योगमाया न्यौपाने (1 अप्रैल 1867 – 5 जुलाई 1941) नेपाल के भोजपुर ज़िले की एक धार्मिक गुरु, महिला अधिकार कार्यकर्ता और कवयित्री थीं।[1] उन्हें नेपाल की आदि कवयित्रियों में से एक माना जाता है जिनमें से उनकी कविताओं की एकमात्र प्रकाशित किताब सर्वार्थ योगवाणी को उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान माना जाता है।[2]

योगमाया न्यौपाने
अज्ञानकृत कलाकार द्वारा बनाई गई योगमाया की तस्वीर, 2017
अज्ञानकृत कलाकार द्वारा बनाई गई योगमाया की तस्वीर, 2017
व्यक्तिगत जानकारी
जन्म1 अप्रैल 1867
मझुवाबेसी, नेपालेडाँड़ा, भोजपुर, नेपाल
मृत्युजुलाई 5, 1941(1941-07-05) (उम्र 74)
अरुण नदी, भोजपुर, नेपाल
वृत्तिक जानकारी

योगमाया की कविताएँ नेपाल में राणा शासन और भारत में ब्रिटिश राज के समय का वर्णन करती हैं। उस समय के सांस्कृतिक और राजनीतिक उत्पीड़न से चित्रित उनकी लेखनशैली साफ़ तौर पर सच्ची और खरी थी। धार्मिक गुरु होने के नाते से हिंदू दर्शन पर विशेष ध्यान देने के बावजूद उनकी कविताएँ महिलाओं और उत्पीड़ित समुदायों के अधिकारों पर आधारित थीं जिसकी वजह से उनहोंने बहुत ख्याति प्राप्त की। उनके जीवन के अंतिम क्षणों में राणा शासकों के आज्ञानुसार उनकी कृतियों को निषेधित किया गया और उनके ऊपर कड़ी नज़र रखी गई लेकिन सो उत्पीड़न के बावजूद उनहोंने नेपाल में ही रहने का निर्णय लिया। योगमाया को 1918 में नेपाल की पहली नारी समिति की स्थापना का श्रेय दिया जाता है जिसको 1920 में नेपाल में सती प्रथा पर रोक लगवाने का श्रेय दिया जाता है।[3]

संन्यास लेकर नेपाल लौटने के बाद योगमाया के सक्रियतावाद की शुरुआत हुई। सरकार के योगमाया और उनके समर्थकों प्रति अत्याचार और अपने भ्रष्ट व्यवहारों को सुधारने में हिचकिचाहट की वजह से योगमाया और उनके 67 अनुयायियों ने 1941 में अरुण नदी में कूदकर नेपाल के इतिहास की सबसे बड़ी जलसमाधि की।[4] जनवरी 2016 में उनके योगदानों के लिए नेपाल सरकार ने उनके नाम पर एक डाक टिकट जारी की।

जीवनी संपादित करें

प्रारंभिक जीवन और परिवार (1867-1872) संपादित करें

योगमाया 1967 में मझुवाबेसी, नेपालेडाँड़ा में एक ब्राह्मण परिवार के यहाँ पैदा हुई थीं। वे पिता श्रीलाल उपाध्याय न्यौपाने और माता चंद्रकला न्यौपाने के तीन संततियों में से पहली और एकमात्र बेटी थीं।[1]

उस समय में प्रचलित ब्राह्मण रीतियों के अनुसार सात साल की उम्र में योगमाया की मनोरथ कोइराला से शादी करवाई गई। तथापि, उन्हें अपनी ससुराल में समायोजन करने में बहुत मुश्किल हुई और माना जाता है कि वह घरेलु हिंसा की शिकार थीं। अपने किशोर वर्षों में वे अपनी हिंसाजनक ससुराल को छोड़कर अपने मायके लौट गईं। हालाँकि उनके पिता ने उन्हें पहले घर में स्वागत करने से इनकार कर लिया, ससुराल ने योगमाया के स्वागत न करने के बाद उनहोंने अपनी बेटी को अपने घर में फिर से जगह दी।

योगमाया के पति मनोरथ कोइराला के भाग्य के बारे में दो अलग अनुमान लगाए जाते हैं। विख्यात अनुमान अनुसार 10 साल की उम्र में मनोरथ की मृत्यु पश्चात योगमाया बाल विधवा बन गईं और अपनी वैधव्य के कारण ही उन्हें अपनी ससुराल छोड़नी की हिम्मत मिली।[4] आधुनिक साहित्य में पाए गए अनुमान अनुसार योगमाया के घर छोड़ने के बाद मनोरथ ने दूसरी शादी कर ली।[5]

