यतीन्द्रनाथ दास

भारतीय क्रांतिकारी

यतीन्द्र नाथ दास अथवा जतीन्द्र नाथ दास (बांग्ला: যতীন দাস) (27 अक्टूबर 1904 – 13 सितम्बर 1929), जिन्हें जतिन दास के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता कार्यकरता और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे। ६३ दिन की भूख हड़ताल ककरके उन्होंने लाहौर सेण्ट्रल जेल में अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया था।

यतीन्द्रनाथ दास
যতীন দাস
जन्म यतीन्द्र नाथ दास
27 अक्टूबर 1904
कलकत्ता, ब्रितानी भारत
मौत 13 सितम्बर 1929(1929-09-13) (उम्र 24)
लाहौर, ब्रितानी भारत
मौत की वजह अनसन
राष्ट्रीयता भारतीय
उपनाम जतीन; जतीन्द्र; जतीन्द्र दास, जतीन दास
पेशा स्वतंत्रता कार्यकर्ता
प्रसिद्धि का कारण कारावस मे 64-दिन की भूख हड़ताल; हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य
उल्लेखनीय कार्य {{{notable_works}}}

यतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कोलकता में हुआ था। जब वे नौ वर्ष के थे तभी उनकी माँ का देहान्त हो गया था। उनके पिता ने उनका पालन पोषण किया। पढ़ाई के दौरान ही जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो यतीन्द्र भी आन्दोलन में कूद पड़े थे। इस आन्दोलन में भाग लेने के चलते अंग्रेजों ने जेल में डाल दिया था। जब यह आन्दोलन धीमा पड़ा तो उन्हें भी शेष क्रांतिकारियों के साथ छोड़ दिया गया।

जतीन्द्र दास को राह मिल गयी थी। उनके हृदय में अपनी मातृभूमि को स्वतंत्रत करने के लिए अथाह स्वप्न थे। असहयोग आन्दोलन की विफलता के बाद उनके स्वप्न टूटने लगे थे। अन्य क्रांतिकारियों की भांति उन्हें भी इस आन्दोलन का वापस लेना समझ नहीं आया था।

सन १९२५ में जब जतिन कोलकाता के बंगबासी कॉलेज में बीए कर रहे थे तब अंग्रेज सरकार ने उन्हें उनकी राजनैतिक गतिविधियों के लिये गिरफ्तर कर लिया। उन्हें मेमनसिंह जेल में डाल दिया गया। यहाँ उन्होंने राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल शुरू कर दी। २० दिन की भूख हड़ताल के बाद जेल के अधीक्षक ने उनसे माफी मांग ली और उन्हें रिहा कर दिया।

उसके बाद वे शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ जुड़े जिन्होंने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की थी। शचीन्द्रनाथ सान्याल ने उन्हें बम बनाना सिखाया।[1] वर्ष 1928 में उनकी भेंट भगत सिंह से हुई। भगत सिंह ने उन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए बम बनाने के लिए कहा।

१४ जून १९२९ को उन्हें क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें लाहौर के केन्द्रीय जेल में डाल दिया गया और लाहौर षड्यन्त्र मामले में पूरक अभियोग चलाया गया।

लम्बा भूख हड़तल संपादित करें

लहौर जेल में भी उन्होंने अन्य क्रान्तिकारियों के साथ अमरण अनशन शुरू कर दी। इनकी मांग थी कि भारत के राजनैतिक कैदियों के साथ वैसा ही व्यवहार किया जाय जैसा यूरोपीय राजनैतिक कैदियों के साथ किया जाता है। उन्हें भी वे सब सुविधाएँ दी जाँय जो यूरोप के राजनैतिक कैदियों को दी जातीं हैं। उल्लेखनीय है कि जेल में भारत के कैदियों की दशा अत्यन्त दयनीय थी। उन्हें पहनने के लिये जो यूनिफॉर्म दिया जाता था उनकी बहुत दिनों तक सफाई नहीं होती थी। भोजनायल में चूहे और काकरोच का बसेरा होता था जिससे भोजन अत्यन्त असुरक्षित था। भारतीय कैदियों को पढने के लिये अखबार आदि कुछ नहीं दिया जाता था, न ही लिखने के लिये कागज दिया जाता था। इसके विपरीत उन्हीं जेलोँ में ब्रितानी कैदियों की हालत बिल्कुल अलग थी।

यह भूख हड़ताल ऐसी हुई कि इसकी चर्चा हर जगह होने लगी। जेल के अधिकारियों ने उनकी भूख हड़ताल तुड़वाने का निर्णय लिया। उनके शरीर में जबरन रबड़ की नली से दूध डालने का प्रयास किया, इस प्रयास में दूध उनके फेफड़ों में चला गया।

वह पीड़ा से भर उठे लेकिन उन्होंने उपवास जारी रखा। उनकी स्थिति बिगड़ती चली गयी। उनके भूख हड़ताल की कहानियाँ बाहर जाने लगी थीं। लोगों के दिल में आक्रोश उत्पन्न हो रहा था।

जतीन्द्र दास ने 13 सितम्बर 1929 को अंतिम सांस ली थी। वह भूख हड़ताल का 63वां दिन था। उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके निधन के समाचार से सड़कें लोगों से पट गयी थीं और लोग बस उनके अंतिम दर्शन करना चाहते थे।

तत्कालीन रिपोर्टों के अनुसार लगभग पाँच लाख लोगों ने उनके अंतिम संस्कार में भाग लिया था। हरीश जैन, जिन्होनें “हैंगिंग ऑफ भगत सिंह” क्रांतिकारी घटनाओं की पूरी श्रृंखला में से एक का सम्पादन किया है, उनका विचर है कि जतिन दास के आत्म-बलिदान और उसकी प्रतिक्रिया का ही परिणाम था कि अंग्रेजों ने किसी भी राजनीतिक कैदी का शव उनके परिजनों को सौंपने से इनकार कर दिया। इसीलिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शवों का सतलुज के तट पर आधी रात को गुप्त रूप से अंतिम संस्कार किया गया।

जतीन्द्र दास की अंतिम यात्रा में लाहौर से लेकर कलकत्ते तक लोग श्रद्धांजलि देने आए। उनके अंतिम दर्शन के लिए कानपुर रेलवे स्टेशन पर जवाहर लाल नेहरु एवं गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में लाखों लोग उमड़ पड़े थे। हावड़ा रेलवे स्टेशन पर सुभाष चन्द्र बोस ने नेतृत्व में पचास हजार लोगों ने श्रद्धांजलि दी थी।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

  1. []