मूलचन्द सियाग
चौधरी मूलचन्द सियाग (1887 - 1978) राजस्थान में नागौर जिले के महान जाट सेवक, किसानों के रक्षक तथा समाज-सेवी महापुरुष थे। आपने अपने काम के साथ ही अपनी समाज-सेवा, ग्राम-उत्थान ओर शिक्षा प्रसार की योजनानुसार गांव-गांव में घूम-घूम कर किसानों के बच्चों को विद्याध्ययन की प्रेरणा दी। आपने मारवाड़ में छात्रावासों की एक शृंखला खड़ी कर दी। आपने "मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा" और "मारवाड़ किशान सभा" नामक संस्थाओं की स्थापना की। आपने मारवाड़ जाट इतिहास की रचना करवाई।चौधरी दानवीर सिंह जाट भारतीय
मारवाड़ में किसानों की हालत
संपादित करेंजिस समय चौधरी मूलचन्द का जन्म हुआ, उस समय मारवाड़ में किसानों की हालत बड़ी दयनीय थी। मारवाड़ का ८३ प्रतिशत इलाका जागीरदारों के अधिकार में था इन जागीरदारों में छोटे-बडे सभी तरह के जागीदार थे। छोटे जागीरदार के पास एक गांव था तो बड़े जागीरदार के पास बारह से पचास तक के गांवो के अधिकारी थें और उन्हें प्रशासन, राजस्व व न्यायिक सभी तरह के अधिकार प्राप्त थे। ये जागीरदार किसानों से न केवल मनमाना लगान (पैदावार का आधा भग) वसूल करते थे बल्कि विभिन्न नामों से अनेक लागबों व बेगार भी वसूल करते थें किसानों का भूमि पर कोई अधिकार नहीं था और जागीरदार जब चाहे किसान को जोतने के लिए दे देता था। किसान अपने बच्चों के लिए खेतों से पूंख (कच्चे अनाज की बालियां) हेतु दो-चार सीटियां (बालियां) तक नहीं तोड सकता था। जबकि इसके विपरीत जागीरदार के घोडे उन खेतों में खुले चरते और खेती को उजाड़ते रहते थे और किसान उन्हें खेतों में से नहीं हटा सकते थे। इसके अलावा जागीरदार अपने हासिल (भूराजस्व) की वसूली व देखरेख के लिए एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी जो ‘कण्वारिया‘ कहलाता था, रखता था। यह कणवारिया फसल पकने के दिनों में किसानों की स्त्रियों को खेतों से घर लौटते समय तलाशी लेता था या फिर किसानों के घरों की तलाशी लिया करता था कि कोई किसान खेत से सीटियां तोड़कर तो नहीं लाया है। यदि नया अनाज घर पर मिल जाता था तो उसे शारीरिक और आर्थिक दण्ड दोनों दिया जाता था।
लगान के अलावा जागीरदारों ने किसान का शोषण करने के लिए अनेक प्रकार की लागें (अन्य घर) लगा रखी थी जो विभिन्न नामों से वसूल की जाती थी, जैसे मलबा लाग, धुंआ लाग आदि-आदि इसके अलावा बैठ-बेगार का बोझ तो किसानों पर जागीरदार की ओर से इतना भारी था कि किसान उसके दबाव से सदैव ही छोडकर जागीरदार की बेगार करने के लिए जाना पड़ता था। स्वयं किसान को ही नहीं, उनकी स्त्रियों को भी बेगार देनी पड़ती थी। उनको जागीरदारों के घर के लिए आटा पीसना पड़ता था। उनके मकानों को लीपना-पोतना पडता था और भी घर के अन्य कार्य जब चाहे तब करने पड़ते थे। उनका इंकार करने का अधिकार नहीं था और न ही उनमे इतना साहस ही था। इनती सेवा करने पर भी उनको अपमानित किया जाता था। स्त्रियां सोने-चांदी के आभूषण नहीं पहन सकती थी। जागीरदार के गढ के समाने से वे जूते पहनकर नहीं निकल सकती थी। उन्हें अपने जूते उतारकर हाथों में लेने पडते थे। किसान घोडों पर नहीं बैठ सकते