असम में प्रवास और पुनर्विवाह (1872-1917) संपादित करें

अपने किशोर वर्षों में उस समय के रूढ़िवादी और दमनकारी ब्राह्मण समाज में एकल महिला होने के बावजूद योगमाया गुप्त तौर पर पड़ोस के कँड़ेल​ कुटुंब के एक ब्राह्मण लड़के से प्यार में बँध गईं। हिंदू समाज में पुनर्विवाह या विधवा विवाह विवादस्पद होने की वजह से उनहोंने भोजपुर में अपने घर छोड़कर असम में अपने प्रेमी से शादी करने का निर्णय लिया। माना जाता है कि एक दशक साथ रहने के बाद योगमाया ने अपने दूसरे पति से संबंध विच्छेद कर अपनी बेटी के साथ चली गईं। कुछ स्रोतों में योगमाया के दूसरे पति की मृत्यु को संबंध विच्छेद का कारण बताया गया है लेकिन अन्य स्रोतों के अनुसार आपसी मनमुटाव के कारण संबंध विच्छेद हुआ था। कुछ स्रोत बताते हैं कि अपने दूसरे पति की मृत्यु के बाद योगमाया ने डोटेल कुटुंब के आदमी से शादी कर ली। यह स्पष्ट नहीं है कि योगमाया की कितनी बेटियाँ थीं लेकिन उनकी बेटी के रूप में नैनकला न्यौपाने के अस्तित्व का अभिलेख पाया गया है।[6][7]

संन्यास और नेपाल में वापसी (1917) संपादित करें

शादी और सांसारिक मोह से तंग आकर योगमाया ने परित्याग के मार्ग अपनाकर संन्यासी बनने का निर्णय लिया। हालाँकि उस समय में आदमियों को संन्यास लेते देखना सामान्य था, ज़्यादा महिलाएँ संन्यास नहीं लेती थीं। संन्यासी बनने के बाद योगमाया ने नेपाल के मझुवाबेसी में अपने घर लौटकर अपनी बेटी नैनकला को अपने भाई अग्निधर और बहू गंगा को सौंप दिया। तदर्थ, उनहोंने संपूर्ण सांसारिक कर्तव्यों का परित्याग करकर संन्यासी जीवन को अपना लिया। इसी समय योगमाया ने अपनी धार्मिक कविताओं की रचना की शुरुआत की। योगमाया की पहली कविताओं के विश्लेषण से पता चलता है कि वे सुधारवादी हिंदू गुरु दयानंद सरस्वती से बहुत प्रभावित थीं।[7]

नेपाल में संन्यासी यात्रा (1917-1918) संपादित करें

बाद में योगमाया ने नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी संन्यासी यात्रा की शुरुआत की जिसके दौरान उनहोंने स्वर्गद्वारी महाप्रभु अभयानंद द्वितीय सहित विभिन्न विख्यात धार्मिक गुरुओं से मिलने का अवसर प्राप्त किया। यात्रा के बाद योगमाया ने अपने गाँव लौटकर अपनी साधना में तल्लीन होने का निर्णय लिया।[7]

मझुवाबेसी में वापसी, प्रसिद्धि और स्थानीय सामंतवादियों का विरोध (1918-1930) संपादित करें

योगमाया ने अपनी साधना के दौरान गर्मी के मौसम में आग के सामने ध्यान करने और सर्दी के मौसम में गुफाओं में पतले कपड़े पहनकर ध्यान करने जैसी अत्यंत मुश्किल तकनीकों का अभ्यास करती थीं। कभी-कभी वे बिना खाए सिर्फ़ पानी पीकर ध्यान करती थीं। बाक़ी के समय में वे अपने रिश्तेदारों और लोगों के साथ मिलकर उन्हें अपनी कविताएँ सुनाती थीं जिनसे प्रभावित होकर उनकी अनुयायियों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी। भीमबहादुर बस्नेत नामक उनके अनुयायियों में से एक आदमी ने योगमाया के लिए एक आश्रम का निर्माण किया और बाद में सिक्किम से उनकी कविताओं का एक किताब छपवाया।

