राबर्ट ओवेन

समाज-सुधारक एवं उद्यमी (1771-1858)

रॉबर्ट ओवेन (Robert Owen) (मई 14, 1771 - नवंबर 17, 1858) एक समाज-सुधारक एवं उद्यमी थे। उनकी गणना समाजवाद एवं सहकारिता आन्दोलन के संस्थापकों में की जाती है।

रॉबर्ट ओवेन
जन्म 14 मई 1771
मौत 17 नवम्बर 1858(1858-11-17) (उम्र 87 वर्ष)
पेशा सहयोगी; समाज सुधारक, कपड़ा मिल सह-मालिक; परोपकारी पूंजीवादी

सहकारिता के जनक राबर्ट ओवेन (Robert Owen) (मई 14, 1771 - नवंबर 17, 1858) के बारे में कुछ कहने से पूर्व हमें स्मरण करना होगा कि वह सहकारिता के सिद्धांत का मौलिक विचारक नहीं था। उससे पहले भी आर्थिक संसाधनों के विकेंद्रीकरण के पक्ष में अनेक अर्थशास्त्री अपना पक्ष रख चुके थे। यहां तक कि सहकारिता के पर्याय साहचर्य का शब्द का उदय भी हो चुका था। किंतु इससे राबर्ट ओवेन का योगदान कम नहीं हो जाता. उसकी महत्ता इस बात में है कि उसने सहकार को व्यावहारिकता के धरातल पर साकार करने की कोशिश अपनी पूरी ईमानदारी और सामथ्र्य के साथ की। अपने विचारों के लिए सदैव समर्पित भाव से काम करता रहा। हालांकि उसे अंततः असफलता ही हासिल हुई; मगर तब तक दुनिया सहकार के सामथ्र्य से पूरी तरह परिचित हो चुकी थी।

प्रारंभिक जीवन

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ओवन का जन्म 14, मई 1771 को सेंट्रलवैल्स के एक साधारण-से कस्बे न्यूटाउन में हुआ था। सात भाई-बहनों में से एक ओवेन के पिता साधारण व्यापारी थे। लोहे के औजारों की बिक्री की दुकान थी उनकी. जबकि मां का संबंध एक संपन्न किसान परिवार से था। ओवेन का बचपन घने अभावों के बीच बीता. उसकी शिक्षा की शुरुआत तो ठीक-ठाक हुई मगर वह पूरी हो उससे पहले, मात्रा नौ वर्ष की अवस्था में ही उसे स्कूल छोड़कर नौकरी करनी पड़ी. काम की तलाश में वह अपने सबसे बड़े भाई विलियम के साथ लंदन चला गया। उसको पहली नौकरी लंकाशायर में दर्जी के रूप में मिली। कुछ वर्षों तक ओवेन वहां पर काम सीखता रहा। उससे आगे के नौ वर्ष ओवेन ने नौकरी करते हुए बिताए. धीरे-धीरे उसने कुछ रकम और कुछ सपने भी जमा किए। इस बीच महत्त्वाकांक्षाएं जो परिस्थितिवश कुछ समय के लिए दब गई थीं, वे फिर से सिर उठाने लगीं। भाप के इंजन का आविष्कार उससे कुछ ही वर्षों पहले हुआ था, भापशक्ति से चलने वाले करघों के कारण कपड़ा उद्योग में क्रांति आई हुई थी। इसी कारण मैनचेस्टर के कपड़ा उद्योग का उन दिनों बड़ा नाम था। 1790 के आखिरी महीनों में ओवेन ने अपने बड़े भाई विलियम से सौ पौंड की रकम उधार ली। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का खूबसूरत सपना मन में सजाए एक दिन वह मैनचेस्टर पहुंच गया।

अपनी मामूली-सी पूंजी से उसने जोन के साथ मिलकर एक धागे की जूतियां बुुनने के छोटे-से कारखाने की शुरुआत की। जोन उससे पहले मैकेनिक का काम करता था। काम को देखते हुए सौ पौंड की पूंजी बहुत कम थी। बड़ी कंपनियों के साथ कठिन स्पर्धा में ओवेन की मिल टिक नहीं पाई। इस बीच जोन के साथ साझेदारी निभाने में भी समस्याएं आने लगी थीं। इसलिए मात्रा तीन महीने के अंतराल में जोन के साथ अपने साझेदारी तोड़कर ओवेन ने अपने अलग कारखाने की नींव रखी। ओवेन उसे चालू रखने के लिए संघर्ष कर ही रहा था कि मैनचेस्टर के एक बड़े कारखाने में प्रबंधक का पद रिक्त होने की सूचना उसे मिली। उसने अपनी मिल का लालच छोड़ दिया और उस नौकरी पर जा लगा। उस समय उसकी उम्र केवल इकीस वर्ष थी। वह एक प्रकार से सतत संघर्ष एवं सफलता की शुरुआत थी। मेहनती और लगनशील तो वह था ही। छह महीने के अल्प समय में ही वह मिल मालिक के दिलो-दिमाग पर अपनी कार्यशैली का सिक्का जमाने में सफल हो गया।

उस कारखाने में उस समय पांच सौ मजदूर काम करते थे। ओवेन के लिए यह बड़ी उपलब्धि थी, किंतु उसकी सफलताओं का सही मायने में तो यह प्रारंभ ही था। रात-दिन के कठिन परिश्रम, प्रतिभा और लगन से ओवेन ने उस कारखाने को कुछ ही वर्षों में ब्रिटेन के सर्वश्रेष्ठ कारखानों में ला दिया। ओवेन उद्यमशीलता का अनुमान मात्रा एक उदाहरण से लगाया जा सकता है कि उसने अपने कारखाने के लिए अमेरिकी द्वीपों से रूई का आयात किया। वह दक्षिणी राज्यों से पहला रूई का पहला आयात था। यही नहीं ओवेन ने रूई कताई के कार्य में भी उल्लेखनीय दक्षता प्राप्त की। निर्विवाद रूप से उसका कारखाना तत्कालीन ब्रिटेन के सर्वश्रेष्ठ कताई कारखानों में से एक था; जिसकी सफलता का श्रेय यदि किसी को दिया जा सकता है तो वह केवल ओवेन ही था। इकीस वर्ष का तरुण ओवेन 1795 में मेनचेस्टर के एक ओर बड़ी कपड़ा मिल काल्र्टन ट्विस्ट कंपनी का प्रबंधक और हिस्सेदार बन चुका था; जिससे उसका नाम वहां के सर्वाधिक सफल उद्यमियों में गिना जाने लगा।

