लाइकेन
लाइकेन (Lichen) निम्न श्रेणी की ऐसी छोटी वनस्पतियों का एक समूह है, जो विभिन्न प्रकार के आधारों पर उगे हुए पाए जाते हैं। इन आधारों में वृक्षों की पत्तियाँ एवं छाल, प्राचीन दीवारें, भूतल, चट्टान और शिलाएँ मुख्य हैं। यद्यपि ये अधिकतर धवल रंग के होते हैं, तथापि लाल, नारंगी, बैंगनी, नीले एवं भूरे तथा अन्य चित्ताकर्षक रंगों के लाइकेन भी पाए जाते हैं। इनकी वृद्धि की गति मंद होती है एंव इनके आकार और बनावट में भी पर्याप्त भिन्नता रहती है। लाइकेन एक स्वपोषी, सुकायवत, संयुक्त, सहजीवी जीव है, जिसमें एक कवक तथा एक शैवाल साथ-साथ संयुक्त रूप से रहते हैं ।
परिचय
संपादित करेंइन पौधों का वानस्पतिक शरीर एक थैलस (thallus) होता है, जो पूर्णतया जड़, पत्ती और शाखारहित हेता है। लाइकेनों के समुदाय को मुख्यत: तीन प्रकार के थैलस में विभाजित किया जा सकता है :
(1) कुछ चपटा और उठा हुआ;
(2) पत्ती की भाँति, जिसमें ऊपरी तथा भीतरी दोनों ही धरातल पर्याप्त स्पष्ट होते हैं एवं
(3) ध्वजा की भाँति, जो ऊर्ध्वाधर दिशा में व्यवस्थित होता है।
ये तीनों प्रकार के वर्ग क्रमश: पर्पटीमय (crustose), पर्णिल (foliose) और क्षुपिल (fructose) लाइकेन कहे जाते हैं।
पर्पटीमय लाइकेन चपटे और पतले होते हैं तथा वृक्ष की छाल, या शिलाओं से चिपके हुए उगते हैं। इनमें अधिकांश का तो कुछ भाग आधार के भीतर होता है और ये आधार पर भूरे रंग की धारियों तथा बिंदुओं की भाँति दिखाई देते हैं। इनकी विभिन्न जातियाँ आधार के रंग से मिलती हैं, अत: ये चट्टान के समान ही दिखाई देती है। पर्णिल लाइकेन मुड़ी हुई पत्ती की भाँति होते हैं, जिनमें आरोह अवरोह होते हैं। ये पतले पतले मूलाभासों (rhizoids) की सहायता से शिलाओं, या शाखाओं से चिपके रहते हैं। मूलाभास इनके निचले धरातल से निकलते हैं। क्षुपिल लाइकेन अत्यधिक विभाजित बेलनाकार तथा फीते की भाँति होते हैं, जो अपने अध: स्तर (substratum) से आधारिक (basal) भाग द्वारा ध्वजा की भाँति जुड़े होते हैं। सभी लाइकेन अधिपादप (epiphyte) हैं, परजीवी नहीं। ये अपने परपोषी (host) पर केवल सहारे (anchorage) के लिए ही आश्रित होते हैं।
वास्तव में लाइकेन दो पूर्णतया भिन्न वनस्पतियों से बना एक द्वैध पादप होता है। इन वनस्पतियों में से एक है शैवाल (algae) और दूसरा है कवक (fungus), किंतु इन दोनों में इतना निकटतम साहचर्य होता है कि इनसे बना लाइकेन एक ही पौधा प्रतीत होता है। इस साहचर्य में अधिकांशत: कवक ही होता है, जो शैवालवाले अंग के ऊपर एक थैले की भाँति आवरण होता है तथा थैलस के आकार के लिए उत्तरदायी होता है। दोनों वनस्पतियों की मिश्रित वृद्धि से ही लाइकेन को एक विशेष आकार और आंतर संरचना प्राप्त होती है, जिससे लाइकेन कई कुल और जातियों में विभक्त हो जाते हैं। इनके लगभग 400 वंश और 15,000 स्पीशीज़ ज्ञात हैं।
