रविदास
गुरु रविदासजी मध्यकाल में एक भारतीय संत कवि सतगुरु थे। इन्हें संत शिरोमणि संत गुरु की उपाधि दी गई है। इन्होंने रविदासीया, पंथ की स्थापना की और इनके रचे गए कुछ भजन सिख लोगों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में भी शामिल हैं। इन्होंने जात पात का घोर खंडन किया और आत्मज्ञान का मार्ग दिखाया।
संत शिरोमणि सतगुरु श्री रविदास जी महाराज | |
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गुरु रविदास | |
जन्म |
रवि (जन्म नाम) c. 1388[1][2] वाराणसी, (दिल्ली सल्तनत) |
मौत |
c. 1518[1][2] वाराणसी, (दिल्ली सल्तनत) |
आवास | सीरगोवर्धन काशी |
उपनाम | रैदास |
पेशा | संत |
प्रसिद्धि का कारण | सतगुरु के रूप में सम्मानित और गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल भजन, मीराबाई के गुरु और कबीर से मिलन |
गूगल के द्वारा जो भी जानकारी लिखी गई है इसके विपरीत कुछ जगह पर संत रविदास जी की जयंती पर कुछ गलत बातें बताई जा रही है कहा जा रहा है कि संत रविदास जी की वाणी को विशेष जाति ब्राह्मण के द्वारा कह गए शब्दों को गलत तरीके से बात कर पेश किया जा रहा है जो बहुत ही सोचने वाली बात है इस नई पीढ़ी के लिए जो अज्ञानता की उसे ओर चल पड़ा हैं सच्चाई को बिना जान न जाने की कोशिश कर रहे हैं सुनी सुनाई बातों को सुनकर लड़ाई झगड़ा पर उतारू हो चले हैं आज का समाज विभिन्न सोचो से उत्पन्न होकर एक विशेष सोच बना रहा है जो ही खराब भाषा का प्रयोग कर विशेष समुदाय को भड़काकर उसे जाति के और उकसाना और सामाजिक विशेषताओं की बंधन से मुक्त कर आपस में भेदभाव कर रहा है आप लोग अच्छे से अच्छे संत रविदास जी के वाणी को सबके पास पहुंचा है जो उनका सही विचार था अन्यथा गांव में तो बहुत ही बुरा हाल है लोग यह समझ बैठे हैं कि संत रविदास केवल विशेष जाति के ही विशेष बनकर रह गए हैं ब्राह्मणों ने अभद्र व्यवहार जैसे किया हो ऐसी इनकी परिकल्पना कर कुछ और सामाजिक व्यक्तियों द्वारा बखान कर समाज को बताया जा रहा है कृपया इसे बदलने की और सही बातों को बताना जरूरी है नहीं तो आने वाले भविष्य में बहुत ही बड़ा विद्रोह खड़ा हो जाएगा धन्यवाद।
जीवन
संपादित करेंगुरू रविदास जी(रैदास) का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1377 को हुआ था उनका एक दोहा प्रचलित है। चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास। दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री गुरु रविदास जी । उनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसांं देवी था। उनकी पत्नी का नाम लोना देवी बताया जाता है।[3] रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया था। रविदास चमार जाति में जन्में और जूते बनाने का काम किया करते थे औऱ ये उनका व्यवसाय था और अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। [4][4]कई लोगों का मानना है कि संत रविदास जी का कोई गुरु नहीं था लेकिन उन्होंने स्वामी रामानंद जी महाराज से दीक्षा ली थी तथा उन्हें के द्वारा बताए हुए मार्ग पर वह साधना किया करते थे। रामानंदजी महाराज वैष्णव साधु थे वह भगवान श्री विष्णु जी की साधना किया करते थे तथा उनके 1400 ऋषि शिष्य थे वे लोगों को वैष्णो धर्म के विस्तार , प्रचार – प्रसार आदि के बारे में जानकारी दिया करते थे। उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे। प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रविदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से निकाल दिया। रविदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग इमारत बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे। सुप्रसिद्ध युवा कवि गोलेन्द्र पटेल ने अपनी कविता ‘कठौती और करघा’ में काशी के संदर्भ में कहा है कि
“रैदास की कठौती और कबीर के करघे के बीच/ तुलसी का दुख एक सेतु की तरह है/ जिस पर से गुज़रने पर/ हमें प्रसाद, प्रेमचंद व धूमिल आदि के दर्शन होते हैं!/
यह काशी/ बेगमपुरा, अमरदेसवा और रामराज्य की नाभि है।” (कवितांश : ‘कठौती और करघा’ से)
स्वभाव
संपादित करें- उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु । गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।[5]
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
- कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
- वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा ॥
- चारो वेद के करे खंडौती । जन रैदास करे दंडौती।।
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-
- कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
- तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै॥
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वतः उनके अनुयायी बन जाते थे।
उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
- वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की।
- सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की ॥
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
रैदास के ४० पद गुरु ग्रन्थ साहब में मिलते हैं जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन साहिब ने १६ वीं सदी में किया था ।
संदर्भ
संपादित करें- ↑ अ आ Arvind Sharma (2003), The Study of Hinduism, The University of South Carolina Press, ISBN 978-1570034497, page 229
- ↑ अ आ Phyllis G. Jestice (2004). Holy People of the World: A Cross-Cultural Encyclopedia. ABC-CLIO. पृ॰ 724. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-57607-355-1. मूल से 17 अप्रैल 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 जुलाई 2020.
- ↑ टाइम्स, नवभारत (2020-02-09). "Ravidas Jayanti 2020: राम नाम जपने का यह लाभ बताया है संत रविदास ने". नवभारत टाइम्स. अभिगमन तिथि 2021-01-15.
- ↑ अ आ "Guru Ravidas Jayanti [Hindi]: जीवनी, कौन थे संत रविदास जी के गुरु?". S A NEWS (अंग्रेज़ी में). 2020-02-07. अभिगमन तिथि 2021-02-03.
- ↑ "'मन चंगा तो कठौती में गंगा' कहने वाले संत रविदास के 10 दोहे". LallanTop - News with most viral and Social Sharing Indian content on the web in Hindi. अभिगमन तिथि 2021-02-08.