उन्हीं दिनों ओवेन को अपनी फैक्ट्री के कार्य से न्यू लेनाॅर्क जाना पड़ा, जो अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वस्त्र उद्योग के लिए बहुत ही उपयुक्त स्थान था। तब तक वह एक सुदर्शन युवक बन चुका था। वस्तुतः ओवेन को खबर मिली थी कि न्यू लेनाॅर्क के प्रसिद्ध कपड़ा व्यवसायी डेविड डेल अपनी कपड़ा मिलों का सौदा करना चाहते हैं। डेविड डेल की ख्याति दूरदर्शी एवं कामयाब उद्यमियों में होती थी। ओवेन की ख्याति उन तक पहुंच चुकी थी। उसकी बेजोड़ प्रतिभा और लगनशीलता से डेल चमत्कृत थे। न्यू लेनाॅर्क पहुंचते ही ओवेन के जीवन में एक और सुखद मोड़ आया। डेविड डेल की एक बेटी थीµकाॅरोलिना डेल. युवा ओवेन उसके प्यार में पड़ गया। काॅरोलिना भी उसके आकर्षण से बच न सकी। डेविड डेल ने ओवेन के हाथों न केवल कपड़ा मिलों के एक हिस्से का सौदा किया, बल्कि अपनी कन्या का विवाह भी उसके साथ कर दिया। यह सितंबर, 1799 की घटना थी, जिसने ओवेन को एक साथ कई उपलब्धियों से लाद दिया। विवाह के पश्चात ओवेन वहीं अपना घर बनाकर रहने लगा।

एक दूरदृष्टा उद्यमी

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न्यू लेनार्क की वह फैक्ट्री डेल और रिचर्ड आर्कराइड ने 1784 में प्रारंभ की थी। फैक्ट्री उस समय न्यू लेनाॅर्क की सबसे बड़ी कपड़ा मिलों में से एक थी; जिसे चलाने के लिए जल-शक्ति का उपयोग किया जाता था। दो हजार से अधिक कर्मचारी उसमें कार्य करते थे; जिनमें से लगभग पांच सौ गरीब परिवारों के बच्चे थे। बच्चों में भी अधिकांश की आयु पांच से छह वर्ष के बीच थी। यही स्थिति उन दिनों अधिकांश कपड़ा मिलों में थी। डेविड डेल यद्यपि बालश्रमिकों का पूरा ध्यान रखते थे, लेकिन कोई कारगर व्यवस्था न होने के कारण मजदूरों, विशेषकर बालश्रमिकों की दशा शोचनीय बनी हुई थी। अधिकांश कामगार बेहद गरीब, अशिक्षित परिवारों से संबद्ध थे। अशिक्षा, कुंठा और हताशा के कारण चोरी, जुआ, शराब और नशाखोरी जैसी अनेक कुरीतियां उनके जीवन में प्रवेश कर चुकी थीं। घर के नाम पर उन सभी के पास एक-एक कमरा होता था, छोटा-सा और गंदा भी, जिसमें स्वच्छ हवा का प्रवेश भी असंभव था। बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था तो दूर बीमारों के इलाज के लिए भी कोई इंतजाम नहीं था।

उस समय तक ओवेन खूब संपन्नता एवं समृद्धि बटोर चुका था। विवाह के पश्चात उसके आत्मविश्वास में वृद्धि भी खूब हुई। परंतु ओवेन की महत्त्वाकांक्षाओं का अंत अभी दूर था। उसके भविष्य की रूपरेखा इसी आत्मविश्वास के आधार पर तय होनी थी, क्योंकि यह उसका आत्मविश्वास ही था जिसने उसे कठोर फैसले लेने की प्रेरणा दी, जिससे वह आजीवन अपने विचारों एवं उद्देश्यों के लिए संघर्षरत रह सका। अपने क्रांतिकारी फैसलों के लिए ओवेन ने अपने सरकार और उद्योगपतियों की आलोचनाएं सहीं. उसके हिस्सेदार उसे छोड़कर चले गए। करोड़ो रुपये की संपत्ति जो उसने कठिन परिश्रम से अर्जित की थी, धीरे-धीरे उसकी कल्याणकारी योजनाओं की भंेट चढ़ गई। लेकिन इतिहास में अलग चलने, नया कार्य करने, आने वाली पीढ़ियों के लिए नए प्रतिमान गढ़ने वाले महापुरुषों के लिए यह कोई नया नहीं है। इतिहास का दरबार ऐसी ही चुनौतियों को पार करने वाले महापुरुषों को सहेजने में गर्वानुभूति करता है।

ओवेन कोरा व्यवसायी नहीं था। उसके पास खूबसूरत और संवेदनशील मानस भी था, जो दूसरों को कष्ट में देखते ही विचलित हो उठता था। वह स्वयं गरीब परिवार से आया था। इस कारण गरीबी की विवशताओं और कष्टों से वह भली-भांति परिचित था। उन दिनों न्यू लेनाॅर्क में जहां बड़े-बड़े कारखानों की भरमार थी, वहीं उसके आसपास गरीब मजदूरों की छोटी-छोटी अनेक बस्तियां भी बसी हुई थीं। वहां का जीवन नारकीय था। ओवेन को लग रहा था कि उत्पादकता में अपेक्षित वृद्धि कारीगरों और मजदूरों के रहन-सहन तथा उनकी परिस्थितियों में सुधार किए बिना संभव नहीं है। इसलिए उसने अपने जीवन के अगले दस वर्ष मजदूरों की हालत सुधारने के नाम कर दिए। उसने मजदूरों की आवास-बस्तियों का उद्धार किया। उन बस्तियों में स्वयं जा-जाकर मजदूरों की गंदी आदतों को छुड़ाने का प्रयास किया। बालश्रमिकों के कार्य-घंटे कम कर, उनकी शिक्षा एवं मनोरंजन का प्रबंध किया। महिला मजदूरों के लिए अलग विश्रामघर और प्रसूति-केंद्रों की व्यवस्था की। इन प्रयासों से एक ओर तो मजदूरों के जीवन में सुधार आया, अभी तक जो मजदूर औद्योगिकीकरण को संदेह की दृष्टि से देखते थे, उनके विचारों में परिवर्तन भी हुआ। नई व्यवस्था के प्रति उनका आक्रोश कम होने लगा।