लाइकेन का मुख्य भाग कवक तंतुओं से ही निर्मित होता है, जो रेशों की एक जाली सा बना होता है। यह जाली प्राय: ऐस्कोमाइसिटीज़ (Ascomycetes) वर्ग के कवक का वानस्पतिक भाग होती है। कुछ में कवक बासिडियोमाइसिटीज़ (Basidiomycetes) वर्ग का भी होता है। लाइकेन के ऊपरी स्तर में इन कवक तंतुओं से मिश्रित हरे रंग की जो क्लोरोफाइसी (chlorophyceae), या नीले हरे रंग की वनस्पति, होती है, वह मिक्सोफ़िसी (Myxophyceae) वर्ग की होती है। यह नीले, या हरे रंग की वनस्पति एककोशिक तथा बहुकोशिक तंतुवत् (filamentous) होती है। इन वनस्पतियों में क्रोओकॉकस (Chroococus), साइटोनेमा (Scytonema) अथवा नॉस्टॉक (Nostoc) आदि होते हैं।
कवक के भाग और स्वरूप के अनुसार लाइकेन को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :
(1) ऐस्कोलाइकेनीज़ (Ascolichenes) - इसमें कवक भाग ऐस्कोमाइसिटीज़ वर्ग का एकक होता है।
(2) बासिडियोलाइकेनीज़ (Basidiolichenes) - इसमें कवक भाग बासिडियोमाइसिटीज़ वर्ग का एकक होता है।
ऐस्कोलाइकेन को उसी फलकाय की बनावट पर फिर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है: (1) पलिधकाय (pyrenocarpeae), जिसमें फलकाय पेरीथीसियम (perithecium) तथा (2) विवृतकाय, (gymnocarpeae), जिसमें फलित भाग विवृतकाय ऐपोथीसियम (apothecium) होता है।
अधिकांश पर्णिल लाइकेन की आंतरिक संरचना निम्नलिखित चार ऊतकों में विभक्त होती है :
(क) वल्कुट (cortex), जो प्राय: उदग्र कवच सूत्रों से निर्मित होती है, जिनके बीच बीच में, या तो रिक्त स्थान नहीं होते और यदि होते हैं तो वे श्लेषी सामग्री से भरे होते हैं।
(ख) शैवाल स्तर ठीक वल्कुट के नीचे होता है। इसमें शैवाल की हरी कोशिकाएँ उलझे हुए कवक सूत्रों में मिली रहती हैं। इस स्तर को कणीस्तर (Gonidial layer) भी कहते हैं।
(ग) मज्जा (medulla) शैवाल स्तर के नीचे होती है और यह शिथिल तथा उलझे हुए कवक सूत्रों से बनी होती है।
(घ) अध: वल्कुट, घने कवक सूत्रों से निर्मित होता है और यह सबसे नीचे का स्तर होता है।
अध: वल्कुट के निचले धरातल से मूलाभास निकले होते हैं। ये थैलस को आधार से जोड़ने का काम देते हैं तथा खनिज लवण और जल का संवाहन करते हैं।
पर्पटीमय लाइकेन में अध: वल्कुट नहीं होता और क्षुपिल लाइकेन के थैलस में अधिकांशत: एक वल्कुट बाहर की ओर होता है, जिसके नीचे शैवाल स्तर तथा उसके नीचे एक मध्यक अक्ष होता है। लाइकेन के भीतर निहित शैवाल अधिकांशत: बाहरी उगनेवाले शैवालों से अभिन्न होते हैं। इनकी कोशिकाओं में हरा रंग निहित होता है, जिसकी सहायता से ये भोजन निर्माण करते हैं, किंतु जब तक शैवाल लाइकेन के अंग हैं, तब तक ये प्रजननांग नहीं बनाते। कवक कोशिकाओं में भी वृद्धि की गति कम होती है। ये कवक स्वतंत्र जीवनयापन के अयोग्य हो जाते हैं।
लाइकेन विश्व भर में फैले हुए हैं। इनमें से अधिकांश तो ताप की चरम सीमाओं और दीर्घशोषावधि में भी जीवित रहने में समर्थ हैं, अत: ये ऐसे क्षेत्रों में प्रचुरता से पाए जाते हैं जहाँ साधरणतया अन्य वनस्पतियाँ नहीं उग सकतीं। ये समुद्री तल से अधिक ऊँचाई पर उष्ण प्रदेश, ध्रुव प्रदेश, रेगिस्तान एवं जल स्थानों पर पाए जाते हैं। विरले ही लाइकेन पानी के भीतर मिलते हैं, जिनमें हाइड्रोथीरिया वेनोसा (Hydrothyrea venosa) नामक शैवाल सबसे विचित्र है।
