मातृपितृ पूजा दिवस
मातृपितृ पूजा दिवस भारत देश त्योहारों का देश है भारत में गणेश उत्सव, होली, दिवाली, दशहरा, जन्माष्टमी, नवदुर्गा त्योहार मनाये जाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व मातृ पितृ पूजा दिवस प्रकाश में आया। आज यह 14 फरवरी को देश विदेश में मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में रमन सरकार द्वारा प्रदेश भर में आधिकारिक रूप से मनाया जाता है।
पूर्वज पूजा की प्रथा विश्व के अन्य देशों की भाँति बहुत प्राचीन है। यह प्रथा यहाँ वैदिक काल से प्रचलित रही है। विभिन्न देवी देवताओं को संबोधित वैदिक ऋचाओं में से अनेक पितरों तथा मृत्यु की प्रशस्ति में गाई गई हैं। पितरों का आह्वान किया जाता है कि वे पूजकों (वंशजों) को धन, समृद्धि एवं शक्ति प्रदान करें। पितरों को आराधना में लिखी ऋग्वेद की एक लंबी ऋचा (१०.१४.१) में यम तथा वरुण का भी उल्लेख मिलता है। पितरों का विभाजन वर, अवर और मध्यम वर्गों में किया गया है (कृ. १०.१५.१ एवं यजु. सं. १९४२)। संभवत: इस वर्गीकरण का आधार मृत्युक्रम में पितृविशेष का स्थान रहा होगा। ऋग्वेद (१०.१५) के द्वितीय छंद में स्पष्ट उल्लेख है कि सर्वप्रथम और अंतिम दिवंगत पितृ तथा अंतरिक्षवासी पितृ श्रद्धेय हैं। सायण के टीकानुसार श्रोत संस्कार संपन्न करने वाले पितर प्रथम श्रेणी में, स्मृति आदेशों का पालन करने वाले पितर द्वितीय श्रेणी में और इनसे भिन्न कर्म करने वाले पितर अंतिम श्रेणी में रखे जाने चाहिए।
ऐसे तीन विभिन्न लोकों अथवा कार्यक्षेत्रों का विवरण प्राप्त होता है जिनसे होकर मृतात्मा की यात्रा पूर्ण होती है। ऋग्वेद (१०.१६) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो। अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें। ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है। स्वर्ग के आवास में पितृ चिंतारहित हो परम शक्तिमान् एवं आनंदमय रूप धारण करते हैं। पृथ्वी पर उनके वंशज सुख समृद्धि की प्राप्ति के हेतु पिंडदान देते और पूजापाठ करते हैं। वेदों में पितरों के भयावह रूप की भी कल्पना की गई है। पितरों से प्रार्थना की गई है कि वे अपने वंशजों के निकट आएँ, उनका आसन ग्रहण करें, पूजा स्वीकार करें और उनके क्षुद्र अपराधों से अप्रसन्न न हों। उनका आह्वान व्योम में नक्षत्रों के रचयिता के रूप में किया गया है। उनके आशीर्वाद में दिन को जाज्वल्यमान और रजनी को अंधकारमय बताया है। परलोक में दो ही मार्ग हैं : देवयान और पितृयान। पितृगणों से यह भी प्रार्थना है कि देवयान से मर्त्यो की सहायता के लिये अग्रसर हों (वाज. सं. १९.४६)।
संहिताओं और ब्राह्मणों की बहुत सी पंक्तियों में मृत्यु के प्रति मिलता है। पहला जन्म साधारण जन्म है। पिता की मृत्यु के उपरांत पुत्र में ओर पुत्र के बाद पौत्र में जीवन की जो निरंतरता बनी रहती है उसे दूसरे प्रकार का जन्म माना गाया है। मृत्युपरांत पुनर्जन्म तीसरे प्रकार का जन्म है। कौशीतकी में ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख है जो मृत्यु के पश्चात् चंद्रलोक में जाते हैं और अपने कार्य एवं ज्ञानानुसार वर्षा के माध्यम से पृथ्वी पर कीट पशु, पक्षी अथवा मानव रूप में जन्म लेते हैं। अन्य मृत्क देवयान द्वारा अग्निलोक में चले जाते हैं।