परिणामतः उत्पादन बढ़ा, उसका लाभ भी ओवेन को मिला। ध्यातव्य है कि ओवेन द्वारा अपने कर्मचारियों के कल्याण के लिए जितने भी कदम उठाए गए उनके पीछे उसकी विशुद्ध व्यावसायिक दृष्टि थी। एक दक्ष उद्यमी की भांति वह स्थितियों का अपने पक्ष में मोड़ लेने में पारंगत था। कार्ल माक्र्स के सहयोगी और माक्र्सवादी विचारक फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने अपने चर्चित लेख—Socialism: Utopian and Scientific में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि—

"विकास एवं श्रमिक-कल्याण के नाम पर ओवेन द्वारा अभी तक जितने भी कदम उठाए गए थे, वे सभी मानवीय गरिमा से परे, केवल दिखावटी थे। ‘लोग मेरी दया पर निर्भर, मेरे दास के समान हैं।"

ओवेन का यही सोचना था। तुलनात्मक रूप में उसने अपने कर्मचारियों को बेहतर वातावरण उपलब्ध कराने के प्रयास तो किए, मगर वे उनके व्यक्तित्व एवं बुद्धि के चहुमुंखी विकास से काफी दूर थे। उन्हें अपने विवेक का इस्तेमाल करने की छूट बहुत कम, विशिष्ट संदर्भों तक सीमित थी।

ओवेन पर सुधारवादियों का प्रभाव पड़ा था। वह मेनचेस्टर की Literary and Philosophical Society का सम्मानित सदस्य था। स्काटिश नवजागरण आंदोलन से प्रभावित ओवेन का मानना था कि मनुष्य का व्यक्तित्व उसके वातावरण से प्रभावित एवं विनिर्मित होता है। इसलिए वातावरण में सुधार द्वारा व्यक्तित्व का परिष्कार किया जा सकता है।

‘शिक्षा नैतिक जगत से संपर्क कराने वाला इंजन है।’ शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करती किसी इतिहासकार की इस उक्ति का वह समर्थक था। व्यक्तित्व निर्माण के लिए शिक्षा की अनिवार्यता दर्शाते हुए उसने कहा था कि—

‘मनुष्य का व्यक्तित्व उसके वातावरण से प्रभावित होता है। अतः विवेकवान एवं मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत व्यक्तित्व के निर्माण के लिए शिक्षा का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिए शिक्षक का पहला कर्तव्य है कि बालक के मानसिक एवं शारीरिक विकास के लिए पूर्णतः अनुकूल वातावरण की सरंचना करे.’

उन दिनों अधिकांश कारखाना मालिकों द्वारा अपने मजदूरों को नकद मजदूरी देने के बजाए वस्तुविनिमय प्रणाली के आधार पर भुगतान किया जाता था। तदनुसार मजदूरों को टोकन दे दिए जाते थे; जिनकी कारखाना मालिकों के समूह से बाहर कोई कीमत न थी। उन टोकन के बदले मजदूर तयशुदा दुकानों से आवश्यक वस्तुएं खरीद सकते थे। मजदूरों की विवशता का लाभ उठाने के लिए उन दुकानों पर भी उनका खुला शोषण होता था। वहां मिलने वाला सामान घटिया और बाजार की अपेक्षा महंगा होता था। उस कुरीति के विरुद्ध आवाज उठने लगी तो, ब्रिटिश संसद ने गैरकानूनी करार देते हुए उसपर रोक लगा दी थी।

मजदूरों की समस्या को देखते हुए ओवेन ने एक उपभोक्ता केंद्र की शुरुआत की जहां अच्छी गुणवत्ता का सामान लागत-मूल्य से कुछ ही ऊपर का भुगतान करने पर प्राप्त हो सकता था। उसने मजदूरों के चारित्रिक विकास के लिए भी आवश्यक कदम उठाए। यह जानते हुए कि मजदूर अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा शराब तथा नशे की अन्य वस्तुओं पर लुटा देते हैं, ओवेन ने उनकी बिक्री को कड़े नियंत्रण में रख दिया। यही नहीं ओवेन ने अपने कामगारों को उपभोक्ता भंडारों से थोक खरीद के लिए भी प्रोत्साहित किया; जिससे वे अधिक बचत कर सकें. बचत पर जोर देते हुए उसने मजदूरों को कठिन समय के लिए अपनी आय का एक हिस्सा अनिवार्य रूप से बचाने के लिए कहा. बालश्रमिकों के लिए उसने बेहतर परिस्थितियों का सृजन किया। उनके कार्यघंटे सुनिश्चित किए तथा अनिवार्य शिक्षा के लिए पाठशालाएं खुलवाईं. ओवेन के उपभोक्ता भंडार को पर्याप्त सफलता मिली। उसी ने आगे चलकर सहकारी क्षेत्र के उपभोक्ता आंदोलन को प्रेरित किया। हालांकि सहकारिता पर आधारित उपभोक्ता केंद्रों की सफल शुरुआत उसके लगभग चार दशक पश्चात हो सकी, जब रोशडेल पायनियर्स ने लंदन के टोडलेन इलाके में पहला उपभोक्ता केंद्र स्थापित किया।