थे। उन्हे जागीरदार के सामने खाट पर बैठने का अधिकार नहीं था। वे हथियार लेकर नहीं चल सकते थें किसान के घर में पक्की चीज खुरल एव घट्टी दो ही होती थी। पक्का माकन बना ही नहीं सकते थे। पक्के मकान तो सिर्फ जागीरदार के कोट या महल ही थे। गांव की शोषित आबादी कच्चे मकानों या झोंपड़ियों में ही रहती थी। किसानों को शिक्षा का अधिकार नहीं था। जागीरदार लोग उन्हें परम्परागत धंधे करने पर ही बाध्य करते थे। कुल मिलाकर किसान की आर्थिक व सामाजिक स्थिति बहुत दयनीय थी। जी जान से परिश्रम करने के बाद भी किसान दरिद्र ही बना रहता था क्योंकि उसकी कमाई का अधिकांश भाग जागीरदार और उसके कर्मचारियों के घरों में चला जाता था। ऐसी स्थिती में चौधरी मूलचन्द ने मारवाड़ के किसानों की दशा सुधारने का बीड़ा उठाया।
चौधरी श्री मूलचन्दजी का जीवन परिचय
संपादित करेंचौधरी श्री मूलचन्दजी का जन्म वि॰सं॰ १९४४ (१८८७ई.) पौष कृष्णा ६ को नागौर से लगभग ६ मील उत्तर बालवा नामक एक छोटे-से गांव में चौधरी श्री मोतीरामजी सियाग के घर हुआ था। इनकी माताजी का नाम दुर्गादेवी था। जब ये ९ वर्ष के हुए तब ऑफ पिताजी ने इन्हें नजदीक के गांव अलाय में जैन यति गुरांसा अमरविजयजी के पास उपासरे में पढने हेतु भेज दिया। उपासरे में भोजन और निवास दोनों सुविधाएं थी। उपासरे के बाहर गांव में भी एक अन्य स्थान पर शिक्षक पुरानी पद्धति से हिन्दी भाषा और गणित के पहाड़े व हिसाब करना आदि पढाते थे, मूलचन्दजी उपासरे के अलावा वहां भी पढने जाने लगे। जैन उपासरे की अनुशासित व संयमी दिनचर्या यथा समय पर उठना, शौच जान, उपासरे की सफाई करना, स्नान, भोजन और फिर पढने जाना आदि से मूलचन्दजी में समय का सदुपयोग व परिश्रम करने की आदत विकसित हुई। तीन वर्ष तक यही क्रम चलता रहा जिससे आपको पढने-लिखने व हिसाब किताब का पूरा ज्ञान हो गया। प्रायः सब प्रकार की हिनदी पुस्तकों को आप पढने और समझने लगे थे। कुछ संस्कृत के लोक भी अर्थ सहित याद कर लिये गये थे। गणित के जटिल प्रश्नों को हल करने की क्षमता भी विकसित हो गयी थी। उपासरे में धर्म-चर्चा व उससे सम्बंधित प्राप्त पुस्तकें, प्रवासी जैन बंधुओं से मिलना व उनसे चर्चा करना आदि से आपका ज्ञान बढता ही गया, बुद्धि में प्रखरता और विचारों में व्यावहारिक पढाई में पारंगत हो जाने के बाद चौधरी मूलचन्दजी अपने अध्यापक व जैन गुरांसा से आशीर्वाद लेकर पास के एक गांव गोगे लाव में बच्चों को पढाने हेतु अध्यापक बनकर चले गये।
अलया में जहां चौधरी साहब विद्यार्थी थे, वहां गोगेलाव में अध्यापक होने के नाते इन्हें अपने व्यवहार में बदलाव लाना पडा। गांव में अब विद्यार्थियों के अलावा गांववासी भी आपका सम्मान व अभिवादन करते थे। आप वहां विद्यार्थियों को हिन्दी व गणित पढाने के साथ व्यावहारिक ज्ञान और सदाचरण की शिक्षा भी देते थे। पढने वाले बच्चों में ज्यादातर महाजनों के बच्चे थे। चौधरी सहाब का इन दिनों ऐसे व्यक्तियों से समफ हुआ। जो अंग्रेजी जानते थे। तब इन्हें भी अपने में अंग्रेजी ज्ञान की कमी महसूस होने लगी और धीरे-धीरे इनमें अंग्रेजी पढने की जिज्ञासा बढने लगी। गोगेलाव में अंग्रेजी पढना संभव नहीं था, क्योंकि एक तो वे स्वयं अध्यापक थे और दूसरा यहां जो भी अंग्रेजी पढे-लिखे लोग आते थे, अधिक समय नहीं ठहरते थे और छुट्टी पर चले जाते थे। अन्त में अंग्रेजी पढने की इच्छा अधिकाधिक बलवती होने पर ढाई-तीन वर्ष गोगेलाव में रहने के बाद पुनः अलाव लौट आये।
