। प्रजाओं को जीविका देने की इच्छा से उसने पृथ्वी से अन्न तथा दूध का दोहन आरंभ किया जा सके। साथ-साथ राक्षस, पितर, देवता, अप्सरा, नाग इत्यादि सब इस कर्म में लग गये। कालांतर में उसके दो पुत्र हुए अंतर्धान तथा पातिन। अंतर्धान से शिखंडिनी ने हविर्धान को जन्म दिया। अग्नि की पुत्री घिषणा से हविर्धान ने छह पुत्रों को जन्म दिया- प्राचीनवर्हिस्, शुक्र, गय, कृष्ण, ब्रज और अजिन। प्राचीनवर्हिस ने घोर तप करके समुद्र-कन्या सवर्णा से विवाह किया। उसके दस पुत्र हुए जो एक ही धर्म का पालन करते थे। वे प्रचेता नाम से विख्यात हुए।
ब्रह्मा चिंतातुर थे। 'संभवत: देव ही नहीं चाहता कि सृष्टि का विस्तार हो, अन्यथा इतने प्रयत्न के उपरांत भी मैं सृष्टि का विस्तार नहीं कर पा रहा हूं।' उनके ऐसा सोचते ही उनका शरीर 'क' कहलाता है। अत: दोनों भाग काय (शरीर) कहलाये। उनमें से एक मनु (पुरुष) था, दूसरी शतरूपा (स्त्री) थी। स्वायंभुव मनु ने शतरूपा से पांच संतान प्राप्त कीं: दो पुत्र- प्रियव्रत, उत्तानपाद तथा तीन कन्याएं- आकूति, देवहूति तथा प्रसूति। मनु ने ब्रह्मा से पूछा कि वे प्रजा के निवास के लिए कौन-सा स्थान ठीक समझते हैं? ब्रह्मा ने चिंतन आरंभ किया, अत: जल में डूबी हुई पृथ्वी को जल के ऊपर लाने का कार्य विष्णु (बाराह) ने किया।
मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव सृष्टि के आदि प्रवर्तक और समस्त मानव जाति के आदि-पिता के रूप में किया जाता रहा है। इन्हें 'आदिपुरुष' भी कहा गया है। आरंभ में मनु और यम का अस्तित्व अभिन्न था। बाद में मनु को जीवित मनुष्यों का और यम को दूसरे लोक में, मृत मनुष्यों का आदिपुरुष माना गया। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार एक मछली ने मनु से प्रलय की बात कही थी और बाद में इन्हीं से सृष्टि चली। अन्यत्र ये विराट के पुत्र बताए गए हैं जिनसे प्रजापतियों की उत्पत्ति हुई। मत्स्य पुराण मनु को 'मनुस्मृति' का रचयिता और एक शास्त्र प्रवर्तक मानता है। पुराणों के अनुसार मनु चौदह हुए हैं। वैदिक संहिताओं में मनु को ऐतिहासिक व्यक्ति माना गया है। ये सर्वप्रथम मानव था जो मानव जाति के पिता तथा सभी क्षेत्रों में मानव जाति के पथ प्रदर्शक स्वीकृत हैं। वैदिक कालीन जलप्लावन की कथा के नायक मनु ही है। मनु को विवस्वान या वैवस्वत, विवस्वन्त (सूर्य) का पुत्र; सावर्णि (सवर्णा का वंशज) एवं सांवर्णि संवरण का वंशज) कहते हैं। प्रथम नाम पौराणिक है, जबकि दूसरे नाम ऐतिहासिक हैं। सावर्णि को लुड्विग तुर्वसुओं का राजा कहते हैं, किन्तु यह मान्यता सन्देहपूर्ण है। पुराणों में मनु को मानव जाति का गुरु तथा प्रत्येक मन्वन्तर में स्थित कहा गया है। वे जाति के कर्त्तव्यों (धर्म) के ज्ञाता है। भगवद्गीता (10.6) भी मनुओं का उल्लेख करती है। मनु नामक अनेक उल्लेखों से प्रतीत होता है कि यह नाम न होकर उपाधि है। मनु शब्द का मूल मन् धातु (मनन करना) से भी यही प्रतीत होता है। मेधातिथि, जो मनुस्मृति के भाष्यकार हैं, मनु को उस व्यक्ति की उपाधि कहते हैं, जिसका नाम प्रजापति है। वे धर्म के प्रकृत रूप के ज्ञाता थे एवं मानव जाति को उसकी शिक्षा देते थे। इस प्रकार यह विदित होता है कि मनु एक उपाधि है। मनु रचित 'मानव धर्मशास्त्र' भारतीय धर्मशास्त्र में आदिम व मुख्य ग्रंथ माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में जहाँ मानव धर्मशास्त्र के अवतरण आये हैं वे सूत्र रूप में हैं और प्रचलित मनुस्मृति के श्लोकों से नहीं मिलते। वह सूत्रग्रन्थ 'मानव धर्मशास्त्र' अभी तक देखने में नहीं आया। वर्तमान मनुस्मृति को उन्हीं मूल सूत्रों के आधार पर लिखी हुई कारिका मान सकते हैं। वर्तमान सभी स्मृतियों में यह प्रधान समझी जाती है।