गोरेलाल (उपनाम 'लाल कवि'), हिन्दी में रीतिकालीन के सैनिक-कवि थे जिनकी प्रसिद्धि उनके उन युद्धकाव्यों की वजह से है, जो अपने आश्रयदाता नरेश छत्रसाल की प्रशस्ति में उन्होंने लिखे । आजीविका के लिए छत्रसाल की सेना में एक सैनिक होते हुए भी वह मन, वचन और लेखनी से एक श्रेष्ठ कवि ही थे।

परिचय संपादित करें

गोरेलाल के पूर्वज पहले आंध्र प्रदेश में राजमहेंद्री जिले के नृसिंहक्षेत्र धर्मपुरी में रहते थे, किंतु बाद में वे रानी दुर्गावती के समय (सं. 1535 वि.) में आंध्र छोड़ बुंदेलखंड में जा बसे। राजमंड्री भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य के पूर्व गोदावरी ज़िले में स्थित एक शहर है। इसे कभी-कभी आन्ध्र प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। इस का प्राचीन नाम "राजा महेंद्र वरम" या राजमहेंद्रवरम् था जो इसका औपचारिक सरकारी नाम भी है, इनके पूर्वज काशीनाथ भट्ट की कन्या "पूर्णा" का विवाह यहीं महाप्रभु वल्लभाचार्य जी से हुआ था। काशीनाथ के पुत्र जगन्नाथ के क्रमश: गिट्टा, लंबुक, जोगिया, तिघरा, गिरधन और भरम नामक छह पुत्र हुए इसीलिये इनका वंश 'छभैय्या' कहलाया । गोरेलाल का जन्म संवत् 1715 वि. के आसपास इन्हीं गिट्टा के पुत्र नागनाथ की दसवीं पीढ़ी में हुआ था। "वृहलृकमौद्गल्यगोत्रे प्रथिततरयशा नानाथान्वयेभूत्"। बुंदेलाधीशपूज्य: कविकुलतिलको गौरिलालाख्यो भट्टः" के अनुसार दीक्षिणात्य विद्वान् कृष्णशास्त्री ने "वल्लभदिग्विजय" में लिखा है कि "मुद्गल गोत्रीय" नागनाथ के वंश में कवि-कुल-तिलक गोरेलाल हुए, जिन्हें बुंदेलखंड के अधीश्वर (छत्रसाल) बड़ी पूज्य दृष्टि से देखते थे। लाल को अपने एकमात्र आश्रयदाता महाराजा छत्रसाल से बढ़ाई, पठारा, अमानगंज, सगेरा तथा दग्धा नामक पाँच गाँव जागीर में मिले थे। आज उन गावों के नाम हो चुके हैं- बड़खेरा, पगरा, अमानगंज, सगरा (झगरा) , और दग्धा! गोरेलाल स्वयं अपने जागीरी ग्राम दग्धा में रहते थे और अब तक उनके वंशज वहीं रहते हैं।

राज्य-सम्मान संपादित करें

महाराजा छत्रसाल साहित्य के प्रेमी एवं संरक्षक थे । कई प्रसिद्ध कवि उनके दरबार में रहते थे । विख्यात कवि भूषण (जिन्होंने ‘छत्रसाल दशक’ लिखा है) की ही तरह गोरेलाल भी उन दरबारी कवियों में से एक थे। खुद गोरेलालजी  को अपनी काव्य-प्रतिभा के चलते अपने आश्रयदाता महाराजा छत्रसाल (4 मई 1649–20 दिसम्बर 1731 ई. ) से बढ़ाई, पठारा, अमानगंज, सगेरा तथा दग्धा आदि नामक गाँव जागीर में मिले थे।

यद्यपि कवि की मृत्यु के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं, आचार्य शुक्ल का कहना  है- “‘छत्रप्रकाश’ पुस्तक में छत्रसाल का संवत् 1764 तक का ही वृत्तांत आया है, इससे अनुमान होता है, या तो यह ग्रन्थ अधूरा ही मिला है अथवा, ‘लाल कवि’ का परलोकवास छत्रसाल से पूर्व ही हो गया था । ”