चौधरी मूलचन्दजी अलाव में वापस गुरांसा के पास जैन उपासरे में रहनें लगे और अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने हेतु रेल्वे के बाबू और स्टेशन मास्टर के पास आने जाने लगे और अंग्रेजी पढने लगे। अब चौधरी साहब को उपासरे में भोजन करने से ग्लानि होने लगी तो उन्होंने रेल्वे गार्ड से कोई काम दिलाने की प्रार्थना की। गार्ड इन्हें सूरतगढ ले गया और वहां रेल्वे के पी.डब्ल्यू.आई. के यहां नौकर रखवा दिया। कुछ दिनों तक घर पर कार्य करने के बाद गार्ड ने इन्हें आठ रुपया मासिक पर रेल्वे की नौकरी में लगा दिया, जहां टंकी में पानी ऊपर चढाने वाली मशीन पर काम करना था। इनके बड़े भाई श्री रामकरणजी उस समय कमाने के लिए कानपुर गये हुए थें जब वह वापस घर आये, चौधरी मूलचन्दजी को भी अपने साथ कानपुर ले गये ताकि ज्यादा कमाया जा सके। परन्तु जब वहां इनके लायक कोई काम नहीं मिला तो आप पुनः सूरतगढ लौट आये। चौधरी साहब अब यहां अस्पताल जाकर कपाउण्डरी का काम सीखने लगे। कुछ दिनों बाद यहीं पर आपका परिचय पोस्ट ऑफिस के संसपेक्टर महोदय से हुआ जिन्होने पोस्ट ऑफिस में मेल-पियोन के पद पर लगा दिया। कुछ दिनों तक काम सीखने के बाद आपको एक महीने में पोस्टमैन बनाकर महाजन (बीकानेर रियासत) स्टेशन भेज दिया। वहां चौधरी साहब डाक बांटने हेतु घर-घर और गांव-गांव घूमने लगे और अनेक व्यक्तियों के संपर्क में आने लगें अत्यन्त मनोयोग व प्रसन्नतापूर्वक काम करने के कारण महाजन के सभी समाज और वर्गों के लोग इनसे बहुत खुश थें इसी बीच इनका तबादला सूरतगढ हो गया। वहां वह पहले भी रह चुके थे। सूरतगढ में आप कई वर्ष तक रहे। इस दौरान अनेक विषयों की पुस्तकों के पठन तथा मनन और विशिष्टजनों के सत्संग के साथ पोस्टमैन का कार्य बड़ी ईमानदारी से करते रहें सूरतगढ से फिर आपका तबादला नोखा हो गया, जहां ढाई तीन वर्ष के लगभग रहें अन्त में नोखा से आपकी बदला अपने ही घर नागौर में हो गई।
इस दौरान चौधरी साहब के मन में समाज-सेवा का भाव पैदा हो गया था और वह इस दिशा में कार्य करने लग गये थे। नागौर में आपको देहातो में डाक वितरण का कार्य सौंपा गया था। आप अपने काम के साथ् ही अपनी समाज-सेवा, ग्राम-उत्थान ओर शिक्षा प्रसार की योजनानुसार गांव-गांव में घूम-घूम कर किसानों के बच्चों को विद्याध्ययन की प्रेरणा देने लगे। इससे जागीरदारों को बड़ी तकलीफ होने लगी और उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इनका स्थानान्तरण गांवो से नागौर शहर की ड्यूटी पर करवा दियां फिर भी आप अपने मिशन में लगे रहे और जब समाज-सेवा के कार्य भार ज्यादा बढने लगा तो आपने १९३५ ई. में नौकरी से त्यागपत्र देकर पूरे जोश के साथ कृषक समाज के उत्थान के कार्य में जुट गये और अनेक कष्टों को सहते हुए अंतिम सांस तक इसी कार्य में लगे रहे।
शिक्षा के माध्यम से जन सेवा
