अंतरराष्ट्रीय राजनीति में, नौसैनिक शक्ति का प्रदर्शन करके विदेश नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करना युद्धपोत राजनय (gunboat diplomacy या अमेरिकी इतिहास में "big stick diplomacy") कहलाता है। दूसरे शब्दों में, सीधे युद्ध का भय दिखाकर अपनी बातें मनवाना युद्धपोत राजनय है।

जर्मन गनबोट डिप्लोमैसी का प्रसिद्ध उदाहरण : एस एम एस पैन्थर

राजनय के कई तत्त्व हैं जैसे नीति, कर्मचारीगण, राष्टींय चरित्र आदि। लेकिन इन सब तत्त्वों में शक्ति का तत्त्व बहुत महत्वपूर्ण है। ये तत्त्व उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रभावी साधन के रूप में काम करते हैं।राजनय में शक्ति की भूमिका निरन्तर एवं स्थिर (Constant and Conditioning) है। अन्य बातें समान रहने पर एक राष्ट्र की आर्थिक एवं सैनिक शक्ति उसकी सम्मेलन में सफलता की पर्याप्त गारन्टी है। शक्ति ने वार्ता मेज (Negotiation table) पर राष्ट्रों की अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की है। यह राष्ट्र को अपने विशेष दावों को आगे बढ़ाने में सहायक हो सकती है अथवा दूसरे राष्ट्रों के दावों का विरोध कर सकती है। फ्रैड्रिक महान के अनुसार, शक्ति के बिना राजनय की स्थिति उसी प्रकार होती है जैसे संगीत की उसके यन्त्रों के बिना (Diplomacy without arms is music without instruments)। राजनयिक वार्तालाप मेज पर सैनिक शक्ति की धमकी डमोकलीज की तलवार (Sword of Democles) की तरह कमजोर धागे से लटकी रहती है। वार्ताकारों (Negotiators) को हमेशा ही विरोधियों की ताकत की मात्रा को ध्यान में रखना पड़ता है। शक्ति के बिना राजनय का क्षेत्र वास्तव में सीमित होता है। आधुनिक शब्दावली में कुछ विद्वानों ने शक्ति शब्द के स्थान पर राज्य की सामर्थ्य शस्त्रगृह (Capability arsenal) अथवा राजनीतिक सम्भावित (Political Potential) शब्द का प्रयोग किया है। स्टीफन बी0 जोन्स ने इस शब्द को व्यापक अर्थ के रूप में इस्तेमाल करते हुए 'राष्टींय युद्ध कौशल' (National Strategy) कहा है।

शक्ति के बल पर प्रतिष्ठा एवं गौरव निर्भर करता है। स्पष्ट रूप से यह शक्ति से सम्बन्धित है। एक राष्ट्र की विश्व मामलों में गरिमा उसके शक्ति के लिए प्रतिष्ठा पर निर्भर करती है। प्रतिष्ठा भी स्पष्ट तौर पर उद्देश्यों में है जिनका राज्य पीछा करते हैं। एक राज्य जिसके पास पर्याप्त प्रतिष्ठा है वह तार्किक रूप से निश्चित होता है कि अन्य राज्य उसके अ्रिधकारों एवं हितों का अतिक्रमण नहीं कर सकतें। वह अन्य राज्यों के सम्मान को भी प्राप्त करता है।

अन्तर्राष्ट्रीय समाज अन्ततोगत्वा शक्ति से शासित होता है। विश्व शक्तियां भी स्वतन्त्र एजेन्ट नहीं है। शक्ति राजनीति की व्यवस्था में भौतिक शक्ति के प्रयोग का भय सदा बना रहता है। सर्वोच्च राज्यों की सशक्त सेनाओं के अस्तित्व मात्र से ही वे ऐसी परिस्थितियों में समझौता करे जिनमें अक्सर राजनयिक वार्तालाप करने वाले पक्ष असहमति प्रकट करते हैं। अगर इस प्रकार की दबाव की राजनीति का विरोध किया जाता है तो इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सशस्त्र सेनाओं को वास्तव में ही शक्ति का प्रयोग करना चाहिये। इसके विपरीत अगर राज्य के पास उचित सशस्त्र सेना है तो वह इस तरह के प्रतिबन्ध का विरोध कर सकता है। जब दूसरे तकनीक राज्यों को वांछित सन्तुष्टि प्रदान करने में असफल रहे तब राजनय के सहायक के रूप में सशस्त्र सेनाओं को कई अवसरों पर प्रयोग में लाया गया।

उन्नीसवीं शताब्दी में शक्ति प्रदर्शन के प्रयोग से चीन तथा जापान को अपने क्षेत्रा विदेशी सम्बन्धों तथा व्यापार के लिए खोलने के लिए विवश किया गया। चीन में विदेशियों को व्यापारिक रियायतें अथवा क्षेत्रावादिता के विशेषाधिकार को प्रदान करने के लिये युद्धपोत राजनय के तकनीक को प्रयोग में लाया गया। देश की प्रतिष्ठा राजदूत की मुख्य पूंजी होती है। उस देश की सैनिक शक्ति उस प्रतिष्ठा का एक प्रमुख तत्त्व होती है। अन्तर्राष्ट्रीय मामलों को हल करते समय यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि सफलता के लिए दूसरे यन्त्रों, राजनीतिक, आर्थिक एवं सैनिक शक्ति, राजनेता द्वारा साधन एवं पूंजी को इकट्ठा रखने की योग्यता तथा सुविदित जनता के समर्थन पर निर्भर करता है, हालांकि राजनय अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति व्यवस्था का हृदय है। लिस्टर पियरसन (Lester Pearson) के अनुसार,

शक्ति के बिना चातुर्य राजनीतिक कार्य व्यक्ति को पत्थर की दीवार के सामने सीधा ले जाकर खड़ा कर देता है। लेकिन बिना शक्ति के राजनय केवल ध्येयरहित अभ्यास होता है
("Strength without skilled diplomatic action may lead you straight against stone wall. But diplomacy without strength behind it may be merely an aimless exercise.)

अतः एक राज्य में यह शक्ति का यन्त्रा ही राजनय को 'माँसपेशियां' प्रदान करता है।

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