उन दिनों मिल मजदूरों को प्रतिदिन कम से कम ग्यारह घंटे लगातार कार्य करना पड़ता था। ओवेन ने उसमे एक घंटा प्रतिदिन की कटौती कर दी। तत्कालीन परिस्थितियों में यह कदम साहसपूर्ण होने के साथ-साथ चामत्कारिक भी था। उसके इस कदम का दूसरे उद्योगपतियों ने जमकर विरोध किया। पूंजीपतियों द्वारा पोषित समाचारपत्र-पत्रिकाओं में ओवेन के इस कदम की आलोचना करने वाले लेख छापे गए। इससे घबराए बिना ओवेन ने दस वर्ष से छोटे बच्चों के अपनी मिल में काम करने पर पाबंदी लगा दी। मिल-मजदूरों के लिए कल्याण सुविधाओं का विस्तार करते हुए उसने उन्हें कारखाने में ही आवास सुविधाएं प्रदान कीं। साथ ही अस्पताल, विश्रामालय और मनोरंजनगृहों की स्थापना की।

उन दिनों काम के दौरान हुई गलतियों का खामियाजा मजदूरों को ही भुगतना पड़ता था, जिससे उनके वेतन का बड़ा हिस्सा नुकसान की भरपाई में ही निकल जाता था। ओवेन ने ऐसे जुर्माने की परंपरा को समाप्त कर दिया, जिसका दूसरे उद्योगपतियों ने काफी विरोध किया। मगर ओवेन अपने निर्णय पर अटल रहा।

ओवेन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान बच्चों की शिक्षा का प्रबंध करना था। उसने शिशु पाठशालाओं की स्थापना की और सहकार का जन्मदाता होने के साथ-साथ वह शिशु शिक्षा कार्यक्रम का प्रर्वत्तक बना। पांच साल के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य करते हुए उसने एक क्रांति का शुभारंभ किया। यह सब ओवेन ने केवल अपनी आंतरिक प्रेरणा के आधार पर शुरू किया था; जिसका मजदूरवर्ग की ओर जोरदार स्वागत किया गया। ध्यान देने की बात है कि मजदूरों के लिए आवास-बस्तियों के निर्माण, अस्पताल, विश्रामालय, मनोरंजनगृहों तथा शिशु पाठशालाओं के निर्माण पर ओवेन का बहुत-सा धन खर्च हो रहा था। मजदूर कल्याण कार्यक्रमों पर उससे पहले इतना बड़ा निवेश किसी ने नहीं किया था। इसलिए प्रारंभ में लोगों को ओवेन का व्यवहार पागलपन जैसा लगा। विरोधी ओवेन का मजाक उड़ाते, अपने पूर्वाग्रह से भरे मस्तिष्क में उसके एक दिन दिवालिया होने के मंसूबे सजाते. किंतु समय के साथ-साथ लोगों को सब समझ में आने लगा। मजदूर कल्याण कार्यक्रमों में लाखों पाउंड खर्च कर देने के बावजूद ओवेन की फैक्ट्रियां लगातार मुनाफा उगल रही थीं, बल्कि उसके लाभ में निरंतर वृद्धि हो रही थी। साथ ही उसकी लोकप्रियता और प्रसिद्धि में भी निरंतर इजाफा हो रहा था।

ओवेन की कुछ योजनाएं बेहद खर्चीली सिद्ध हुईं थीं। जिससे उसके हिस्सेदारों ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया। साझीदार कारखाने को सामान्य तरीके से चलाना चाहते थे। उनसे तंग आकर ओवेन ने एक नई कंपनी की शुरुआत की, जिसमें उसने व्यवस्था की थी कि मुनाफे का बीसवां हिस्सा तयशुदा लोकहितैषी कार्यक्रमों पर खर्च किया जाएगा. जेरेमी बैंथम, विलियम एलेन नई कंपनी में ओवेन के साझेदार बने। ऐसे विचारकों के साथ मिल जाने से ओवेन के जनहितैषी कार्यक्रमों को लोकप्र्रतिष्ठा मिलनी निश्चित ही थी। इस बीच में ओवेन वैचारिक रूप में भी परिपक्व हुआ था। बैंथम के विचारों से वह पहले ही प्रभावित था। अपने विचारों को अभिव्यक्ति देते हुए उसने एक लंबा लेख New View of Society, Or, Essays on the Principle of the Formation of the Human Character, and the Application of the Principle to Practice (1813-16) लिखा। कई किश्तों में लिखी गई उस लेखमाला में ओवेन के समाजवादी विचारों की झलक एकदम साफ थी। समाजवाद के प्रति ओवेन की आस्था आगे भी बढ़ती ही गई। बैंथम मुक्त बाजार-व्यवस्था का समर्थक था। उसका मानना था कि मजदूरों को यह अधिकार हो कि वे अपने लिए अपने पसंदीदा व्यापारी या उत्पादक को चुन सकें. उसपर किसी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष दबाव नहीं होना चाहिए।

तब तक ओवेन की ख्याति बहुत बढ़ चुकी थी। साथ में स्थानीय प्रशासन पर उसका प्रभाव भी. सुधार कार्यक्रमों का उद्योगपतियों की ओर से निरंतर होते विरोध से भी वह विचलित नहीं हुआ। उलटे उसने श्रमिक-अधिकारों के संरक्षण के लिए वैधानिक व्यवस्थाएं करने के अपने प्रयास तेज कर दिए। बालश्रमिकों के कार्य-घंटों को घटाने के लिए भी ओवेन ने भरपूर प्रयास किए। परंतु इस काम में केवल नाकामयाबी ही उसके हाथ लगी; क्योंकि तब तक यथास्थिति बनाए रखने के पक्षधर उद्योगपति और उनके समर्थक अधिकारीगण ओवेन के प्रखर विरोधी बन चुके थे। तब तक ओवेन की ख्याति ब्रिटेन की सीमाओं को लांघकर बाहर जा चुकी थी। श्रमिक कल्याण की वांछा रखने वाले देश, ओवेन के लोकहितैषी कार्यक्रमों का क्रियान्वयन अपने यहां करना चाहते थे। रूस, हालेंड, प्रशा के तत्कालीन शासकों ने ओवेन के परामर्श के अनुसार मजदूर सुधार-कार्यक्रम शुरू कर दिए थे।