संन्यास से पहले जीवन में अनुभव किए गए उत्पीड़न ने नेपाली हिंदू समाज में मौजूद अन्यायों प्रति के दृष्टिकोण को भारी रूप से प्रभावित किया। हिंदू आध्यात्मिक दर्शन की अनुयायी एवं उपदेशक होने के बावजूद योगमाया मानती थीं कि उस समय में प्रचलित पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं, दलितों और नेपाल के संदर्भ में ग़रीबों के साथ पक्षपात किया जाता था। अपनी कविताओं के माध्यम से उनहोंने भोजपुर की जनताओं में चेतना फैलाने की कोशिश की और कुछ हद तक सो कोशिश में कामयाब भी रहीं। उनकी कविताओं के प्रकाशन के बाद दार्जिलिंग और काठमांडू जैसी दूर रही जगहों से भी लोग उनके अनुयायी बनने पहुँचे।

हालाँकि योगमाया की शिक्षा से कई उत्पीड़ित समूह प्रभावित हुए, बस्नेत घराने के सामंतवादियों और काठमांडू में केंद्रीय प्रशासन के नज़दीक रहे लोगों ने उन्हें पितृसत्तात्म का शत्रु मानकर उनका विरोध करना शुरू किया। अंततः उनकी प्रसिद्धि की वजह से उनहोंने राणा वंश का भी ध्यान आकर्षित कर लिया।[4][7]

राज्य से संपर्क (1930-1936) संपादित करें

योगमाया मानती थीं कि आम जनताओं में हिंदू धर्म के अनुसरण पर ज़ोर देने के बावजूद प्रशासन ख़ुद धर्म के मार्ग में चलने में संकोच कर रहा था जिसकी वजह से भ्रष्टाचार में वृद्धि के साथ जनताओं के जीवनस्तर में घटाव आ रही थी। उनहोंने अपनी कविताओं में भ्रष्टाचार पर टिके प्रशासकों की आलोचना की थी जो अपने ही देश के लोगों को आधारभूत मानवाधिकार देने से इनकार कर रहे थे। अपनी अवधारणाओं का प्रचार करने के साथ ही काठमांडू में रहे प्रशासकों को अधिकार की माँग करने हेतु योगमाया ने 1931 में अपने अनुयायी प्रेमनारायण भंडारी, जिन्हें बाद में हरेराम प्रभु के नाम से जाना जाने लगा, को काठमांडू भेजा। तत्कालीन प्रधानमंत्री जुद्ध शमशेर राणा ने भी भंडारी से मिलने का निर्णय लेकर योगमाया को अपने तौर-तरीक़े बदलने के वादे का संदेश भिजवाया। तथापि, आगामी चार सालों में भी प्रशासकों ने भ्रष्टाचार पर रोक लगाने हेतु कोई क़दम नहीं उठाया। काठमांडू में रहे प्रशासकों के रवैये से उदास योगमाया ने 1936 में फिर से भंडारी को काठमांडू भेजा और उसके बाद ख़ुद अपनी बेटी के साथ काठमांडू गईं। अपने भ्रमण के दौरान उन्हें जुद्ध शमशेर ने ख़ुद स्वागत करकर पूछा कि उन्हें क्या चाहिए, जिसके उत्तर के तौर पर उन्हों ने सत्य धर्म की भिक्षा माँगी। प्रधानमंत्री ने फिर से योगमाया को आश्वासन दिया लेकिन भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए कुछ नहीं किया। काठमांडू घाटी से वापस जाने से पहले योगमाया ने प्रधानमंत्री को 24 चीज़ों की सूची दी जिसमें वह सुधार देखना चाहती थीं। इस सूची की वजह से जुद्ध शमशेर और उनके अनुयायी योगमाया को अपने राजनीतिक संस्था के लिए ख़तरा मानने लगे और उनहोंने उसी साल योगमाया को भोजपुर भेजने की तैयारी करवाई।[1][7]

राज्य से असंतोष और चिता में सामूहिक आत्महत्या की धमकी (1936-1939) संपादित करें

प्रमुख तौर पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से प्रभावित नेपाली जनता 1930 के दशक में राणा शासन के विरोध में आवाज़ उठाने लगे थे। जवाब के तौर पर सरकार ने मतभेदियों के लिए कड़ी सज़ा की व्यवस्था की। योगमाया और उनके अनुयायियों द्वारा की गई सुधार की माँगों को बारंबार अनदेखा करकर योगमाया के समूह के हरकतों पर कड़ी नज़र लगाई गई। 1935 में योगमाया ने खुले में भ्रष्ट और ज़ालिम प्रशासकों का विरोध करना शुरू किया। उनहोंने नेपाली समाज में मौजूद अन्यायों, अंधविश्वासों और भ्रष्ट व्यवहारों का अंत करकर एक नए युग की शुरुआत करने की आवश्यकता की घोषणा की। उनहोंने अपने मोक्ष प्रति नैकट्य के बारे में बताते हुए ख़ुद को ईश्वर के नाम पर समर्पित करने के निर्णय की घोषणा की।