इस तरह “छत्रप्रकाश” में वर्णित अंतिम घटना का समय सं. 1764 वि. मान कर मिश्रबंधुओं और रामचंद्र शुक्ल आदि कुछ महान  इतिहासज्ञों ने उक्त समय को ही कवि का मृत्यु का होने का गलत अनुमान लगाया है जबकि उक्त रचना की उपलब्ध प्रति में अंतिम वर्णित घटना “लोहागढ़-विजय” है, जिस घटना का समय है-  वि.सं. 1767 । यह घटना कवि के सामने हुई थी और वह लोहागढ़ जीते जाने के प्रत्यक्षदर्शी रहे थे, इसलिए इस तैलंग-कवि का  निधन सं. 1767 वि. (या तदनुसार सन् 1710) के पश्चात् ही हुआ है,  यह मानना अधिक तर्कसंगत होगा ।

साहित्यिक-मूल्यांकन संपादित करें

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में सब से महत्वपूर्ण बात इनकी काव्यात्मक-ईमानदारी के  सम्बन्ध में यह लिख दी  है कि  “इतिहास की दृष्टि से इनका लिखा ‘छत्रप्रकाश’ बड़े  महत्व की पुस्तक है !  इसमें सब घटनाएं सच्ची और सब ब्यौरे ठीक ठीक दिए गए हैं ।  इसमें वर्णित घटनाएं और संवत आदि ऐतिहासिक खोज के अनुसार बिलकुल ठीक हैं, जहाँ तक कि जिस युद्ध में छत्रसाल को भागना पड़ा, उसका भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है।  यह ग्रन्थ नागरी प्रचारणी सभा द्वारा प्रकाशित हो चुका  है !”

दरबारी कवि होने के बावजूद  अगर गोरेलालजी राजा के संभावित कोप से आतंकित हुए बगैर अपने आश्रयदाता राजा की ‘कमियों’ या युद्ध से कूटनीतिक पलायन का संकेत भी निर्भीकता से कर रहे हैं तो यह रीतिकालीन साहित्य के इतिहास में एक अपवाद किस्म की काव्यात्मक-ईमानदारी ही कही जा सकती है  जो उस समय के अधिकतर ‘चाटुकार’ और अतिरंजना में सिद्धहस्त कवियों में न मिलने वाला एक दुर्लभ गुण है !

अगर शुक्ल जी के सम्यक् मूल्यांकन से ही आगे चलें तो लाल कवि के काव्य के सन्दर्भ में उनके ये शब्द बड़े महत्वपूर्ण हैं : “ ‘छत्रप्रकाश’ ग्रन्थ की रचना प्रौढ़ और काव्य-गुण युक्त है, ‘लाल कवि’ में प्रबंध-पटुता पूरी थी।  सम्बन्ध का निर्वाह भी अच्छा है और वर्णन विस्तार के लिए मार्मिक-स्थलों का चुनाव भी।  वस्तु-परिगणन द्वारा वर्णों का अरुचिकर विस्तार (इनके यहाँ) बहुत ही  कम मिलता है । सारांश यह है- लाल कवि का सा प्रबंध-कौशल हिन्दी के कुछ इने गिने कवियों में ही पाया जाता है।  शब्द-वैचित्र्य और चमत्कार के फेर में इन्होंने कृत्रिमता कहीं से भी आने नहीं दी है ।  भावों का उत्कर्ष जहाँ भी दिखाना हुआ है, वहां भी कवि ने सीधी और स्वाभाविक उक्तियों का ही समावेश किया है ।  न तो कल्पना की (बेवजह) उड़ान ही दिखाई है, न ही ऊहा की जटिलता ।  देश की दशा की ओर भी इस कवि का पूरा ध्यान जान पड़ता है।  .... ‘छत्रप्रकाश’ में लाल कवि ने बुन्देल-वंश की उत्पत्ति, चम्पत राय के विजय वृत्तान्त, उनके उद्योग और पराक्रम, चम्पत राय के अंतिम दिनों में उनके राज्य का उद्धार, फिर क्रमशः विजय पर विजय प्राप्त करते हुए मुगलों का नाकों दम करना इत्यादि बातों का विस्तार से वर्णन  किया है।  काव्य और इतिहास की दृष्टि से यह ग्रन्थ हिंदी में अपने ढंग का अनूठा है।  लाल कवि  का एक और ग्रन्थ ‘विष्णुविलास’ है, जिसमें बरवै छंद में नायिका-भेद कहा गया है ।  पर इस कवि की कीर्ति का स्तम्भ ‘छत्रप्रकाश’ ही है! ...”