ओवेन के सुधार-कार्यक्रमों को मजदूर वर्ग की ओर से भरपूर समर्थन मिला था। उसके कारखानों का मुनाफा आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा था। दूसरे उद्योगपति जो ओवेन के सुधार कार्यक्रमों को उसका आत्मघाती कदम बता रहे थे, ओवेन ने एक ही साल में साठ हजार पौंड कमाकर उनकी बोलती बंद कर दी। उसने दिखा दिया कि धनार्जन के लिए शोषण, बेईमानी अथवा गलाकाट प्रतियोगिता ही आवश्यक नहीं है। यदि दूरंदेशी से कार्य किया जाए तो सहयोग और पारस्परिक सहानुभूति से भी प्रगति के लक्ष्य की प्राप्ति संभव है।

ओवेन धर्म के नाम पर थोपी जा रही जड़ मान्यताओं से भी क्षुब्ध था। उसका यह मानना था कि जीवन में धर्म का अतिरेक पूर्ण हस्तक्षेप मनुष्य को तार्किक निर्णय लेने से रोकता है कि मजदूर वर्ग की दयनीय स्थिति का कारण वे रूढ़ियां भी हैं, जिन्हें वह धर्म के नाम पर पाले हुए हैं। इसलिए अपने लेखों में उसने धार्मिक मान्यताओं की जमकर आलोचना की थी। परिणाम यह हुआ कि पादरी और धर्मसत्ता पर असीन दूसरे प्रभावशाली लोग उसके विरुद्ध लामबंध होने लगे। अपने कल्याण कार्यक्रमों के कारण वह पूंजीपति वर्ग को पहले ही नाराज कर चुका था। इसलिए स्वार्थी उद्यमियों तथा धर्म के ठेकेदारों ने ओवेन के विरुद्ध अभियान की शुरुआत कर दी। प्रकारांतर में इससे ओवेन की प्रतिष्ठा को धक्का लगा।

ओवन सही मायने में एक महान स्वप्नदृष्टा था। एक बेहतर दुनिया का सपना उसकी आंखों में सदैव झिलमिलाता रहता था। जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही धर्म के उसकी आस्था समाप्त हो चुकी थी। उसका मानना था कि स्वर्ग जैसी स्थितियां धरती से परे संभव ही नहीं है। बड़े लोग यदि थोड़े से त्याग और दूरदर्शिता से काम लें तो इस धरती को ही स्वर्ग समान बनाया जा सकता है। उसके सोच का आधार यह था कि मनुष्य अपना व्यक्तित्व स्वयं नहीं, अपितु स्वयं के लिए बनाता है यानी उसकी उपलब्धियों एवं व्यक्तित्व के निर्माण में किसी न किसी प्रकार दूसरों का भी योगदान होता है। अतः यह मनुष्य का कर्तव्य है कि बाकी लोगों के साथ पूरा-पूरा सहयोग करे ताकि अधिकतम लोगों का भला हो सके।

स्वप्नदृष्टा होने के साथ वह संकल्पवान भी था। उसने अपनी आलोचना की परवाह किए बिना अपनी योजनाओं पर काम किया। मजदूर कल्याण के कार्यक्रमों के अतिरिक्त उसने बच्चों के लिए शिक्षा को अनिवार्य घोषित कर बाल शिक्षा संस्थानों का आदि प्रवत्र्तक होने का श्रेय लिया। समाज की बेहतरी के लिए उसने और भी अनेक प्रयोग किए; जिनमें पूंजी के साथ-साथ बहुमूल्य समय भी लगा। हालांकि विरोधियों के कारण ओवेन को यद्यपि अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी, मगर असफल रहकर भी उसने उन रास्तों का अन्वेषण किया जिस पर भविष्य की अनेक विकासगाथाएं लिखी जानी थीµऔर आगे जिनका अनुसरण पूरी दुनिया को करना था। सन् अठारह सौ पंद्रह में आर्थिक मंदी का दौर चला. ओवेन के लिए सुधार कार्यक्रमों को आगे चलाना कठिन हो गया। इसलिए उसको अपने कार्यक्रम कुछ दिनों के लिए स्थगित करने पड़े. तब तक ओवेन के व्यवस्था की खामियों से परिचित हो चुका था। उसे लग रहा था कि पूंजीवादी व्यवस्था और शोषण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पूंजीवादी व्यवस्था के परवान चढ़ने के लिए जरूरी है कि समाज मेें असंतोष और दिशाहीनता हो। भूख, बेकारी, गरीबी और निरक्षरता जो आम आदमी को बेबस बनाते हों, एक कामयाब उद्योगपति के लिए मुनाफे का महल खड़ा करने में सहायक होते हैं। जनता की अज्ञानता और दिगभ्रमता पूंजीवाद के विस्तार के लिए उत्प्रेरक बन जाती हैं। उसको अपने समय की सामाजिक-आर्थिक विषमता देखकर उसके लिए जिम्मेदार व्यवस्था से ऊब और निराशा होने लगी थीं। उसे विश्वास हो चला था कि बेहतर कल के लिए व्यवस्था में आमूल परिवर्तन अत्यावश्यक है। इसलिए कि वर्तमान व्यवस्था पूंजी के केंद्रीयकरण और तज्जनित शोषण को बढ़ावा देने वाली है। ओवन की मनःस्थिति उसी के इन शब्दों से सहज उजागर हो जाती है-

"मैं अपने लंबे जीवन में व्यापार, उत्पादन और वाणिज्य के विभिन्न वस्तुओं का अनुभव प्राप्त कर चुका हूं. मूझे पूरा विश्वास है कि इस स्वार्थपूर्ण व्यवस्था से किसी श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण संभव नहीं है।"

