रानी लँड़ई सरकार ओरछा की रानी थी। वह धर्मपाल की पत्नी थी जिसके मृत्यु के पश्चात उसने शासन सम्भाला। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ उसके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे।

ओरछा की रानी

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एक समय में सारा बुंदेलखंड ओरछा राज्य के अंतर्गत था। यहा के प्रमुख शासक थे राजपूत बुंदेला राजा। सन् १७३० में महाराजा छत्रसाल बुंदेला ने अपने बुंदेलखंड राज्य का तिसरा हिस्सा बाजीराव पेशवा प्रथम को दिया था। उस में ही झांसी राज्य भी था। उससे पुर्व झांसी ओरछा के राजाओं की नगरी थी। मराठों के आधिपत्य के बाद ओरछा राज्य की सीमाऐं अत्यंत संकुचित हो गयी। मराठों की बढती शक्ती की वजह से दतिया और ओरछा झांसी के विरूध्द थे। उस समय मराठों के सुभेदार नारोशंकर ने झांसी से बुंदेला सेनापती को भगाया और झांसी स्वतंत्र करके ओरछा से लाखों रूपये खंडणी के रूप में वसुल किया था। जिसका परिणाम ओरछा और दतिया के शासक झांसी के राजाओं के प्रति द्वेष रखते थे। मराठा साम्राज्य में समय झांसी मध्य भारत का सर्वाधिक समृध्दशाली नगर था एैसा स्वयं ब्रिटिश अधिकारी ह्यूरोज ने अपनी किताब में लिखता है।

२६ दिसंबर १८१२ को अंग्रेज और ओरछा नरेश महाराज विक्रमजीत सिंह जू देव बुंदेला ने संधी जिस वजह से ओरछा मराठाओं के हाथ नहीं आया। महाराज विक्रमजीत के मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र धर्मपाल बुंदेला राजा बने। धर्मपाल की मृत्यु नि:संतान अवस्था में हुई। तब विक्रमजीत के भाई तेजस्वी और उसके पुत्र सुजनसिंह एक के बाद एक राजा बने।

मृत धर्मपाल की पत्नी महारानी लड़ई दुलैया सरकार जू देव बुंदेला अत्यंत महत्वाकांक्षी थी। उसने सुजनसिंह के साथ राज्य का बंटवारा किया। और हमीरसिंह नामक एक पुत्र गोद लिया। महारानी लड़ई दुलैया सरकार के तीक्ष्ण बुध्दी के सामने सुजनसिंह पराभूत होकर १८५१-५३ में झांसी नरेश महाराज गंगाधर राव की शरण में गया। सन् १८५४ में ब्रिटिश सरकार महारानी लड़ई दुलैया सरकार के दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी के रुप में मंजूरी दे दी थी। इस बीच अंग्रेजों द्वारा यह तय किया गया की पुरानी सहायता के एवं कर्जा चुकाने के लिए ओरछा की टिहरी जागीर का वार्षिक लगान ६००० रूपये झांसी राज्य को दे दिया जाये। ओरछा की रानी प्रति वर्ष अपने दत्तक पुत्र के नाम पर यह लगान भरा करती थी। जिस कारण झांसी के प्रति ओरछा का द्वेष और तीव्र हुआ।

सन् १८५३ में झांसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर जी का निधन हुआ। तब झांसी की सीमा असुरक्षित थी। इसका फायदा उठाकर पुराने द्वेष और अपमान का बदला लेने के लिए १८५७ में ओरछा की रानी लड़ई दुलैया सरकार ने अपनी कमर कसकर तैयार हुई।

रानी लड़ई दुलैया सरकार जू देव ओरछा की २०.००० सेना और युध्द की सामग्री लेकर झांसी के विभिन्न भागों पर विजय प्राप्त करते हुए झांसी नगर पहुंचा। १० अगस्त १८५७ को मऊरानीपुर परगना जित लिया। महारानी लक्ष्मीबाई ने पडौसी राज्यों की करतूत अंग्रेजों को बतायी थी। उन्होंने विलियम बैक्टींग द्वारा राजा रामचंद्र राव के प्रदत्त झांसी किले पर ब्रिटिश युनियन जॅक ध्वज लगवा दिया।