अधिक ठंडी जलवायु में लाइकेन शैलारोही बन जाते हैं, अर्थात् अपना जीवन चट्टानों, या शिलाओं पर व्यतीत करते हैं। किंतु भूमध्यरेखिक क्षेत्रों में ये वल्कारोही ही रहते हैं, अर्थात् वहाँ इनका आधार वृक्ष के तने तथा शाखाओं की छालें होती हैं। कुछ लाइकेन स्थलारोही और कुछ समुद्र में भी होते हैं। इनके बड़े वर्गों में छोटे छोटे समुदाय मिलते हैं, जिनका विभाजन छाल की प्रकृति, मिट्टी के स्वरूप, चट्टान की विशेषता तथा ताप, आर्द्रता एवं अनावरण पर निर्भर होता है।
कुछ लाइकेन उपजाऊ भूमि पर उगते हैं, जहाँ अन्य वनस्पतियाँ भी प्रचुर मात्रा में होती हैं। किंतु ये बड़े शहरों के पास कभी नहीं उग पाते, क्योंकि नगरों के आस पास के कारखानों का धुँआ तथा अन्य गैस आदि इनके लिए घातक हैं। ये वायु की स्वच्छता पर विशेष निर्भर करते हैं। केवल स्वच्छ वायु में ही लाइकेन की प्रचुर वृद्धि हो पाती है। यद्यपि लाइकेन के उगने के लिए प्रकाश आवश्यक है, तथापि कुछ जातियाँ ऐसे स्थानों में भी उग सकती हैं जहाँ पूर्णतया अंधकार होता है, जैसे फिसिआ ॲब्स्क्यूरा (Physcia obscura)। थैलस का रंग प्रकाश की किरणों की तीव्रता पर निर्भर होता है।
लाइकेन के थैलस के सूखने पर शैवाल कोशिकाओं का हरा रंग कवक सूत्रों से छिपे रहने के कारण अस्पष्ट हो जाता है। आर्द्र लाइकेन का रंग हरा होता है, क्योंकि इसके अंदर स्थित तंतुओं द्वारा प्रकाश का पारेषण होता है, जिससे शैवाल भाग का हरा रंग स्पष्ट हो जाता है। कई लाइकेनों का रंग विशेष चित्ताकर्षक होता है। ये रंग विभिन्न कार्बनिक अम्लों के कारण होते हैं, जो लाइकेनों का लांगलन (anchor) करने में सहायता तो देते हैं परंतु साथ ही खाने के लिए अरुचिकर बनाते हैं।
जब सर्वप्रथम लाइकेन की वनावट और संरचना की खोज की गई तब इन शैवाल कोशिकाओं की उपस्थिति एक पहेली थी, क्योंकि ये शेष थैलस से बहुत भिन्न थीं।
लाइकेन के कुछ विद्यार्थियों ने इन हरी वस्तुओं को लाइकेन पादप का अभिन्न भाग मानकर यह विचार प्रकट किया है कि इनकी उत्पत्ति रंग रहित कवक तंतुओं से ही हुई है। कुछ विशेषज्ञों ने इन्हें प्रजनन का अंग माना है तथा कुछ ने इन्हें भोजन बनाने के अंगों के रूप में स्वीकार किया है।
सर्वप्रथम श्वेडेनर (Schwendener, 1867-68 ई.) ने यह प्रमाण उपस्थित किया था कि यह हरी वनस्पति शैवाल है जो कवक तंतुओं द्वारा ठहराई गई है और परजीवी की गई है। इस सिद्धांत की परीक्षा उपयुक्त शैवाल तथा कवक को मिलाकर लाइकेन का संश्लेषण होने पर की गई। यदि लाइकेन के दोनों अंग अलग अलग कर दिए जाएँ तो शैवाल अंग स्वतंत्र जीवनयापन कर सकता है, किंतु अनाश्रित होने पर कवक अंग जीवित नहीं रह सकता।
जब यह पूर्णतया सिद्ध कर लिया गया कि लाइकेन का शरीर दो वनस्पतियों से बना है, जो क्रमश: शैवाल और कवक हैं, तब लाइकेन के विशेषज्ञों का ध्यान इन दोनों भागों के सबंध की ओर आकर्षित हुआ जिसके लिए विद्वानों ने अलग अलग नाम और व्योरा दिया है। कुछ लोग लाइकेन की तुलना एक संकाय (consortium) से करते हैं, जिसमें एक शैवाल एक कवक से संबंधित होता है। इस प्रकार के संबंध से दोनों को ही परस्पर लाभ पहुँचता है तथा इस प्रकार के जीवन को सहजीनन (Symbiosis) कहते हैं। इसमें प्रत्येक भाग कुछ ऐसे भौतिक कार्यों का संपादन करता है, जिनसे दूसरे को लाभ हो सके। शैवाल अंग अपने हरे रंग के पदार्थों की उपस्थिति से भोजन बनाने का संपूर्ण कार्य करता है। इस कार्य के लिए कवक पूर्णतया असमर्थ होता है और शैवाल अंग द्वारा बना भोज्य पदार्थ कवक को भी प्राप्त होता है। दूसरी ओर कवक भाग के मूलाभास, खनिज लवण और जल प्रवाहित करने के लिए उत्तरदायी होते हैं तथा कवक ही शैवाल भाग की अधिक शुष्कता, नमी, ठंड और ताप से रक्षा भी करते हैं।