यह उस संघर्षशील, स्वप्नदृष्टा, कर्मठ और दूरदृष्टा उद्यमी के विचार थे जो अपनी उद्यमशीलता का लोहा देश-विदेश में मनवा चुका था। वह भी अपने अद्वितीय सुधार-कार्यक्रमों के चलते, जिसमें उसने अपने धन और संसाधनों का व्यय किया था। जाहिर है कि पूंजीवादी व्यवस्था की समस्त खामियां ओवेन के सामने आ चुकी थीं। उसको विश्वास हो चला था कि जिस प्रगतिगामी समाज का बिंब उसकी आंखों में है, वह पूंजीवादी व्यवस्था के द्वारा अथवा उसके समर्थन से संभव ही नहीं है। जो व्यवस्था स्वयं शोषण एवं असामानता के ऊपर टिकी हो, वह शोषण-मुक्त और समानता पर आधारित सामाजिकता की वाहक नहीं हो सकती. उसका विश्वास था कि मनुष्य अपने पर्यावरण से प्रभावित होता है, अतः पर्यावरण के बदलाव के साथ उसके व्यक्तित्व में बदलाव भी संभव है। हालांकि उसके विचारों में कहीं-कहीं अंतर्विरोध भी देखने को मिलते हैं। पूंजी-पे्ररित वर्चस्ववाद की आलोचना करते हुए फ्रांसिसी विद्वान फ्यूरियर ने कहा था कि-

"निर्धनता, सभ्यता के क्रम में मनुष्य की अंतहीन लालसाओं का परिणाम है।’

व्यापारिक मंदी के दौर से गुजरते हुए ओवेन द्वारा 1816 में की गई टिप्पणी उसकी पूंजीवादी मनोवृत्ति का प्रतीक है। उसने कहा था कि-

‘हमारा सर्वोत्तम ग्राहक युद्ध, अब समाप्त हो चुका है।’

ओवेन को तत्कालीन फैक्ट्री सिस्टम से घृणा थी। उसका मानना था कि इस उत्पादन व्यवस्था ने सामाजिक गैरजिम्मेदारी, विध्वंसक स्पर्धा एवं हृदयविहीन व्यक्तिवाद को जन्म दिया है। उसका विचार था कि सामाजिक तनाव का एक कारण मानवीय श्रम और मशीनों की अवांछित, अनियंत्रित स्पर्धा भी है। इसका हल यही है कि मनुष्य संगठित होकर मशीनों का सहयोग लेते हुए उत्पादन कार्य करे। इसलिए उसने अपने श्रमिकों जीवन-स्तर में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए। यही नहीं उच्च गुणवत्ता के महत्त्व को स्वीकारते हुए उसने उन कर्मचारियों को विशेष लाभ एवं प्रोत्साहन देने का काम प्रारंभ किया जो बेहतर गुणवत्ता का माल बनाने में निपुण थे। उसके कारखाने में प्रत्येक मशीन के बराबर में विभिन्न रंगों के घनाकार टुकड़े रख दिए जाते थे। घन के रंग से बन रहे माल की गुणवत्ता की कोटि निर्धारित की जाती थी। इससे कारीगर को अपने काम के स्तर का पता होता था। उसी के आधार पर प्रोत्साहन राशि का भुगतान किया जाता था। स्पष्ट है कि उस समय ओवेन के कारखानों में कार्य का स्तर और उसकी परिस्थितियां दूसरे कारखानों के अपेक्षा बेहतर, लगभग आदर्श अवस्था में थीं।

अमेरिका में सहकार बस्तियों की स्थापना

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न्यू लेनॉर्क पर ओवेन का प्रभाव घटता जा रहा था। उसके हिस्सेदार भी छोड़कर जा चुके थे। किंतु नैतिकता और सहजीवन के प्रति ओवेन का विश्वास कम नहीं हुआ था। उसकी निगाह अब यूरोप से बाहर के देशों पर लगी थी। इसी बीच ओवेन की ख्याति अमेरिका पहुंची और वहां न्यू हाॅरमानी जाने के लिए ओवेन को अमेरिका का निमंत्रण मिला। ओवेन ने न्यू लेनाॅर्क छोड़ने का फैसला कर लिया। इस फैसले के पीछे इंग्लैंडवासियों की नए प्रयोगों के प्रति उदासीनता भी थी। यूं तो सहजीवन पर आधारित बस्तियां बसाने के लिए स्काटलैंड, आयरलैंड आदि प्रांतों से भी प्रस्ताव आए थे। मगर ओवेन को वहां की परिस्थितियों में कोई अंतर नजर नहीं आया। 1824 में ओवेन अटलांटिक महासागर पार करके हॉरमनी ;ंतउवदलद्ध पहुंचा वहां उसका जोरदार स्वागत किया गया। 1825 में न्यू लेनाॅर्क के प्रयोगों को आगे बढ़ाने के लिए उसने तीस हजार पाउंड में न्यू हारमानी, इंडियाना नामक स्थान पर कई एकड़ जमीन खरीदी। जहां उसने न्यू लेनार्क के प्रयोगों को आगे बढ़ाने के ध्येय से एक नई बस्ती की स्थापना की। कुछ ही महीनों में न्यू हारमनी की ख्याति दुनिया-भर में फैल गई। वहां मिली सफलता से उत्साहित होकर ओवेन ने ओरिबिस्टन ;व्तपइपेजवदद्ध नामक स्थान पर वैसी ही एक और बस्ती की आधारशिला रखी। प्रारंभिक सफलताओं से उत्साहित होकर ओवेन ने कुछ अन्य स्थानों पर भी बस्तियां बसाईं. उनके नाम हैं क्वीन वुड ;फनममद ॅववकद्धए रैलटाइन ;तंसंजपदमद्ध आदि। वे सभी बस्तियां सहजीवन के सिद्धांत के आधार पर बसाई गई थीं। पहले की भांति इन बस्तियों के माध्यम से भी, ओवेन का सपना शोषण एवं वर्ग-मुक्त समाज की स्थापना करना था।

वह ऐसे समाज की कल्पना करता था जहां सभी पारस्परिकता पर आधारित जीवन-यापन करें। एक बस्ती में 300 से 2000 तक सदस्य हों, जिनके पास एक हजार एकड़ से लेकर 1500 एकड़ तक कृषि-योग्य जमीन हो। बस्ती के सदस्यों के आवास को छोड़कर रसोईघर, भोजनालय, सभा भवन, स्कूल, पुस्तकालय, आटा चक्की, कारखाने आदि सामूहिक हांे और इनके लिए एक समचतुर्भुज के आकार की विशाल इमारत हो। ओवेन का सोचना था कि इस प्रकार की व्यवस्था से जीवन में धन की महत्ता घटेगीµजो मनुष्य में संग्रह की आदत के पनपने का प्रमुख कारण है।

