रानी लछछोबाई
आफताब बानो बेगम उर्फ रानी लछ्छोबाई साहिबा
- जनम :- १८११
- मृत्यु :- १८५१
- पती :- महाराज रघुनाथराव तृतीय
- पुत्र :- अली बहादुर, नुसरत, मेहरूनिस्सा बानो
राजा शिवराम भाऊ नेवालकर के पुत्र तथा झांसी के प्रथम महाराज रामचंद्रराव नेवालकर को अंग्रेज़ों ने झांसी राज्य का "महाराजाधिराज" पद लेकर सम्मानित किया था। इस खुशी में महाराज रामचंद्रराव ने शाही दरबार लगाकर आनंद उत्सव मनाया।
दरबार में नृत्य रखा गया था। तब झांसी की प्रसिध्द नृत्यांगना गजराबाई बेगम साहिबा, मोतीबाई बेगम साहिबा और लछ्छोबाई बेगम साहिबा ने दरबार में नृत्य किया था। इस समय महाराज रामचंद्रराव के साथ रघुनाथराव तृतीय और गंगाधरराव भी मौजूद थे। महाराज रघुनाथराव ने मुस्लिम महिला लछ्छोबाई को देखा और पहली नजर में ही उन्हे प्यार हो गया। लछ्छोबाई यह गजराबाई की रिश्तेदार थी।
महाराज रघुनाथराव की पत्नी थी महारानी जानकीबाई। यह निपुत्रिक थी। झांसी पर राज करने हेतू इसने झांसी को वारीस नहीं दिया। जिस कारण रघुनाथराव का लछ्छोबाई के करीब जाना आम बात थी। लछ्छोबाई भी महाराज रघुनाथराव से बेइंतहा मोहब्बत करती थी। लेकिन उनके प्यार को तथा मुस्लिम लछ्छोबाई को झांसी राजपरिवार ने कभी स्विकार नही किया। लछ्छोबाई को हमेशा लोगों के ताने सुनने पडते थे। फिर भी उसका और रघुनाथराव का प्यार सच्चा था।
रामचंद्रराव के मृत्यु के पश्चात कुछ समय उनकी पत्नी महारानी सखुबाई ने दत्तक पुत्र के नाम से शासन संभाला। परंतू अंग्रेज़ों ने झांसी का शासन रघुनाथराव को सौंप दिया। और रघुनाथराव को "महाराजाधिराज फिदवी बादशाह इंग्लिशस्तान" का खिताब दिया। महाराज बनते ही उन्होंने लछ्छोबाई को महारानी का दर्जा देकर सम्मानपूर्वक राजमहल लाने की चेष्ठा की। परंतू नेवालकर परिवार द्वारा लछ्छोबाई का तिरस्कार ही होता रहा। इसलिए रघुनाथराव ने लछ्छोबाई के लिए हाथीखाने में एक महल बनवाया। जिसे आज रघुनाथराव महल के नाम से जाना जाता है।
महल में आते ही रघुनाथराव ने लछ्छोबाई का नाम आफताब बानो बेगम रखा था। लेकिन झांसी में वह लछ्छोबाई के नाम से ही विख्यात हुई।
यह महल वर्तमान में स्थित वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का "रानी महल" से भी बेहत खुबसुरत था। अनेक रंगीन नकाक्षीयों से सुसज्जित इस महल में लछ्छोबाई के लिए अनेक दासियां रखी थी। इस महल के प्रवेश द्वार पर महारानी लछ्छोबाई दरवाजे पर ईद के शुभ अवसर पर चाँद का दिदार करती थी। इसलिए इस दरवाजे का नाम चाँद दरवाजा रखा गया।
इसी महल में महारानी लछ्छोबाई ने अली बहादुर, नुसरत और मेहरूनिस्सा बानो को जनम दिया था।
महाराज रघुनाथराव राव के मृत्यु पश्चात झांसी के वारीस के तौर पर महारानी सखुबाई, चंद्रकृष्णराव (सखुबाई के दत्तकपुत्र तथा नाती), महारानी जानकीबाई और अली बहादुर यह दावेदार थे। अंग्रेजों ने झांसी की गद्दी रघुनाथराव के छोटे भाई गंगाधरराव को सौंप दी। इसलिए यह सब गंगाधरराव और उनकी रानी के शत्रु समान हुए थे। महाराज गंगाधरराव के समय में लछ्छोबाई और उनके पुत्र को राजमहल में सम्मानपूर्वक रहने मिला था। महाराज गंगाधरराव और महारानी लक्ष्मीबाई भी इन सबसे स्नेह किया करते थे।
महारानी लछ्छोबाई ने हमेशा रघुनाथराव के वारिस के रूप में झांसी का राजा अली बहादुर को ही माना था। तथा उसने राजा बनाने की कोशिश भी की थी। लेकिन अंग्रेज तथा राजपरिवार ने नाजायज़ संतान कहकर उसे झांसी वारीस मानने से इंकार कर दिया था। इसलिए लछ्छोबाई बहुत दुखी हुई थी। वह हमेशा अली बहादुर को झांसी राजपरिवार से वफादार रहने की सलाह दिया करती थी। लेकिन अरी बहादुर ने गंगाधरराव के पश्चात रानी लक्ष्मीबाई के विरूध्द जंग छेड कर अपनी माँ की सलाह को मिट्टी में मिलाया था।
रघुनाथराव की याद में और अपने पुत्र की भविष्य की चिंता में लंबी बिमारी के चलते १८५१ में महारानी लछ्छोबाई का निधन हुआ। उनकी कब्र रघुनाथराव महल के नजदीक ही है।
आज भी झांसी की जनता महाराज रघुनाथराव और आफताब बानो बेगम उर्फ रानी लछ्छोबाई की प्रेम कहानी गाया करते है।