माँग (अर्थशास्त्र)

किसी वस्तु के क्रय का परिमाण
(माँग से अनुप्रेषित)

अर्थशास्त्र में माँग (demand) किसी माल या सेवा की वह मात्रा होती है जिसे उस माल या सेवा के उपभोक्ता भिन्न कीमतों पर खरीदने को तैयार हों। आमतौर पर अगर कीमत अधिक हो तो वह माल/सेवा कम मात्रा में खरीदी जाती है और यदि कीमत कम हो तो अधिक मात्रा में। इसलिए अक्सर किसी क्षेत्र के बाज़ार में किसी माल/सेवा की माँग को उसके माँग वक्र (demand curve) के रूप में दर्शाया जाता है।[1][2][3]

चित्र 1 - एक माँग वक्र

माँग वक्र का उदहारण

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किसी शहर के बाज़ार में कई सब्ज़ियाँ बिकती है। कई उत्पादक भिन्न प्रकार की सब्ज़ियाँ बेचने और कई उपभोक्ता सब्ज़ियाँ खरीदने आते हैं। बिकने वाली सब्ज़ियों में से एक गोभी है। देखा गया है कि -

  • अगर गोभी की कीमत 5 ₹/किलो है, तो प्रतिदिन लगभग 100 किलो गोभी बिक जाती है।
  • अगर गोभी की कीमत घटकर 4 ₹/किलो हो जाए, तो बाज़ार में और भी ग्राहक गोभी खरीदने के इच्छुक हो जाते हैं और प्रतिदिन लगभग 200 किलो गोभी बिक जाती है।
  • अगर गोभी की कीमत और भी घटकर 3 ₹/किलो हो जाए, जो प्रतिदिन 300 किलो गोभी बिकने लगती है।
  • अगर गोभी की कीमत 2 ₹/किलो हो जाए, जो प्रतिदिन 400 किलो गोभी बिकती है।
  • अगर गोभी की कीमत 1 ₹/किलो हो जाए, जो प्रतिदिन 500 किलो गोभी बिकती है।

इन तथ्यों के आधार पर इस बाज़ार में गोभी की माँग का एक वक्र (ग्राफ) बनाया जा सकता है, जो चित्र 1 में दर्शाया गया है। इस चित्र में लम्ब अक्ष (P) पर ₹/किलो में कीमत है, और क्षितिज अक्ष (Q) पर गोभी बिकने की किलो में मात्रा है। इसी तरह अर्थव्यवस्था में हर माल या सेवा का एक माँग वक्र बनाया जा सकता है।

माँग का सिद्धांत

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एक सब्ज़ी बाज़ार। किसी भी सब्ज़ी के लिए अधिक कीमत पर उपभोक्ता कम खरीदता है और कम कीमत पर अधिक।

माँग वक्र केवल एक उपभोक्ता के लिए भी देखा जा सकता है और यह उपयोगिता (utility) पर आधारित है, यानि वह संतुष्टि जो किसी उपभोक्ता को किसी माल या सेवा के उपभोग से मिलती है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति को भूख लगी हो, तो उसे रोटियाँ खाने से संतुष्टि मिलती है। उसके द्वारा खाई जाने वाली प्रथम रोटी उसे बहुत संतुष्टि देती है, दूसरी रोटी उस से ज़रा कम संतुष्टि देती है, और तीसरी उस से भी कम। यह चीज़ किसी भी माल या सेवा की खपत में दिखती है। यदि पेट्रोल महंगा जो तो उपभोक्ता उसका प्रयोग बचकर करता है। वही जब थोड़ा-सा सस्ता हो जाए, तो उसका प्रयोग अधिक खुलकर करता है। अगर पेट्रोल बिलकुल मुफ्त कर दिया जाए, तो उसकी खपत पर उपभोक्ता कोई भी अंकुश नहीं लगाता। यह तथ्य ह्रासमान प्रतिफल के सिद्धांत (law of diminishing returns) के नाम से जाना जाता है - किसी भी माल या सेवा की उपयोगिता उसकी बढ़ती मात्रा में खपत से घटती जाती है। यही घटती उपयोगिता उस उपभोक्ता द्वारा कीमत देने की सम्मति में दिखती है। अधिक कीमत पर उपभोक्ता कम खरीदता है और कम कीमत पर अधिक।

माँग में विशेष परिस्थितियाँ

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माँग का सिद्धांत सार्वभौम नहीं है। निम्नांकित चार अवस्थाओं में वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाने पर भी वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है :

  • (क) भविष्य में वस्तु का पूर्ति में कमी होने की संभावना की स्थिति में,
  • (ख) शान-शौकत के प्रदर्शन के लिये,
  • (ग) जीवनयापन के लिये वस्तु की अनिवार्यता के कारण तथा
  • (घ) अज्ञानता के कारण।

माँग निम्नांकित तत्वों से प्रभावित होती है --

  • (१) आय में परिवर्तन,
  • (२) जनसंख्या में परिवर्तन
  • (३) द्रव्य की मात्रा में परिवर्तन,
  • (४) धन के वितरण में परिवर्तन,
  • (५) व्यापार की स्थिति में परिवर्तन,
  • (६) अन्य प्रतिस्पर्द्धी वस्तुओं के मूल्यों में परिवर्तन
  • (७) रुचि तथा फैशन में परिवर्तन और
  • (८) ऋतुपरिवर्तन।

मूल्यपरिवर्तन के कारण होने वाली माँग की मात्रा में परिवर्तन उपभोक्ता की आय, वस्तु के मूल्यस्तर, आय के अंश का संबंद्ध वस्तुश पर विनियोजन, वस्तु के प्रयोगों की मात्रा, स्थानापन्न वस्तुओं की उपलब्धि, वस्तु के उपभोग की स्थगन शक्ति, समाज में संपत्ति के वितरण, समाज के आर्थिक स्तर, संयुक्त माँग (Joint Demand) की स्थिति तथा समय के प्रभाव पर निर्भर करती है। माँग की लोच का अध्ययन उत्पादकों, राजस्व विभाग, एकाधिकारी उत्पादकों तथा संयुक्त उत्पादन (Joint Production) के लिये विशेष महत्वपूर्ण है। माँग की लोच निकालने का प्रो॰ फ्लक्स का निम्नलिखित सिद्धांत विशेष व्यवहृत होता है:

माँग की लोच = माँग में प्रतिशत वृद्धि /मूल्य में प्रतिशत वृद्धि

किसी वस्तु की कीमत में होने वाले परिवर्तन के फलस्वरूप उस वस्तु की माँगी गई मात्रा में होने वाले परिवर्तन की माप को ही माँग की लोच कहा जाता है।

इन्हें भी देखें

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  1. Ayers & Collins, Microeconomics (Pearson 2003) at 66.
  2. Rosen, Harvey (2005). Public Finance, p. 545. McGraw-Hill/Irwin, New York. ISBN 0-07-287648-4.
  3. Goodwin, N, Nelson, J; Ackerman, F & Weissskopf, T: Microeconomics in Context 2d ed. Page 83 Sharpe 2009