राजाराम (भरतपुर)

ब्रज नरेश
(राजाराम जाट से अनुप्रेषित)

राजाराम जाट भरतपुर राज्य के राजा थे।वे भज्जासिंह के पुत्र थे और सिनसिनवार जाटों के सरदार थे। उसने जाटों के दो प्रमुख क़बीलों-सिनसिनवारों और चाहर को आपस में मिलाया। राजाराम और रामकी चाहर शीघ्र ही मुग़लों के अत्याचारों का विरॊध करने लगे।

राजाराम
सिनसिनी के प्रमुख
शासनावधि1670-1688
पूर्ववर्तीगोकुला
उत्तरवर्तीचूड़ामन
घरानासिनसिनवार जाट
पिता भज्जा/भगवंत सिंह

सिनसिनी से उत्तर की ओर, आऊ नामक एक समृद्ध गाँव था। यहाँ मुघलों का सैन्य दल नियुक्त था। लगभग 2,00,000 रुपये सालाना मालगुज़ारी वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था बनाने के लिए एक चौकी बनाई गयी थी। इस चौकी अधिकारी का नाम था लालबेग था। एक दिन एक व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ गाँव के कुएँ पर विश्राम के लिए रुका। लालबेग का एक कर्मचारी उधर से गुज़र रहा था, वह अहीर युवती की सुन्दरता को देखता है और तुरन्त लालबेग को ख़बर देता है। लालबेग अपने सिपाही भेजकर अहीर पती और पत्नी को जबरन अपने चौकी पर लाने को कहता है। उसके सिपाही पती को तो छोड़ देतें हैं लेकिन पत्नी को लालबेग के निवास में भेज देते हैं।[1]

यह खबर आग की तरह फैल जाती है और राजाराम के कानों में पड़ती है। राजाराम ठान लेता है की वह मुग़लों को सबक सिखा के ही रहेगा। उसने अपने सैन्य को युद्ध के लिए तय्यार किया और लालबेग को मारने की यॊजना बनाई। यॊजना के अंतर्गत वह अपने सिपाहियों के साथ गोवर्धन में वार्षिक मेले में जानेवाली घास की बैल गाड़ियों में छुप जाता है। लालबेग को अंदाज़ा भी नहीं था की राजाराम और उसके सिपाही घास के अंदर छुपे हुए हैं और वह गाड़ियों को अंदर जाने की अनुमति देता है। चौकी को पार करते ही राजाराम और सिपाहियों ने गाड़ियों में आग लगा दिया। उसके बाद भयंकर युद्ध हुआ और उसमें लालबेग मारा गया।

इस युद्ध के बाद राजाराम ने अपने क़बीले को सुव्यवस्थित सेना बनाना प्रारम्भ कर दिया। अस्त्र-शस्त्रों से युक्त उसकी सेना अपने नायकों की आज्ञा मानने को हमेशा तय्यार रहती थी। राजाराम ने जाट-प्रदेश के सुरक्षित जंगलों में छोटी-छोटी क़िले नुमा गढ़ियाँ बनवादी। इन पर गारे की (मिट्टी की) परतें चढ़ाकर मज़बूत बनाया गया जिन पर तोप-गोलों का असर भी ना के बराबर था। उसने मुगल शासन से विद्रोह कर उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। उसने धौलपुर से आगरा तक की यात्रा के लिए प्रति व्यक्ति से 200 रुपये लेना शुरू किया। इस एकत्रित धन को राजाराम अपने सैन्य को प्रशिक्षित करने में लगाता, जो मुग़लों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारती थी। राजाराम की वीरता की बात औरंगज़ेब के कानों तक भी पहुंची। उसने तुरन्त कार्रवाई की और जाट- विद्रोह से निपटने के लिए अपने चाचा, ज़फ़रजंग को भेजा। राजाराम ने उसको भी धूल चटाई। उसके बाद औरंगजेब ने युद्ध के लिए अपने बेटे शाहज़ादा आज़म को भेजा। लेकिन उसे वापस बुलाया और आज़म के पुत्र बीदरबख़्त को भेजा। बीदरबख़्त बालक था इसलिए ज़फ़रजंग को प्रधान सलाहकार बनाया। बार-बार के बदलावों से शाही फ़ौज में षड्यन्त्र होने लगे। राजाराम ने मौके का फ़ायदा उठाया, बीदरबख़्त के आगरा आने से पहले ही राजाराम ने मुग़लों पर हमला कर दिया।

सन् 1688, मार्च में राजाराम ने सिकंदरा में मुघलों पर आक्रमण किया और 400 मुगल सैनिकों को काट दिया। कहते हैं की राजाराम ने अकबर और जहांगीर के कब्र को तोड़ कर उनकी अस्थियों को बाहर निकाला और जला कर राख कर दिया।

"ढाई मसती बसती करी,खोद कब्र करी खड्ड,

अकबर अरु जहांगीर के गाढ़े कढ़ी हड्ड"।

मनूची का कथन है कि जाटों ने काँसे के उन विशाल फाटकों को तोड़ा। उन्होंने बहुमूल्य रत्नों और सोने-चाँदी के पत्थरों को उखाड़ लिया और जो कुछ वे ले जा नहीं सकते थे, उसे उन्होंने नष्ट कर दिया था। राजाराम के साहस की चर्चा होती थी और मुघल शासक उनसे डरते थे। जिस युद्ध के बीज औरंगज़ेब के अत्याचारों ने बोए थे उसे राजाराम ने नष्ट कर दिया। औरंगज़ेब के अत्याचार, हिन्दू मन्दिरों के विनाश और मन्दिरों की जगह पर मस्जिदों का निर्माण करने से जनता के मन में बदले की भावना पनप चुकी थी। इसी कारण से लोग मुघल शासन के विरुद्द विद्रोह करने लगे थे।[2]

राजाराम एक शूर वीर नायक की तरह उभर आया। 4 जुलाई 1688 को शेखावत व चौहानों के बीच हुए युद्ध में उन पर एक मुगल सैनिक ने पीछे से बंदूक से वार किया और वो शहीद हो गए। अलवर जिले के हरसोली कस्बे में उनकी समाधि है। जबकि उनकी पत्नी की समाधि जिला भरतपुर के गाँव सिनसिनी में है। राजाराम का सिर काटकर औरंगज़ेब के दरबार मे पेश किया गया और रामकी चाहर को जिंदा पकड़कर आगरा ले जाया गया जहां उनका भी सिर कलम कर दिया गया।

  1. Hansen, Waldemar (1986-09-01). The Peacock Throne: The Drama of Mogul India. Motilal Banarsidass. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-8-12080-225-4. मूल से 11 अप्रैल 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 जुलाई 2020.
  2. Jadunath Sarkar, A History of Jaipur: C. 1503-1938 pg.152