संपादित करेंचौधरी मूलचन्दजी जी के मन में शिक्षा के माध्यम से जन सेवा की प्रेरणा जाट स्कूल संगरिया से मिली। आपके प्रयास से ४ अप्रैल १९२७ को चौधरी गुल्लारामजी के मकान में "जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर" की स्थापना की। चौधरी मूलचन्दजी की इच्छा नागौर में छात्रावास खोलने की थी। आपने अपने घर पर कुछ छात्रों को पढ़ने के लिए रखा। बाद में बकता सागर तालाब पर २१ अगस्त १९३० को नए छात्रावास की नींव डाली। इस छात्रावास के खर्चे की पूरी जिम्मेदारी चौधरी मूलचन्दजी पर थी।
आपने जाट नेताओं के सहयोग से अनेक छात्रावास खुलवाए। बाडमेर में १९३४ में चौधरी रामदानजी डऊकिया की मदद से छात्रावास की आधारशिला रखी। १९३५ में मेड़ता छात्रवास खोला। आपने जाट नेताओं के सहयोग से जो छात्रावास खोले उनमें प्रमुख हैं:- सूबेदार पन्नारामजी धीन्गासरा व किसनाराम जी रोज छोटी खाटू के सहयोग से डीडवाना में, ईश्वर रामजी महाराजपुरा के सहयोग से मारोठ में, भींयाराम जी सीहाग के सहयोग से परबतसर में, हेतरामजी के सहयोग से खींवसर में छात्रावास खुलवाए। इन छात्रावासों के अलावा पीपाड़, कुचेरा, लाडनूं, रोल, जायल, अलाय, बिलाडा, रतकुडि़या, आदि स्थानों पर भी छात्रावासों की एक शृंखला खड़ी कर दी। इस शिक्षा प्रचार में मारवाड़ के जाटों ने अपने पैरों पर खड़ा होने में राजस्थान के तमाम जाटों को पीछे छोड़ दिया।
मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा के संस्थापक
संपादित करेंसन् १९३७ में चटालिया गांव के जागीरदार ने जाटों की ८ ढाणियों पर हमला कर लूटा और अमानुषिक व्यवहार किया। चौधरी साहब को इससे बड़ी पीड़ा हुई और उन्होंने तय किया की जाटों की रक्षा तथा उनकी आवाज बुलंद करने के लिए एक प्रभावशाली संगठन आवश्यक है। अतः जोधपुर राज्य के किसानों के हित के लिए २२ अगस्त १९३८ को तेजा दशमी के दिन परबतसर के पशु मेले के अवसर पर "मारवाड़ जाट कृषक सुधारक सभा" नामक संस्था की स्थापना की। चौधरी मूलचंद इस सभा के प्रधानमंत्री बने और गुल्लाराम जी रतकुड़िया इसके अध्यक्ष नियुक्त हुए।
मारवाड़ किसान सभा की स्थापना
संपादित करेंकिसानों की प्रगति को देखकर मारवाड़ के जागीरदार बोखला गए। उन्होंने किसानों का शोषण बढ़ा दिया और उनके हमले भी तेज हो गए। जाट नेता अब यह सोचने को मजबूर हुए की उनका एक राजनैतिक संगठन होना चाहिए। सब किसान नेता २२ जून १९४१ को जाट बोर्डिंग हाउस जोधपुर में इकट्ठे हुए जिसमें तय किया गया कि २७ जून १९४१ को सुमेर स्कूल जोधपुर में मारवाड़ के किसानों की एक सभा बुलाई जाए और उसमें एक संगठन बनाया जाए। तदानुसार उस दिनांक को मारवाड़ किसान सभा की स्थापना की घोषणा की गयी और मंगल सिंह कच्छवाहा को अध्यक्ष तथा बालकिशन को मंत्री नियुक्त किया गया।