कुछ वनस्पतिज्ञों के विचारों के अनुसार यह परस्पर लाभ का संबंध होते हुए भी एक के लिए हानिकारक है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह परजीविता का उदाहरण है, जिसमें शैवाल भाग कवक के द्वारा पीड़ित होता है।
जननीकरण
संपादित करेंलाइकेन का कोई भी पृथक् हुआ भाग उचित वातावरण में स्वंत्रतापूर्वक बढ़ सकता है। कुछ लाइकेन जनन के लिए एक विशेष प्रकार के अंग बनाते हैं, जिन्हें सोरिडिया (Soridia) कहते हैं। ये थैलस के छोटे छोटे भाग होते हैं, जिनमें एक या दो शैवाल कोशिकाएँ कवक तंतुओं द्वारा आवरित होती हैं। यह पैतृक थैलसों से टूटने के पश्चात् वायु, वर्षा या जंतुओं द्वारा उचित वातावरण में पहुँचकर नवीन पौधे बनाते हैं। इनके लाइकेन के दोनों संघटक शैवाल तथा कवक की संतुलित वृद्धि होती है।
कुछ लाइकेनों में शाखाओं की भाँति उद्वर्ध (outgrowth) वृद्धियाँ होती हैं, जिनमें शैवाल तथा कवक दोनों ही के अंश होते हैं। ये उद्वर्ध आसानी से पृथक् हो जाते हैं और उचित वातावरण में नए पौधों को जन्म देते हैं। लाइकेन के संवर्धन के अतिरिक्त संघटक कवक और शैवाल भी स्वेच्छया पृथक् जनन करते हैं।
बहुत से लाइकेनों में कवक नियमित रूप से ऐस्कोकार्प (ascocarp) तथा धानी (asci) बनाते हैं, जिनका रूप पेरीथीसियम (perithecium), ऐपोथीसियम (apothecium), या अन्य प्रकार का होता है। ये फलकाय अधिक रंगीन और चमकीले होते हैं। क्लैडोनिया क्रिस्टाटेला (Cladonia cristotella) की आरोही शाखाओं की लाल अग्र धानियों का एक समूह होता है।
अनुरूप अवस्था में धानीबीजाणु अंकुरित होकर, एक सूत्र को जन्म देते हैं और यदि यह सूत्र किसी ऐसी शैवाल कोशिकाओं के समीप आ जाए जिनसे यह लाइकेन से संबंधित था तो एक नए लाइकेन थैलस का संश्लेषण हो जाता है। यदि उगते हुए कवक जाल को अनुकूल शैवाल नहीं मिलता, तो इसकी मृत्यु हो जाती है। इस कारण यह संदिग्ध है कि धानीबीजाणु लाइकेन के संवर्धन में महत्वपूर्ण कार्य करते हैं, या नहीं। यह संभव है कि लाइकेन जनन में खंडन (fragmentation) तथा सोरीडेम (Soredem) का बनना अधिक कार्यसाधक हो।
आर्थिक महत्व
संपादित करेंलाइकेन प्रकृति तथा मनुष्य के जीवन में एक प्रमुख कार्य करते हैं। ये वनस्पतियों और उचित भूमि (¨ÉÞnùÉ) निर्माण के आविष्कर्ता हैं। कड़ी और नंगी चट्टानों पर उगनेवाली पहली वनस्पति पर्पटीमय लाइकेन है। पर्पटीमय लाइकेन अपने द्वारा निर्मित अम्लों की सहायता से चट्टानों के लावों को अपने अवशिष्ट के साथ मिलाकर एक प्रकार की मिट्टी बनाते हैं, जो हरिता के बीजाणु के लिए अभिजनन स्थान बनता है और फिर पुष्पीय वनस्पतियों से इसका उपनिवेशन हो जाता है।
