राष्ट्रपति शासन
राष्ट्रपति शासन (या केन्द्रीय शासन) भारत में शासन के सन्दर्भ में उस समय प्रयोग किया जाने वाला एक पारिभाषिक शब्द है, जब किसी राज्य सरकार को भंग या निलम्बित कर दिया जाता है और राज्य प्रत्यक्ष संघीय शासन के अधीन आ जाता है। भारत के संविधान का अनुच्छेद-356, केन्द्र की संघीय सरकार को राज्य में संवैधानिक तन्त्र की विफलता या संविधान के स्पष्ट उल्लंघन की दशा में उस राज्य का राज्यपाल सरकार को बर्खास्त कर उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार देता है। राष्ट्रपति शासन उस स्थिति में भी लागू होता है, जब राज्य विधानसभा में किसी भी दल या गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत नहीं हो।
सत्तारूढ़ दल या केन्द्रीय (संघीय) सरकार की सलाह पर, राज्यपाल अपने विवेक पर सदन को भंग कर सकते हैं, यदि सदन में किसी पार्टी या गठबन्धन के पास स्पष्ट बहुमत ना हो, तो उस अवस्था में राज्यपाल सदन को 6 महीने की अवधि के लिए ‘निलम्बित अवस्था' में रख सकते हैं। 6 महीने के बाद, यदि फिर कोई स्पष्ट बहुमत प्राप्त ना हो तो उस दशा में पुन: चुनाव आयोजित किये जाते है. अधिकतम 3 वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है..!
इसे राष्ट्रपति शासन इसलिए कहा जाता है क्योंकि, इसके द्वारा राज्य का नियन्त्रण बजाय एक निर्वाचित मुख्यमन्त्री के, सीधे भारत के राष्ट्रपति के अधीन आ जाता है, लेकिन प्रशासनिक दृष्टि से राज्य के राज्यपाल को केन्द्रीय सरकार द्वारा कार्यकारी अधिकार प्रदान किये जाते हैं। प्रशासन में मदद करने के लिए राज्यपाल आम तौर पर सलाहकारों की नियुक्ति करता है, जो आम तौर पर सेवानिवृत्त सिविल सेवक होते हैं। आमतौर पर इस स्थिति में राज्य के केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी की नीतियों का अनुसरण होता है।
जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन को राज्यपाल शासन कहा जाता था, परंतु धारा 370 हटने के बाद और जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाने के बाद इसे "‘राष्ट्रपति शासन’” ही कहा जाता है।[1]
अनुच्छेद-356
संपादित करेंअनुच्छेद 356, केन्द्र सरकार को किसी राज्य सरकार को बर्खास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने की अनुमति उस अवस्था में देता है, जब राज्य का संवैधानिक तन्त्र पूरी तरह विफल हो गया हो।
यह अनुच्छेद एक साधन है जो केन्द्र सरकार को किसी नागरिक अशान्ति जैसे कि दंगे जिनसे निपटने में राज्य सरकार विफल रही हो की दशा में किसी राज्य सरकार पर अपना अधिकार स्थापित करने में सक्षम बनाता है (ताकि वो नागरिक अशान्ति के कारणों का निवारण कर सके)। राष्ट्रपति शासन के आलोचकों का तर्क है कि अधिकतर समय, इसे राज्य में राजनैतिक विरोधियों की सरकार को बर्खास्त करने के लिए एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, इसलिए इसे कुछ लोगों के द्वारा इसे संघीय राज्य व्यवस्था के लिए एक खतरे के रूप में देखा जाता है। 1950 में भारतीय संविधान के लागू होने के बाद से केन्द्र सरकार द्वारा इसका प्रयोग 100 से भी अधिक बार किया गया है।
अनुच्छेद को पहली बार 20 जून 1951 को विमोचन समारम के दौरान लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी पंजाब की कम्युनिस्ट सरकार बर्खास्त करने के लिए किया गया था। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश की भाजपा की राज्य सरकार को भी बर्खास्त किया गया था।
उपरोक्सू सूचनाभ्रामक है।पहली बार जून १९५१ में पंजाब में राष्ट्रपति शासन अपने दलीय अंतर्कलह से निपटने के लिए लगाया था।पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई केरल की कम्यूनिस्ट ईएमएस नम्बूदरीपाद की सरकार को सन् १९५९ में इस प्रावधान का उपयोग कर बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया था।
इसका सर्वाधिक बार प्रयोग पंजाब मे लगभग 5 वर्ष 1987-1992 में हुआ
अनुच्छेद-355
संपादित करेंअनुच्छेद 355 केन्द्र सरकार अधिकृत करता है ताकि वो किसी बाहरी आक्रमण या आन्तरिक अशान्ति की दशा में राज्य की सुरक्षा सुनिश्चित कर सके और प्रत्येक राज्य का शासन संविधान के प्रावधानों के अनुसार चलता रहे।
इस अनुच्छेद का इस्तेमाल तब किया गया जब भाजपा शासित राज्यों में गिरिजाघरों पर हमले हो रहे थे। तब के संसदीय कार्य मन्त्री वायलार रवि ने अनुच्छेद 355 में संशोधन कर, राज्य के कुछ भागों या राज्य के कुछ खास क्षेत्रों को केन्द्र द्वारा नियन्त्रित करने का सुझाव दिया था।[2]
संदर्भ और बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- ↑ "जम्मू-कश्मीरः राज्यपाल शासन के दौरान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई और तेज करेगी केंद्र सरकार". लाइव हिन्दुस्तान. 20 जून 2018. मूल से 12 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 12 जुलाई 2018.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 27 अक्तूबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 अक्तूबर 2009.