योगेश्वरजी (१५ अगस्त १९२१ - १८ मार्च १९८४) बीसवीं सदी में गुजरात में उत्पन्न संत, योगी, दार्शनिक और साहित्यकार थे।[1] हिमालय में जाकर कड़ी तपस्या करने के बाद समाज को आध्यात्म के मार्ग पर चलने के लिए उन्होंने मार्गदर्शन दिया।

योगेश्वरजी
जन्म 15 अगस्त 1921
सरोडा, गुजरात, भारत
मौत मार्च 18, 1984(1984-03-18) (उम्र 62)
उपनाम भाईलाल
पेशा संत, योगी, दार्शनिक, व्याख्याता, साहित्यकार
माता-पिता जडावबेन, मणिलाल भट्ट
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हस्ताक्षर

जीवन और साधना संपादित करें

१५ अगस्त, १९२१ को अहमदाबाद जिले के धोलका के पास सरोडा गाँव में साधारण ब्राह्मण परिवार में उनका जन्म हुआ था। योगेश्वर जी ने नौ साल की अवस्था में ही पिता की छत्रछाया गवां दी थी। शिक्षा के लिये मुंबई में प्रवास के दौरान पूर्व के प्रबल आध्यात्मिक संस्कारों के सुपरिणाम स्वरुप माँ जगदंबा के दर्शन करने की लगन लग गई। एकांत में ध्यानस्थ होकर बैठना और माँ के दर्शन के लिए पुकारनें में ही उनका समय व्यतीत हो रहा था। जगदंबा के दर्शन की इच्छा इतनी प्रबल हो गई कि अध्ययन छोड़कर बचपन में ही हिमालय में तपश्चर्या हेतु जाने की ठान ली। तब उनकी अवस्था बीस साल की थी।

ऋषि-मुनि सेवित हिमालय की भूमि में दो दाशक तक एकांतिक साधना करके अनेक सिद्धियाँ प्राप्ति की। यहाँ पर कई सिद्ध संतों से उनका सम्पर्क हुआ और योगविद्या में भी वे प्रवीण हो गए। उनको प्रार्थना पे अतूट विश्वास था। गांधीजी को अपना आदर्श मानते थे। देशप्रेम उनकी नसनस में भरा हुआ था, सिद्घ बनके देश के लीए कुछ करनें की तमन्ना थी। परंपरागत भगवे वस्त्र को छोडके आजीवन खादी के वस्त्र परिधान कीए। साधनाकाल और उनके बाद अपनी जननी को हंमेशा साथ रखा। साधु, संत और संन्यासीओ में मातृभक्त महात्मा के नाम से जाने गये।

गुजरात के प्रमुख शहरों के अलावा अमेरिका, केनेडा, इंग्लान्ड, अाफ्रिका इत्यादी क्षेत्रो में जा के भक्तो को आध्यात्मिक मार्गदर्शन दीया था। योगेश्वरजी सर्वधर्म समभाव में मानते थे और नात, जात, संप्रदायों से सर्वथा परे थे। उनकी वजह से रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसायटी, सत्य सांइ सेन्टर, डीवाइन लाईफ सेन्टर एवम जैन, शीख, ख्रीस्ती धर्म के धर्मस्थान, स्वामिनारायन संप्रदाय के कार्यक्रमो में उनको सादर आमंत्रित कीया जाता था। आज विश्व में उनका प्रसंशक अनुयायी वर्ग है।
उनको अपनी साधना की फलश्रुती स्वरुप इ.स. १९४४ में पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ था। जीस के बारे में उनकी आत्मकथा 'उजालों की और" में लीखा है। ये ज्ञान उसने ३३ सालो तक छुपा के रखा उन के बाद वोह पूर्वजन्म में रामकृष्ण परमहंस थे ऐसा दावा कीया था।[2]वोह साधना काल के दौरान बंगाल में दक्षिणेश्वर में गये थे और रामकृष्ण के कमरे में जा के बहोत रोये थे।

 साहित्य रचना  संपादित करें

शाला जीवन में दैनन्दिनी लिखने की आदत से उनकी सहित्यिक यात्रा की शरुआत हुई। उन्होने १०० से अधिक पुस्तकें लिखी है। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में तुलसीदासकृत रामचरितमानस का समश्लोकी पद्यानुवाद, महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखा गया काव्य गांधी गौरव, सरल भगवदगीता, गोपीगीत, विष्णु सहस्रनाम जैसे पद्य सर्जन है। उन की आत्मकथा "उजालों की ओर" लोकप्रिय हुइ थी। रमन महर्षि जीवन और कार्य, महाभारत, रामायण, वेदों, दर्शनशास्त्रों, योगसूत्र जैसे भारत के प्राचीन शास्त्रो पर भी ग्रन्थ लिखे थे। साधकों के प्रश्नों के समाधान के लिए मार्गदर्शन हेतु प्रश्नोत्तरी, संतो के साथ मिलन के प्रसंग भी लिखे है।[3]

सन्दर्भ संपादित करें

  1. उजाले की ओर, आत्मकथा, प्राप्तिस्थान:- स्वर्गारोहण, अंबाजी, गुजरात, भारत
  2. आध्यात्म मासिक, अंक-१, पृष्ठ-१०,११, वर्ष-१९७९,लेखक-स्वामी ब्रह्म स्वरुपानंदजी, प्राप्ति स्थानः- आध्यात्म कार्यलय, भावनगर, गुजरात
  3. प्रकाशकः-स्वयम, प्राप्ति स्थानः-स्वर्गारोहन, अंबाजी, गुजरात


इन्हें भी देखें संपादित करें

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बाहरी कड़ियाँ संपादित करें