महालवाड़ी व्यवस्था

औपनिवेशिक भारत में इस्तेमाल की जाने वाली ब्रिटिश राजस्व प्रणाली

महालवाड़ी व्यवस्था, ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा सन 1833 में उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश में लागू की गयी भू-राजस्व की प्रणाली थी। यह भू राजस्व भारत के 30% भूभाग पर लागू किया गया। इसके पहले कम्पनी बंगाल में स्थायी बन्दोबस्त (सन १७९३ ई में) तथा बम्बई, मद्रास आदि में रैयतवाड़ी (सन १८२० में ) लागू कर चुकी थी।

इस व्यवस्था में भूमि राजस्व बंदोबस्त कंपनी ने एक एक गांव को 'महल' मान कर गांव के मुखिया के साथ किया। गांव के मुखिया को 'लंबरदार' कहा जाता था जिसका कार्य गांव से लगान वसूल कर कंपनी को देना था। गांव को महाल कहे जाने के कारण इस व्यवस्था का नाम महालवाड़ी व्यवस्था पड़ा इस व्यवस्था की अवधारणा सर्वप्रथम होल्ड मैकेन्जी ने 1819 ईसवी में दिया। 1822 के रेग्यूलेशन के अनुसार कुल भूभाग का 95% निश्चित किया गया था तथा इसे वसूलने के अत्यधिक कठोरता बनाई गई थी। अतः यह व्यवस्था असफल रही। 1833 ईस्वी में मार्टिन बर्ड के देखरेख में उत्तर भारत में कई सुधारों के साथ महालवाड़ी व्यवस्था पुनः लागू हुई। मार्टिन बर्ड को उत्तर भारत में भूमि का व्यवस्था का प्रवर्तक माना जाता था। भूमि कर कुल उपज का 66% तय किया गया। यह व्यवस्था 30 वर्षों के लिए कि ग‌ई । इसके बाद में लॉर्ड डलहौजी द्वारा कम कर के 50% कर दिया गया। परंतु कर वास्तविक उपज के स्थान पर अनुमानित किया गया था। इससे किसानों को कोई राहत नहीं मिली। साथ ही लम्बदर अधिकांशत भूमि पर अधिकार में रख लेते थे। वह राजस्व वसूलने के लिए छोटे किसानों पर अत्याचार करता था।[1]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "THE MAHALWARI SYSTEM" (PDF). मूल से 29 मार्च 2018 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 2 जुलाई 2020.

इन्हें भी देखें संपादित करें