मित्तर प्यारे नूँ (हिंदी अनुवाद: मित्र प्यारे को) एक अतिप्रसिद्ध पंजाबी शबद है जो सिखों के दशम गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा रचित है।[1] माना जाता है कि इसकी रचना उन्होंने माछीवाड़ा के वनवास के समय की थी।

जैसा कि लिखा जा चुका है इसके रचनाकार श्री गुरु गोविंद सिंह जी हैं। इस प्रकार की रचना से उनके व्यक्तित्व की समृद्धि की झलक मिलती हैं। उनकी आध्यात्मिकता और वीरता के बारे में बात करना सूरज को दिया दिखाने के बराबर है, लेकिन उनकी साहित्यिक क्षमताओं का प्रायः उतनी गहनता से विवेचन नहीं हुआ है। उनकी विभिन्न रचनाओं में पंजाबी, संस्कृत व फारसी का उपयोग हुआ है और एक रचनाकार के रूप में विभिन्न भाषाओं पर उनकी सहज पकड़ थी। कई कई जगह तो उन्होंने एक ही जगह सब भाषाओं का भी प्रयोग किया है। यह रचना भी उनकी साहित्यिक क्षमताओं का एक अलग आयाम प्रदर्शित करती है।

इस शबद में वे परमेश्वर से अपने दुःखों की चर्चा करते प्रतीत होते हैं जो कि अवतारी पुरुषों के जीवन में एक विसंगति जैसा लगता है। किंतु कई अन्य उदाहरण भी हैं जिनसे इसकी तुलना की जा सकती है जैसे कि रामायण में राम का सीता के लिए विलाप करना, यीशु मसीह द्वारा सूली लगने से पहले परमेश्वर से शिकायत करना आदि।

साहित्यिक दृष्टि से यह एक उच्च कोटि की रचना मानी जाती है। शायद ही कोई एसा पंजाबी संगीतकार या गायक हो जिसने इस रचना को संगीतबद्ध करके अथवा गाकर स्वयं को धन्य महसूस ना किया हो। प्रख्यात ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह ने तो इसी नाम की अपनी एलबम में तीन अलग अलग तरह से इसे गाया है।

मित्तर प्यारे नूँ
हाल मुरीदाँ दा कहणा
तुध बिन रोग रजाईयाँ दा ओढन।
नाग निवासाँ दे रहणा।।
सूल सुराही, खंजर प्याला,
बिंग कसाईयाँ दा सहणा।
यारड़े दा सानूँ सथर चंगा
भट्ठ खेड़ेयाँ दा रहणा।
  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 29 नवंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 13 सितंबर 2014.