छांदोग्य के अनुसार ज्ञानोपार्जन करने वाले भले व्यक्ति मृत्युपरांत देवयान द्वारा सर्वोच्च ब्राह्मण पद प्राप्त करते हैं। पूजापाठ एवं जनकार्य करने वाले दूसरी श्रेणी के व्यक्ति रजनी और आकाश मार्ग से होते हुए पुन: पृथ्वी पर लौट आते हैं और इसी नक्षत्र में जन्म लेते हैं।
स्मृतियों एवं पुराणों में भी आत्मासंसरण संबंधी विश्वास पाए जाते हैं और इनमें भी पितृर्पण के हेतु श्राद्धसंस्कारों की महत्ता परिलक्षित होती है। मृत्युपरांत पितृ-कल्याण-हेतु पहले दिन दस दान और अगले दस ग्यारह दिन तक अन्य दान दिए जाने चाहिए। इन्हीं दानों की सहायता से मृतात्मा नई काया धारण करती है और अपने कर्मानुसार पुनरावृत्त होती है। पितृपूजा के समय वंशज अपने लिये भी मंगलकामना करते हैं।
प्रथम दस दानों का प्रयोजन मृतकों का अध्यात्मनिर्माण है। मृत्यु के ११वें दिन एकोद्दिष्ट नामक दान दिया जाता है अगले दो मास में प्रत्येक मास एक बार और अगले १२ मासों में प्रत्येक छह मास की समाप्ति पर एक अंतिम दान द्वारा इन संस्कारों की कुल संख्या १६ कर दी जाती है। श्राद्ध संस्कारों के संपन्न हो जाने पर पहला शरीर नष्ट हो जाता है और आगामी अनुभवों के लिये नए शरीर का निर्माण होता है। वेदवर्णित कर्तव्यों में श्राद्धसंस्कारों का विशेष स्थान है। कर्तव्यपरायणता के हित में वंशजों द्वारा इनका पालन आवश्यक है। आज भी प्रत्येक हिंदू इस कर्तव्य का पालन वैदिक रीति के अनुसार करता है।
इस प्रथा के दार्शनिक आधार की पहली मान्यता मनुष्य में आध्यात्मिक तत्व की अमरता है। आत्मा किसी सूक्ष्म शारीरिक आकार में प्रभावाित होती है और इस आकार के माध्यम से ही आत्मा का संसरण संभव है। असंख्य जन्ममरणोपरांत आत्मा पुनरावृत्ति से मुक्त हो जाती है। यद्यपि आत्मा के संसरण का मार्ग पूर्वकर्मों द्वारा निश्चित होता है तथापि वंशजों द्वारा संपन्न श्राद्धक्रियाओं का माहात्म्य भी इसे प्रभावित करता है। बौद्ध धर्म में दो जन्मों के बीच एक अंत:स्थायी अवस्था की कल्पना की गई है जिसमें आत्मा के संसरण का रूप पूर्वकर्मानुसार निर्धारित होता है। पुनर्जन्म में विश्वास हिंदू, बौद्ध तथा जैन तीनों चिंतनप्रणलियों में पाया जाता है। हिंदू दर्शन की चार्वाक पद्धति इस दिशा में अपवादस्वरूप है। अन्यथा पुनर्जन्म एवं पितरों की सत्ता में विश्वास सभी चिंतनप्रणालियों और वर्तमान पढ़ अपढ़ सभी हिंदुओं में समान रूप से पाया जाता है।
मालाबार के नायरों में मृतकों को दान देने की रस्म दाहसंस्कार के अगले दिन प्रारंभ की जाती है और पूरे सप्ताह भर चलती है। उत्तरी भारत की नीची जातियों में मृतकों को भोजन देने की प्रथा प्रचलित है। गोंड जाति में दाहसंस्कार संबंधी रस्मों की अवधि केवल तीन दिन है। इन रस्मों की समाप्ति पर शोककर्ता स्नान और क्षोर द्वारा शुद्ध हो पितरों को दूध और अन्न का तर्पण करते हैं। नेपाल में 'कमो' लोहारों में मृत्यु के ११वें दिन मृतक के संबंधियों के भोज का आयोजन किया जाता है। किंतु भोजन प्रारंभ होने के पूर्व प्रत्येक व्यंजन का थोड़ा