लाइकेन की कई जातियाँ छोटे छोटे जंतुओं के लिए भोज्य पदार्थ हैं। इनमें से कई जंगली पशुओं के मूल्यवान् भोज्य पदार्थ हैं। प्राय: इनको भ्रम से रेनडियर मॉस (हरिता) कहा जाता है। मनुष्य भी, या तो स्वाद के कारण या अकाल की स्थिति में कोई अन्य खाद्य पदार्थ न प्राप्त होने पर, इनका उपयोग करते हैं। लैपलैंड, आइसलैंड तथा अन्य उपोत्तरध्रुवीय प्रदेशों के अतिरिक्त भारत, जापान एवं अन्य देशों में इनको काफी मात्रा में सुखाकर मानव भोजन या गाय, भैंस, सूअर तथा घोड़ों के खाने लिए एकत्र किया जाता है। जाइरोफोरा एस्क्यूलेंटा (Gyrophora esculenta) चीन और जापान में एक स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ माना जाता है। सेटरेरिया आइसलैंडिका (Cetraria icelandica) एक मूल्यवान् खाद्य लाइकेन है, जिसका उपयोग आइसलैंड और स्कैडेनेविया (Scandanavia) में किया जाता है। ऐसा विश्वास है कि बाइबल में वर्णित "मन्ना" लेकानोरा एसक्युलेंटा (Lecanora esculenta) नामक लाइकेन है, जो एशिया माइनर के रेगिस्तान में रहनेवाली जातियों द्वारा खाया जाता था। साधारणतया लाइकेन अपने अम्लीय और कटुस्वाद के कारण मानव भोजन के लिए अनुपयुक्त होते हैं।
लाइकेन की कई जातियाँ प्राचीन काल में व्याधियों की चिकित्सा के लिए प्रयुक्त होती रही हैं, क्योंकि वे मानव शरीर के अंगों से मिलती जुलती थीं। विश्वास था कि असनिया (Usnea) जाति का लाइकेन केशवर्धन में लाभदायक होता था। इसी प्रकार कुकुर लाइकेन, पेल्टीजेरा कैनिना (Peltigera canina), हाइड्रोफोबिया में लाभप्रद माना जाता था। अन्य लाइकेन पीलिया (jaundice), दस्त तथा बुखारों के लिए प्रयुक्त किए जाते थे।
प्राचीन काल में जब संश्लिष्ट रंगों का निर्माण नहीं हुआ था, लाइकेन की कुछ जातियाँ रंग प्राप्त करने का प्रमुख साधन रहीं। इनसे प्राप्त चटकीले और सुहावने रंग अति मूल्यवान होते थे। एक चटकीला नीला रंग ऑरकिल, रॉकसेला और लेकानोरा नामक लाइकेन से प्राप्त होता है। ऑरसिन (Orcin) इन लाइकेनों से प्राप्त रंग को शुद्ध करने पर प्राप्त होता है और सूक्ष्मदर्शीय निर्मितियों को रँगने के कार्य में प्रयुक्त होता है। लिटम रंग भी लाइकेन से प्राप्त किया जाता है।
कुछ लाइकेनों में टैनिन होता है, जो पशुओं की कच्ची खाल पकाने में प्रयुक्त होता है। लाइकेन की कुछ जातियों में सुहावनी गंध होती है, इस कारण वे सुगंध और साबुन बनाने के काम में लाए जाते हैं।
लाइकेन हमारे लिए अपने अगणित गुणों के कारण बड़े उपयोगी हैं। इनकी अनुपस्थिति से पृथ्वी का एक बड़ा भाग निस्संदेह बंजर एवं निर्जीव होता तथा कोई बनस्पति भी नहीं होती।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- University of Sydney lichen biology
- Memorial University's NL Nature project, focusing primarily on lichens
- ESA article on lichen survivability in low earth orbit
- The British Lichen Society
- Lichens of North America
- Lichen Information and Pictures at blackturtle.us
- Pacific Northwest Fungi Online Journal, includes articles on lichens
- Fungi that discovered agriculture
- Pictures of Tropical Lichens
- High Resolution 1.5 Gigapixel Image of a Lichen Covered Rock
- Good example of a Lichen
- [1] Archived 2023-04-13 at the वेबैक मशीन [2] Archived 2023-04-13 at the वेबैक मशीन