रवील रईसोविच बुख़रायेव

रूसी कवि, कथाकार, पत्रकार, अनुवादक, नाटककार तथा रूसी और तातारी कवियों के अनेक कविता-संकलनों के संपादक रवील बुख़ाराएव का जन्म १९५१ में रूस के कज़ान नगर में हुआ। १९७४ में कज़ान विश्वविद्यालय की मैकेनिकल-मैथमैटिक्स फैकल्टी से एम.ए. करने के बाद रवील बुख़राएव ने १९७७ में मास्को राजकीय विश्वविद्यालय की साइबरनेटिक्स फैकल्टी में पीएच.डी. की।

रवील रईसाविच बुख़ाराएव


रवील १९९० से इंग्लैंड में रहते हैं और बी.बी.सी. के रूसी विभाग में प्रोड्यूसर हैं। इन्होंने १९६९ में लिखना आरंभ किया। 'डाल पर लटका सेब' इनकी पहली किताब थी जो १९७७ में कज़ान में प्रकाशित हुई। भारत-यात्रा के बारे में इनका एक उपन्यास 'यह राह कहाँ को जाती है, जानता है खुदा' १९९६ में बुकर पुरस्कार की दौड़ में शामिल रहा। १९९९ में फिर यही उपन्यास 'सेवेरनाया पलमीरा' पुरस्कार की अंतिम शार्ट-लिस्ट में शामिल रहा।


रवील बुख़ाराएव के अब तक १२ कविता-संग्रह और दो कथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी पाँच काव्य-नाटिकाओं का थियेटर में मंचन हो चुका है। वे अनेक डाक्यूमेंट्री टेलिफ़िल्मों के निर्देशक हैं। आज के रूस की अर्थव्यवस्था, राजनीति और इतिहास के बारे में उनकी अनेक पुस्तकें हैं। अंग्रेज़ी में भी वे इतिहास संबंधी अनेक पुस्तकें लिख चुके हैं। रवील बुख़ाराएव तातार कवियों की कविताओं के अनुवादक हैं और अंग्रेज़ी में उनकी एक एनथोलौजी प्रस्तुत कर चुके हैं। वे खुद भी रूसी, तातारी, अंग्रेज़ी और हंगारी भाषाओं में कविता लिखते हैं। 'मंत्रमुग्ध राजधानी' (१९९४), 'प्याले के लिए प्रार्थना' (२००३) और 'सफ़ेद मीनार' (२००६) उनके चर्चित कविता-संग्रह हैं। रूसी साहित्यिक पत्रिकाओं के वे नियमित रचनाकार हैं।


रवील बुख़ाराएव हंगरी पेन-क्लब और अमरीकी पेन-क्लब के सदस्य हैं और भारत की अखिल-विश्व कला और संस्कृति अकादमी के मानद सदस्य हैं।