हिंदी साहित्य जिन दिनों छायावादी दौर से गुजर रहा था उन्हीं दिनों छायावादी काव्य धारा के समानांतर और उतनी ही शक्तिशाली एक और काव्यधारा भी प्रवाहमान थी। माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्णशर्मा नवीन, सुभद्राकुमारी चौहान आदि इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। इन्होंने राष्ट््रिय और सांस्कृतिक संघर्ष को स्पष्ट और उग्र स्वर में व्यक्त किया है। छायावाद में राष्ट्रियता का स्वर प्रतीकात्मक रूप में तथा शक्ति और जागरण गीतों के रूप में मिलता है। इसके बजाय माखनलाल चतुर्वेदी अपने वीरव्रती शीर्षक कविता में लिखते हैं-

मधुरी वंशी रणभेरी का डंका हो अब।

नव तरुणाइ पर किसको क्या शंका हो अब।

बाल कृष्णशर्मा नवीन विप्लव गान की रचना करते हैं-

एक ओर कायरता काँपे गतानुगति विगलित हो जाय।

अंधे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाय़।

सुभद्राकुमारी चौहान ने झाँसी की रानी के रूप में पूरा वीरचरित ही लिख दिया -

जाओ रानी याद करेंगें ये कृतज्ञ भारतवासी।

तेरा ये बलिदान जगाएगा स्वतंत्रता अविनाशी।

किंतु छायावाद की सीमारेखा इस धारा की सीमारेखा नहीं है। इसने पूर्ववर्ती मैथिलिशरण गुप्त और परवर्ती दौर में भी रामधारी सिंह दिनकर के साथ अपना स्वर प्रखर बनाए रखा।