मारवाड़ किशान सभा का प्रथम अधिवेशन २७-२८ जून १९४१ को जोधपुर में आयोजित किया गया। मारवाड़ किसान सभा ने अनेक बुलेटिन जारी कर अत्यधिक लगान तथा लागबाग समाप्त करने की मांग की। मारवाड़ किसान सभा का दूसरा अधिवेशन २५-२६ अप्रैल १९४३ को सर छोटू राम की अध्यक्षता में जोधपुर में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में जोधपर के महाराजा भी उपस्थित हुए। वास्तव में यह सम्मेलन मारवाड़ के किसान जागृति के इतिहास में एक एतिहासिक घटना थी। इस अधिवेशन में किसान सभा द्वारा निवेदन करने पर जोधपुर महाराज ने मारवाड़ के जागीरी क्षेत्रों में भूमि बंदोबस्त शु्रू करवाने की घोषणा की। मारवाड़ किसान सभा जाटों के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
मारवाड़ जाट इतिहास के रचयिता
संपादित करें१९३४ में सीकर में आयोजित जाट प्रजापति महायज्ञ के अवसर पर ठाकुर देशराज ने 'जाट इतिहास' प्रकाशित कराया, तब से ही चौधरी मूलचन्दजी के मन में लगन लगी कि मारवाड़ के जाटों का भी विस्तृत एवं प्रामाणिक रूप से इतिहास लिखवाया जाए क्योंकि 'जाट इतिहास' में मारवाड़ के जाटों के बारे में बहुत कम लिखा है। तभी से आप ठाकुर देशराज जी से बार-बार आग्रह करते रहे। आख़िर में आपका यह प्रयत्न सफल रहा और ठाकुर देशराज जी ने १९४३ से १९५३ तक मारवाड़ की यात्राएं की, उनके साथ आप भी रहे, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध गांवों व शहरों में घूमे, शोध सामग्री एकत्र की, खर्चे का प्रबंध किया और १९५४ में "मारवाड़ का जाट इतिहास" नामक ग्रन्थ प्रकाशित कराने में सफल रहे। मारवाड़ के जाटों के लिए चौधरी मूलचंदजी की यह अमूल्य देन थी।
जाट जाति के गौरव को प्रकट करने वाले साहित्य के प्रकाशन व प्रचार में भी चौधरी मूलचंदजी की बड़ी रूचि थी। ठाकुर देशराज जी द्वारा लिखित 'जाट इतिहास' के प्रकाशन व प्रचार में आपने बहुत योगदान दिया एवं जगह-जगह स्वयं ने जाकर इसे बेचा। 'जाट वीर तेजा भजनावाली' तथा 'वीर भक्तांगना रानाबाई' पुस्तकों का लेखन व प्रकाशन भी आपने ही करवाया था। आपने जाट जाति के सम्बन्ध में उस समय तक जितना भी साहित्य प्रकाशित हुआ था, उसे मंगवाकर संग्रह किया तथा उसके लिए नागौर के छात्रावास में एक पुस्तकालय स्थापित किया। अब यह पुस्तकालय आपके नाम से "श्री चौधरी मूलचंदजी सीहाग स्मृति जाट समाज पुस्तकालय" किशान केसरी श्री बलदेवराम मिर्धा स्मारक ट्रस्ट धर्मशाला नागौर में स्थित है।
चौधरी मूलचन्द जी का मूल्यांकन
संपादित करेंचौधरी मूलचन्द जी सीहाग का मूल्यांकन करें तो वे अपने आप में एक जीवित संस्था थे, उनके द्वारा स्थापित संस्थाएं तो केवल उनकी छाया मात्र थी। वे भारत के अन्य प्रान्तों में 'राजस्थान के महारथी' के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन जातीय सेवा व मारवाड़ के किसानों की दशा सुधारने व उन्हें ऊंचा उठाने में लगा दिया और जीवन के अन्तिम समय तक उसमें लगे रहे। उनकी सेवाओं के लिए १७ जनवरी १९७५ को विशाल समारोह में मारवाड़ के कृषक समाज की और से आपको एक अभिनन्दन पत्र भेंट किया गया जिसमें आपको "किशान जागृति के अग्रदूत" और 'कर्मठ समाज सुधारक' के रूप में याद किया
चौधरी बलदेव राम जी मिर्धा तो यहाँ तक कहा करते थे किमुझे जनसेवा के कार्य को करने में यदि किसी एक व्यक्ति ने प्रेरणा दी तो वह चौधरी मूलचन्द जी सीहाग थे। ऐसे महान जाट सेवक, किसानों के रक्षक तथा समाज-सेवी चौधरी मूलचन्द जी सीहाग का देहावसान पौष शुक्ला १३ संवत २०३४ तदनुसार शनिवार २१ जनवरी १९७८ को हो गया।