महारानी लड़ई दुलैया सरकार और सेनापती नत्थे खान उस समय बेतवा नदी किनारे शिविर में थे। महारानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश अधिकारी एरस्काईन को सहायता करने हेतू पत्र लिखा। यह पत्र २ अक्तूबर १८५७ को लिखा गया था। यह पत्र एरस्काईन को मिल गया था इसका प्रमाण राजकिय अभिलेखागार में मौजूद हैं। किंतू अंग्रेजों ने महारानी लक्ष्मीबाई की कोई सहायता नहीं की। एरस्काईन ने ही रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का शासन सौंप दिया था। और उसने ही इस मामले में दखल नहीं दी थी। रानी लक्ष्मीबाई को झोकनबाग हत्याकांड का आरोपित घोषित करते हुए उसने अपने उच्च अधिकारियों को रिपोर्ट देते हुए कहां की झांसी की रानी एक विद्रोही हैं और ओरछा का कार्य पुरी तरह से समर्थन के योग्य हैं। ओरछा रानी अंग्रेज़ों की मित्र है।

महारानी लक्ष्मीबाई स्वयं युध्द के लिए तैयार हुई। इस बीच रानी लड़ई सरकार के नेतृत्व में नत्थे खान ने महारानी लक्ष्मीबाई को पत्र भेजकर कहां की वे किला और नगर छोडकर चले जाऐ। महारानी लक्ष्मीबाई ने दरबार बुलाया और युध्द की तैयारी शुरू की। महारानी ने नत्थे खान को जवाब में युध्द की घोषणा की।

उस समय झांसी की सेना अधिक नहीं थी। झांसी सेना में रघुनाथ सिंह, जवाहर सिंह, राव दुल्हाजू, गौस खान, लालाभाऊ बख्शी, खुदा बख्श, नारी सेना और विशेष रूप से मानवती देवी प्रमुख थी। पेशवा जमाने की तोपों को तैयार किया गया। भवानी शंकर, कडक बिजली, नालदार, शत्रु संहार, घन गर्जन तोप तयार हुई। अक्तूबर में ओरछा की रानी अपनी सेना लेकर आयी। भयंकर युध्द हुआ झांसी के आसपास के इलाकों पर रानी लड़ई सरकार का कब्जा हुआ। वे झांसी नगर और किले की तरफ बडी। महारानी लक्ष्मीबाई स्वयं युध्द में कुद पड़ी थी। महारानी लक्ष्मीबाई के रणकौशल के आगे रानी लड़ई सरकार तथा सेनापती नत्थे खान को भागना पड़ा। २३ अक्तूबर १८५७ को महारानी लक्ष्मीबाई इस युध्द में विजयी हुई। मऊरानीपुर पर रानी लक्ष्मीबाई का कब्जा हुआ।

१८५७ के नवम्बर में फिर से रानी लड़ई सरकार के नेतृत्व में सेनापती नत्थे खान की सेना आ पहुंची। ओरछा गेट से रानी लक्ष्मीबाई की तोपों का एैसा हमला हुआ की, नत्थे खान की सेना भागने लगी। तब झांसी की वीरांगना मानवती देवी हैहयवंशी ने अपना वीरता और साहस का ऐसा प्रदर्शन किया की नत्थे खान खान की सेना झांसी सीमा से बाहर गयी।

३० नवम्बर १८५७ को कालिंजर के जहागिरदार चौबे और बानपूर नरेश राजा मर्दन सिंह जू देव की मध्यस्थी के कारण रानी लक्ष्मीबाई और ओरछा की रानी लड़ई दुलैया सरकार के बीच संधि हुई। वे दोनों बहन की तरह एक दुसरे से स्नेह करने लगी।

१८५७ के अगस्त तथा अक्तुबर में ओरछा की रानी लड़ई सरकार ने हमला किया था। और फिर नवम्बर में लड़ई सरकार के नेतृत्व में सेनापती नत्थे खान की सेना ने हमला किया। तब रानी लक्ष्मीबाई का अधिकार सिर्फ झांसी नगर तक सिमित था।

दिसंबर में संधि के उपरांत महारानी लक्ष्मीबाई का संपुर्ण झांसी प्रदेश पर अधिकार हुआ। ओरछा रानी द्वारा कब्जा किये गये इलाके रानी लक्ष्मीबाई को वापस मिल गये थे। ओरछा युध्द की वजह से झांसी का इतना नुकसान हुआ था की मार्च १८५८ के युध्द में झांसी पराभूत हुई। और रानी किला छोडकर कालपी गयी।

कहां जाता है की स्वतंत्रता युध्द में रानी लक्ष्मीबाई की ओरछा की महारानी लडई दुल्लैया सरकार ने गुप्त रूप से भी भी सहायता की थी । रानी लडई सरकार इतिहास में नाम बहुत कम ही लिखा गया है। इस कारण उनकी जन्म, मृत्यू और स्वतंत्रता युध्द का कोई प्रमाण नही मिलता।

लेकिन महारानी लडई दुल्लैया सरकार समुचे बुंदेलखंड तथा ओरछा इतिहास का गौरवपूर्ण हिस्सा है।