जुद्ध शमशेर द्वारा अपने आश्वासनों की पूर्ति में हिचकिचाहट को कारण बताकर योगमाया ने अपने 240 इच्छुक अनुयायियों के साथ चिता में जलकर अग्निसमाधि करने का निर्णय लेते हुए अपने अनुयायियों को कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा तक आम जनताओं से भिक्षा स्वीकारने की अनुमति दी। उनहोंने धनकुटा ज़िले के तत्कालीन प्रशासक माधव शमशेर और जुद्ध शमशेर से भी भिक्षा की माँग की।

एक बार फिर सरकार द्वारा अवहेलित होने के बाद योगमाया ने 12 नवंबर 1938 को ख़ुद की बलि देने के निर्णय लेकर सो अनुसार तैयारी करने लगीं।[1][8]

राज्य द्वारा हस्तक्षेप और योगमाया के अनुयायियों की गिरफ़्तारी (1939-1941) संपादित करें

सामूहिक आत्महत्या होने के बाद होनेवाली सामूहिक आलोचना के डर से जुद्ध शमशेर ने 11 नवंबर को 500 सेनाओं को भेजकर समाधि रोकने का आदेश दिया जिसके बाद 11 पुरुष अनुयायियों को धनकुटा में कारावास में रखा गया जबकि योगमाया और नैनकला सहित महिलाओं को भोजपुर में राधाकृष्ण मंदिर में रखा गया। प्रशासकों ने महिलाओं को तीन महीने बाद क़ैद से मुक्त कर दिया गया जबकि ज़्यादातर पुरुषों को तीन साल बाद अप्रैल 1941 में मुक्त कर दिया गया।[1]

जलसमाधि (1941) संपादित करें

रिहाई के बाद योगमाया ने फिर से ख़ुद की बलि देने की योजना बनाई लेकिन इस समय उनहोंने अपनी योजनाओं को गुप्त रखने का आदेश दिया। उनहोंने देवशयनी एकादशी के अवसर में 5 जुलाई 1941 को समाधि में जाने का निर्णय लिया और अपने साथ ख़ुद चुने लोगों को आने की अनुमति दी। जलसमाधि के लिए धार्मिक संस्कार 4 जुलाई 1941 में शुरू हुए 5 जुलाई के सुबह 5 बजे योगमाया ने अपने सिर पर जलते दीये रखकर अरुण नदी पर कूदकर सामूहिक आत्महत्या की शुरुआत की। उनके बाद उस दिन उनके 65 अनुयायी और दूसरे दिन दो और अनुयायी नदी में कूदकर समाधि समाप्त हुई। अंततः जलसमाधि में कुल 68 लोगों की मृत्यु हुई।[1][4][9]

विरासत संपादित करें

योगमाया और उनकी बेटी नैनकला निरक्षर थीं। उनकी कविताओं का संकलन और प्रकाशन उनके साक्षर अनुयायियों द्वारा किया गया था।[10] वास्तव में योगवाणी को उनके कविता संग्रहों का एक छोटा हिस्सा माना जाता है जो उनहोंने अपनी जलसमाधि के साल तक लिखना जारी रखा।

1951 में राणा शासन के अंत तक योगमाया और उनकी जलसमाधि से संबंधित ख़बरों पर निषेध लगवाया गया था। तथापि, प्रथम बहुदलीय गणतंत्र काल और नेपाली पंचायती व्यवस्था के दौरान भी योगमाया के कामों के उल्लेख को हतोत्साहित किया जाता था। फिर भी भोजपुर, खोटांग और संखुवासभा में फैले अनुयायियों ने उनकी कृतियों का विस्तार करना नहीं छोड़ा। योगमाया के कुछ महिला अनुयायी टुमलिंगटार​ के मनकामना मंदिर में भी रहती थीं।

पंचायत काल में विदेशियों को नेपाल में प्रवेश करने की अनुमति मिलने के बाद वे योगमाया के अनुसंधान की शुरुआत की। 1980 के दशक में बारबरा निमरी अज़ीज़ और माइकल हट जैसे पश्चिमी विद्वानों ने योगमाया पर आधारित अपनी कृतियाँ प्रकाशित की।[8][9][11]

योगमाया से संबंधित विषयवस्तुओं को नेपाल के विभिन्न विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र, मानवशास्त्र और महिलाशास्त्र जैसे विधाओं में समावेश किया गया है।

