मिर्ज़ा ग़ालिब

उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर (1797-1869)

मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान, जो अपने तख़ल्लुस ग़ालिब से जाने जाते हैं, उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के एक महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। यद्दपि इससे पहले के वर्षो में मीर तक़ी "मीर" भी इसी वजह से जाने जाता है। ग़ालिब के लिखे पत्र, जो उस समय प्रकाशित नहीं हुए थे, को भी उर्दू लेखन का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ माना जाता है। ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में जाना जाता है। उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का ख़िताब मिला।

मिर्ज़ा ग़ालिब
Mirza Asadullah Baig Khan ghalib.jpg
ग़ालिब
जन्म27 दिसंबर, 1796
आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु15 फ़रवरी, 1869
दिल्ली, भारत
व्यवसायशायर
राष्ट्रीयताभारतीय
अवधि/कालमुग़ल काल, ब्रिटिश राज
विधाग़ज़ल, क़सीदा, रुबाई, क़ितआ, मर्सिया
विषयप्यार, विरह, दर्शन, रहस्यवाद
उल्लेखनीय कार्यदीवान-ए-ग़ालिब

ग़ालिब (और असद) तख़ल्लुस से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता है। उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था कि दुनिया में यूं तो बहुत से अच्छे शायर हैं, लेकिन उनकी शैली सबसे निराली है:

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे

कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और

जीवन परिचयसंपादित करें

जन्म और परिवारसंपादित करें

ग़ालिब का जन्म आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, ग़ालिब का जीवनयापन मूलत: अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था[1] (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी थे)।[2] ग़ालिब की पृष्ठभूमि एक तुर्क परिवार से थी और इनके दादा मध्य एशिया के समरक़न्द से सन् १७५० के आसपास भारत आए थे। उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग ख़ान अहमद शाह के शासन काल में समरकंद से भारत आये। उन्होने दिल्ली, लाहौर व जयपुर में काम किया और अन्ततः आगरा में बस गये। उनके दो पुत्र व तीन पुत्रियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग ख़ान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ख़ान उनके दो पुत्र थे।

मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग (ग़ालिब के पिता) ने इज़्ज़त-उत-निसा बेगम से निकाह किया और अपने ससुर के घर में रहने लगे। उन्होने पहले लखनऊ के नवाब और बाद में हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम किया। 1802 में अलवर में एक युद्ध में उनकी मृत्यु के समय ग़ालिब मात्र 5 वर्ष के थे।

जब ग़ालिब छोटे थे तो एक नव-मुस्लिम-वर्तित ईरान से दिल्ली आए थे और उनके सान्निध्य में रहकर ग़ालिब ने फ़ारसी सीखी।

शिक्षासंपादित करें

ग़ालिब की प्रारम्भिक शिक्षा के बारे में स्पष्टतः कुछ कहा नहीं जा सकता लेकिन ग़ालिब के अनुसार उन्होने ११ वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी में गद्य तथा पद्य लिखना आरम्भ कर दिया था।[3] उन्होने अधिकतर फारसी और उर्दू में पारम्परिक भक्ति और सौन्दर्य रस पर रचनाये लिखी जो गजल में लिखी हुई है। उन्होंने फारसी और उर्दू दोनो में पारंपरिक गीत काव्य की रहस्यमय-रोमांटिक शैली में सबसे व्यापक रूप से लिखा और यह गजल के रूप में जाना जाता है।

वैवाहिक जीवनसंपादित करें

13 वर्ष की आयु में उनका विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था। विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये थे जहाँ उनकी तमाम उम्र बीती। अपने पेंशन के सिलसिले में उन्हें कोलकाता कि लम्बी यात्रा भी करनी पड़ी थी, जिसका ज़िक्र उनकी ग़ज़लों में जगह–जगह पर मिलता है।

शाही ख़िताबसंपादित करें

१८५० में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा ग़ालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला के ख़िताब से नवाज़ा। बाद में उन्हे मिर्ज़ा नोशा का ख़िताब भी मिला। वे शहंशाह के दरबार में एक महत्वपूर्ण दरबारी थे। उन्हे बहादुर शाह द्वितीय के पुत्र मिर्ज़ा फ़ख़रु का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय में मुग़ल दरबार के शाही इतिहासविद भी थे।

इन्हें भी देखेंसंपादित करें

सन्दर्भसंपादित करें

  1. "ग़ालिब वज़ीफ़ह-ख़्‌वार हो दो शाह को दु`आ". मूल से 9 मई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 अक्तूबर 2007.
  2. "ग़ालिब एक परिचय". मूल से 9 मई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जुलाई 2007.
  3. "खलिक़ अन्जुम". मूल से 9 मई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जुलाई 2007.