थोड़ा अंश एक पत्तल पर निकालकर मृत आत्मा के लिये जंगल में भेज दिया जाता है। पत्तल ले जानेवाला व्यक्ति उसे तब तक दृष्टि से ओझल नहीं होने देता जब तक पत्तल में रखे भोजन पर कोई मक्खी या कीड़ा न बैठ जाए। ऐसा होने पर पत्तल को किसी भारी पत्थर से ढक कर वह व्यक्ति अपने साथ लाया भोजन जंगल में ही रख देता है। तदुपरांत वह गाँव में जाकर संबंधियों को मृतात्मा द्वारा उनके दान की स्वीकृति की सूचना देता है और तब भोज प्रारंभ होता है। मक्त ओरांव मृतक के अस्थि अवशेषों को शवस्थान में गाड़कर सुरक्षित रखते हैं। दिवंगत पुरखों को सूअर का मांस और ढेरों चावल भेंट में चढ़ाए जाते हैं और उठते बैठते, भोजन या धूम्रपान के अवसर पर उनका स्मरण किया जाता है। मल पहाड़ियाँ जाति में पूर्वजों की तुलना उन काष्ठस्तंभों से की जाती है जो मकान की छत को सहारा देते हैं। शव को गाड़ते समय मेछ लोग मृतात्मा की तृप्ति के लिये कब्र पर आग जलाकर उसमें भोजन और पेय पदार्थों की आहुति देते हैं। मल पहाड़ियाँ भी अक्टूबर नवंबर मास में कालीपूजा की रात्रि को मृत पुरखों के सम्मान में सूखे सन की बत्तियाँ जलाते हैं। उत्तरी भारत के अन्य भागों में इस प्रकार की रीतियाँ प्रचलित हैं। मिर्जापुर के घासिया पाँच पत्तलों में प्रतिदिन भोजन सजाकर पुरखों को भेंट चढ़ाते हैं और उनसे प्रार्थना करते हैं कि वे उनकी भेंट स्वीकार कर अपने वंशजों और पशुधन पर कृपादृष्टि रखें। कोलों में मृतात्मा को मुर्गे की बलि देते हैं। वे बलिस्थल पर शराब छिड़ककर संतति की सुरक्षा की प्रार्थना करते हैं। राजी लोग सिर, दाढ़ी और मूँछों के बाल मुँडाकर उन्हें पूर्वजों की भेंट स्वरूप कब्र पर छोड़ देते हैं। खानाबदोश और पूर्व अपराधोपजीवी नट कबीले के लोग नदी के तट पर भोजन बनाते हैं और कपड़ा बिछा उसपर मृतात्मा के बैठने की प्रतीक्षा करते हैं। मृतक का निकटतम संबंधी एक कुल्हड़ और धुरी हाथ में लेकर नदी में डुबकी लगाता है। वह तब तक जल से बाहर नहीं आता जब तक सिर पर रखा कुल्हड़ भर न जाए। कुल्हड़ को कपड़े पर रख, उसके चारों कोनों का भी ऐसे कुल्हड़ों से दबा दिया जाता है। फिर कुल्हड़ों से घिरे इस कपड़े पर आत्मा की तृप्ति के लिये भोजन रख दिया जाता है।
कुछ भारतीय जातियों में मृतात्मा की भोजन संबंधी आवश्यकता की पूर्ति माता की ओर से संबंधियों को भोज देकर की जाती है। निचले हिमालय की तराई के भोकसा अपनी पुत्रियों के वंशजों को भोज देकर मृतात्मा की शांति की व्यवस्था करते हैं। उड़ीसा के जुआंग और उत्तरी भारत के अन्य कबीले मृतक के मामा को पुजारी का पद देते हैं। गया ओर ऐसे अन्य स्थानों में जहाँ सगे संबंधियों को पिंडदान दिया जाता है, ऐसे अवसरों पर भोजन करने के लिये ब्राह्मणों का एक विशेष वर्ग भी बन गया है। समस्त भारत में आश्विन (अगस्त सितंबर) मास में पितृपक्ष के अवसर पर वंशज पुरखों को पिंडदान देते हैं और पूरे पखवारे निकटतम पवित्र नदी में स्नान करते हैं।
मैसूर के कुरुवारू और नीलगिरि पहाड़ियों के येरुकुल अपने देवताओं के साथ पितरों को भी बलि देते हैं। मुंबई राज्य के ढोर कठकरी तथा अन्य हिंदू कबीले बिना छिले नारियल का पूर्वज मानकर उसकी पूजा करते हैं।