सन 1825 से 1829 तक ओवेन के सिद्धांत के आधार पर बसाई गई कुल सोलह बस्तियों में न्यू हाॅरमनी सबसे पहली और प्रसिद्ध थी। लेकिन क्षेत्रीय परिस्थितियों के कारण बस्तियों को चलाने में समस्याएं आने लगीं। दरअसल न्यू हारॅमनी जैसे छोटे से प्रांत में एक साथ अनेक वर्गों के लोग रहते थे। उन सबकी अलग समस्याएं थीं। इसलिए न्यू हाॅरमनी का प्रयोग अधिक लंबा न खिंच सका। अमेरिका में ओवेन के प्रयोगों को पहली ठेस उस समय मिली जब उसका एक अमेरिकी साझेदार अपनी पूंजी सहित ओवेन से अलग हो गया। उल्लेखनीय है कि इन सभी कार्यों में ओवेन की ढेर सारी पूंजी लगी थी; जिससे उसका व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित हुआ था। उसकी कुल पूंजी का तीन-चैथाई हिस्सा न्यू हाॅरमनी नामक बस्ती की बसाने में पहले ही खर्च हो चुका था। ओवेन का मानना था कि सहजीवन पर आधारित व्यवस्था की सफलता उसके प्रयासांे की व्यापकता में ही संभव है। किसी भी व्यक्ति की सीमाएं हैं अतः ऐसे प्रयासों की सफलता के लिए समाज के दूसरे लोगों को भी आगे आना होगा। सरकार भी तो सबसे अधिक जिम्मेदारी है ही। यही सोचते हुए उसने सरकार से भी मदद मांगी थी। मामला संसद-पटल पर भी रखा गया। मगर अव्यावहारिक मानते हुए उस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया।

ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियों की खासियत थी कि वहां का जीवन सामूहिक एवं सहयोग पर आधारित था। पूरी बस्ती एक बृहद परिवार के समान थी; जिसके सदस्यों के सुख और दुख साझे थे। महत्त्वाकांक्षाओं में बराबरी थी। यहां तक कि उनके सपनों और संकल्पों पर भी सामूहिकता का प्रभाव था। ओवेन की स्पष्ट धारणा थी कि आदर्शोंन्मुखी समाज में सामाजिक संबंधों का आधार लाभ के स्थान पर सेवा होना चाहिए। वहां के कार्य व्यापार में पारदर्शिता एवं समसहभागिता हो, तभी शोषण से मुक्ति संभव है। ओवेन उन बस्तियों को सहजीवन के आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता था। ओवेन समर्थक समाजवादियों के समूह गान में सहजीवन के आदर्शों की झलक सहज ही देखी जा सकती है। यह गीत ओवेन द्वारा स्थापित बस्तियों में बड़े ही मनोयोग से गाया जाता था- ‘भाइयो उठो! अतुलनीय प्रेम से सराबोर और परमसत्य से आभासित दिन के दर्शन करो। उठकर देखो, मनुष्यता प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सामुदायिक जीवन का आनंद और आशीर्वाद लेने के लिए उत्सुक है। अब न्याय की जीत होगी। ताकतवर के दमन का अंत होगा, सार्वत्रिक आनंद की आनंद होगा। ’1

बीस वर्ष तक लगातार वह सामूहिक जीवन की सफलता के लिए काम करता रहा। मगर धीरे-धीरे असफलता साफ नजर आने लगी, कारण कि इन बस्तियों में बसने पहुंचे लोगों में अधिकांश लोग ऐसे थे जिन्हें ओवेन के सिद्धांतों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनसे बहुत तो अपराधी मनोवृत्ति के थे और सुरक्षित ठिकाने की खोज उन्हें उन बस्तियों तक ले गई थी। नाकारा और कामचोर किस्म के लोगों को सिर छिपाने के लिए ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियां बहुत अनुकूल थीं।

दूसरी समस्या वहां पर समर्पित कार्यकर्ताओं की थी। उन बस्तियों के कुशल संचालन के लिए जिस प्रकार के स्वयं सेवकों की आवश्यकता थी, उनका वहां सरासर अभाव थे। हालांकि बस्तियों में आने वाले कुछ लोग सचमुच ही ओवेन के विचारों को समर्पित होकर वहां पहंुचे थे। मगर अधिकांश केवल शौकिया, वक्त बिताने के लिए वहां चले आते थे। न्यू हॉरमनी के कुछ सदस्य लोकतांत्रिक परंपरा से निकलकर आए थे और व्यवस्था में खुलापन लाना चाहते थे। उन्हें ओवेन का एकाधिकार स्वीकार नहीं था। ध्यातव्य है कि उन बस्तियों में ओवेन की स्थिति परिवार के मुख्यिा जैसी थी। परिणाम यह हुआ कि ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियों में समस्याएं आने लगीं। जॉन कर्ल के शब्दों में-

‘बस्ती (न्यू हॉरमनी) का गठन उसके सदस्यों के उतावलेपन के साथ हुआ था। इसके कारण एक तरह से वे अपने पतन की घोषणा कर ही चुके थे। शायद उनका आपस में मिलना ही दुर्भाग्यपूर्ण था। वास्तव में सहकारिता के आधर पर गठित वह समूह उसकी भावना से कोसों दूर था। नौ सौ से अधिक लोगों के उस समूह का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यही था कि सहजीवन की शुरुआत करने से वे एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे। उनमें जगह-जगह से, विभिन्न पेशों, परिवेश से आए तरह-तरह के लोग सम्मिलित थे, जिनमें कामकाजी परिवार, मध्यवर्गी बुद्धिजीवी तथा स्वयं को प्रगतिशील कहने वाले घुम्मकड़ किस्म के बुद्धिजीवी आदि सम्मिलित थे। सामूहिक बस्तियों का गठन भारी अनुभवहीनता का शिकार था। जिसका परिणाम उनमें लड़ाई-झगड़े और कलहबाजी के रूप में देखने को मिला. विभिन्न पृष्ठभूमियों, जातियों से संबद्ध लोगों ने आपस में लड़-झगड़कर अपने लिए दूसरांे के मन में वैमनस्य की भावना भर दी थी, जिसका निदान असंभव था। उनके आपसी मनमुटाव इतने बढ़ चुके थे कि अंत में जब सामूहिक बस्तियों का प्रयोग असफल होने की घोषणा हुई और लोग वापस लौटने लगे, तो भी उनके पारस्परिक झगड़े लंबे समय तक चलते रहे. अंततः जमीन का बंटवारा कर, न्यू हाॅरमनी के निवासी अनेक सहकार बस्तियों, परिवारों में बंट गए।’