योगमाया के कृतियों और कामों के प्रचार और उनके संन्यासी जीवन से संबंधित नेपालेडाँड़ा और दिंगला जैसी जगहों के संरक्षण के लिए उनके रिश्तेदारों और स्थानीय बाशिंदाओं ने मिलकर योगमाया शक्तिपीठ तपोभूमि विकास संस्था की स्थापना की है।[12]

16 नवंबर 2016 को नेपाल सरकार ने नेपाल के इतिहास में योगमाया द्वारा दिए गए योगदानों के लिए एक डाक टिकट जारी की।[13]

लेखिका नीलम कार्की निहारिका ने योगमाया की जीवनी पर आधारित उपन्यास लिखकर 2018 में मदन पुरस्कार प्राप्त की। बाद में नेपाली नाटककार टंक चौलागाईं ने सो उपन्यास पर आधारित एक नाटक लिखा जिसे जून 2019 में काठमांडू की शिल्पी थिएटर में दर्शाया गया था।

संदर्भ संपादित करें

  1. भंडारी, लेखनाथ (13 जुलाई 2013). "Courageous Reformer" [साहसी सुधारक]. ई॰ कांतिपुर. अभिगमन तिथि 31 मार्च 2016 – वाया कांतिपुर डेली.[मृत कड़ियाँ]
  2. नादू, कैथलीन एम॰; रायमाझी, संगीता (11 जून 2013). Women's Roles in Asia [एशिया में महिलाओं की भूमिका] (अंग्रेज़ी में). ए॰ बी॰ सी॰. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9780313397493.
  3. "In focus: Yogmaya, who gave her life fighting Rana atrocities" [केंद्र में: योगमाया, जिन्होंने राणा उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ते हुए अपनी जान दी]. काठमांडू पोस्ट. मूल से 12 अप्रैल 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 मार्च 2016.
  4. पांडे, बिंदा (2011). Women Participation In Nepali Labour Movement [नेपाली श्रम आंदोलन में महिलाओं की सहभागिता]. नेपाल: जीफ़ॉंट नेपाल. पृ॰ 21. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 99933-329-2-5.
  5. "योगमाया बाल विधवा थिइनन् !" [योगमाया बाल विधवा नहीं थीं!]. बाह्रखरी (नेपाली में). मूल से 28 जनवरी 2022 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 मई 2020.
  6. "NEPAL: Yogmaya Neupane: Nepal's First Female Revolutionary" [नेपाल: योगमाया न्यौपाने: नेपाल की पहली महिला क्रांतिकारी]. पीसविमेन (अंग्रेज़ी में). 3 फ़रवरी 2015. अभिगमन तिथि 17 फ़रवरी 2019.
  7. न्यौपाने, डॉ॰ केदार (2014). ओजस्वी नारी योगमाया न्यौपाने र उनको सम्बन्धका आयामहरू (जीवनवृत्त र योगदानका प्रसङ्गहरू) [ओजस्वी नारी योगमाया न्यौपाने और उनके रिश्तों के आयाम (जीवनवृत्त और योगदान के प्रसंग)]. काठमांडू: नेपाल स्रष्टा समाज. पपृ॰ 15–21. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9937-2-6977-6.
  8. अज़ीज़, बारबरा निमरी (2001). Heir to a Silent Song: Two Rebel Women of Nepal [मूक गाने के उत्तराधिकारी: नेपाल के दो विद्रोही औरतें]. काठमांडू: सी॰ एन॰ ए॰ एस॰. पपृ॰ 33–72. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 99933-52-13-6.
  9. "Lecture Series XLIX—Michael Hutt: 'The Iconisation of Yogmaya Neupane'" [व्याख्यान शृंखला XLIX—माइकल हट: 'योगमाया न्यौपाने का आइकॉनीकरण']. सॉस्कबाहा. मूल से 15 अप्रैल 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 मार्च 2016.
  10. "Women Writers of Nepal" [नेपाली लेखिकाएँ]. जगदीश राणा. मूल से 3 मई 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 मार्च 2016.
  11. अज़ीज़, बारबरा निमरी (1993). Shakti Yogmaya: A tradition of dissent in Nepal [शक्ति योगमाया: नेपाल में मतभेद की संस्कृति]. ज़ूरीख़: ज़ूरीख़ विश्वविद्यालय लोक संग्रहालय. पपृ॰ 19–29.
  12. "Yogamaya". फ़ेसबुक. अभिगमन तिथि 31 मार्च 2016.
  13. "योगमाया - हुलाक सेवा विभागले योगमायाको नाममा यस वर्ष..." [योगमाया - डाक सेवा विभाग ने योगमाया के नाम में इस साल...]. फ़ेसबुक. अभिगमन तिथि 31 मार्च 2016.