न्यू हाॅरमनी का प्रयोग असफल होने के पश्चात ओवेन ने मैक्सिको में नए सिरे से फिर कोशिश की। वहां गरीबी अनुपात अधिक होने के कारण उसको सफलता की आस अधिक थी। लेकिन आशा के विपरीत मैक्सिको में उसका सामना परंपरावादी चर्च से हुआ, जिसका वहां की गरीब जनता पर अत्यधिक प्रभाव था। परिणाम ये हुआ कि ओवेन अमेरिका से ऊबल लगा। सन 1828 में वह वापस इंग्लैंड के लिए रवाना हो गया। लेकिन तब तक इंग्लैंड की परिस्थितियां भी बदल चुकी थीं। समाजवादी विचारधारा तेजी से अपनी पकड़ बना रही थी। विलियम थामसन जैसे बुद्धिजीवी लोकतांत्रिक समाजवाद की नई व्याख्याएं गढ़ रहे थे।

सहकारिता पर नए प्रयोगों का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था। मजदूरों के संगठन बनने लगे थे। समाजवादी विचाधारा को आधार मानकर नए-नए उभरे चार्टिस्ट आंदोलनकारी संघर्ष के रास्ते सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने का मन बना चुके थे। उन्होंने एक के बाद एक तीन बड़ी हड़तालें करके सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी कर दी थीं। जिससे उन्हें लग रहा था कि वे शीघ्र ही सत्ता पर सवार होकर बहुत आसानी से बदलाव के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे। ओवेन द्वारा बसाई गई बस्तियों का लगातार अवसान हो रहा था।

ध्यातव्य है कि ओवेन द्वारा आदर्शोन्मुखी समाज की यह संकल्पना नई या अनोखी नहीं थी। ना ही वैसा सपना देखने वाला वह अकेला बुद्धिजीवी-विचारक था। बल्कि इस तरह की आदर्शोन्मुखी समाज की संकल्पना उससे करीब साढ़े बाइस सौ वर्ष पहले प्लेटो भी कर चुका था। जाॅन काॅल्विन, थाॅमस मूर, रूसो आदि ने भी आदर्श समाज को लेकर कुछ इसी प्रकार की साधु-संकल्पनाएं की थीं। ओवेन यदि अपने पूर्ववर्ती विचारकों से हटकर और बढ़कर था तो इस कारण कि वह कोरा सिद्धांतकार नहीं था, बल्कि विचारों को मूर्त रूप देने वाला सच्चा एवं संकल्पधर्मी इंसान था। इस तरह कुछ मामलों में वह मौलिक भी था। उसने न केवल वर्गहीन और समानता पर आधारित समाज का सपना देखा, साथ ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसने अनेक सफल प्रयोग भी किए थे। यह बात अलग है कि सुधार कार्यक्रमों में उसे जो कामयाबी प्रारंभ में मिली, वह बाद में लगातार घटती चली गई। क्योंकि जिस समाज का सपना ओवेन की आंखों में बस्ता था, तत्कालीन परिस्थितियां उसके विपरीत थीं। बावजूद इसके ओवेन की सफलताओं को नजरंदाज कर पाना मुश्किल है।

ओवेन पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विरोधी था। ओवेन के प्रयोग की खिल्ली उड़ाई गई। उसे अर्धविक्षिप्त और सनकी कहकर उपहास का पात्र बनाया गया। ओवेन को हालांकि समाजवाद का समर्थक माना जाता है। यह भी माना जाता है कि समाजवादी ;ैवबपंसपेजद्ध शब्द का पहला प्रयोग उसी ने किया था। लेकिन माक्र्सवादी विचारक ओवेन के सारे अभियान को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। स्वयं फ्रैड्रिक ऐंग्लस ने ओवेन की नीयत पर संदेह करते हुए उसे एक तरह से छद्म समाजवादी स्वीकार किया है। ऐंग्लस के अनुसार-

"मजदूरों के प्रति ओवेन का प्यार ऊपरी यानी केवल दिखावा था, जो मानवीय संवेदनाओं से कोसों दूर था।"

प्रमाण के लिए एंग्लस ने एक ओवेन की एक उक्ति का उल्लेख अपने लेख में किया है, जिससे ओवेन का दंभ झलकता है।

‘लोग मेरी दया पर जीनेवाले, मेरे दास हैं।’

ओवेन ने बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक, कहा जाए कि व्यावसायिक कुशलता का परिचय देते हुए मजदूरों को कुछ सुविधाएं दी थीं। उसे बदले में जो प्राप्ति हुई, वह किए गए खर्च से कई गुना थी। इस बात को ओवेन के साहित्य से ही उदाहरण लेकर फैड्रिक ऐंग्लस समझाते हैं कि-

‘ओवेन की फैक्ट्रियों में काम करनेवाले मात्र ढाई हजार मजदूर इतना मुनाफा कमाकर दे रहे थे कि जिसे कमाने के लिए आधी शताब्दी से भी कम समय पहले, लगभग छह लाख मजदूरों-दक्ष कामगारों की आवश्यकता पड़ती थी। पूंजी के इस ठहराव पर मैंने एक दिन स्वयं से ही प्रश्न कि, विकास की विडंबना देखिए कि जो धन पहले छह लाख लोगों में बंटता था, वह अब केवल केवल ढाई हजार में बांटना पड़ता है।’

बाहरी कड़ियाँ

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