स्फुट रचनाएँ

1

छाये नभमंडल में , सजल सघन घन,

कारे पीरे श्वेत रंग, धारतै रहत हैं।

‘लाल’ जू कहत, त्यौंही चहकि चुरैल ऐसी,

चंचला जवाल जाल, जारतै रहत हैं॥

2

होन लागे केकी, कुहकार कुंज कानन मैं,

झिल्ली-झनकार, दबि देह दहने लगे।

दौरि-दौरि धुरवा, धुधारे मारे भूधर से,

भूधर भ्रमाय, चित चोय चहने लगे॥


3

सिंधु के सपूत, सिंधु तनया के बंधु,

अरे बिरही जरे हैं, रे अमंद तेरे ताप तैं

तू तौ दोषी दोष तैं, कालिमा कलंक भयो,

धारे उर छाप, रिषी गौतम के साप तैं।

‘लाल’ कहै हाल तेरो, जाहिर जहान बीच,

बारुणी को बासी त्रासी राहु के प्रताप तैं।

बाँधो गयो, मथो गयो, पीयो गयो, खारो भयो,

बापुरो समुद्र तो से पूत ही के पास तैं॥

गोरेलाल  कवि की कई रचनाएँ बतायी जातीं हैं – “छत्रप्रशस्ति”, “छत्रछाया”, “छत्रकीर्ति”, “छत्रछंद”, “छत्रसालशतक”, “छत्रहजारा”, “छत्रदंड”, “छत्रप्रकाश”, “राजविनोद” बरवै आदि। किंतु इनमें एकमात्र प्राप्य और महत्व की रचना शायद ‘छत्रप्रकाश’ ही है । रचनाओं के नाम से ही जान पड़ता है कि कवि अपने चरितनायक के गुणों पर इतना रीझा कि उसने जो कुछ और जितना भी लिखा सब “छत्र” (छत्रसाल) को ही ले कर। “छत्रप्रकाश” की गिनती वीर-रस के अनूठे काव्यग्रंथों में की जाती है । इसकी रचना भी महाराज छत्रसाल की आज्ञा से की गई थी। वे भारत के मध्ययुग के एक महान् प्रतापी राजपूत-योद्धा थे जिन्होंने मुगल शासक औरंगज़ेब जैसे अत्यधिक शातिर और सक्षम मुग़ल को युद्ध में पराजित कर के बुन्देलखण्ड में अपना राज्य स्थापित किया और ‘महाराजा’ की पदवी प्राप्त की ।

छत्रसाल बुन्देला का लगभग पूरा जीवन मुगलों की सत्ता के खि‍लाफ संघर्ष और बुन्देलखण्ड की स्‍वतन्त्रता स्‍थापि‍त करने के लि‍ए जूझते हुए नि‍कला था । महाराजा छत्रसाल बुन्देला अपने जीवन के अन्तिम समय तक अलग-अलग मुग़ल आक्रमणकर्ताओं  से बिना थके जूझते रहे । ‘बुन्देलखण्ड केसरी’ के नाम से वि‍ख्‍यात महाराजा छत्रसाल बुन्देला के बारे में लिखे “छत्रप्रकाश” का सर्वप्रथम प्रकाशन कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज से मेजर प्राइस द्वारा किया गया था, लेकिन वह पहली बार छपी प्रति अब कहीं प्राप्य नहीं है ।

वर्तमान संस्करण नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से बाबू श्यामसुंदरदास के संपादकत्व में निकला था । इसमें कुल 26 अध्याय और 163 पृष्ठ हैं । इसमें न केवल महाराज छत्रसाल के जीवन से संबंधित घटनाओं का ही वर्णन किया गया है वरन् सं. 1767 वि. तक की बुंदेलखंड संबंधी छोटी छोटी घटनाओं का विवरण भी दिया गया है । ऐतिहासिक सत्य की सुरक्षा के प्रति कवि की गहरी निष्ठा है । कुछ आलोचक प्रशंसापूर्वक कहते हैं- कला और कल्पना, जिनसे घटनाओं की सचाई काफी धुँधली और मंद पड़ जाया करती है, का बहुत कम प्रयोग होने से “छत्रप्रकाश” के वर्णन तथ्यात्मक  और इतिवृत्तात्मक हैं ।” इस कविता की ऐतिहासिक (तटस्थ) दृष्टि और तथ्यपरकता से आकर्षित होकर ही कैप्टन पावसन ने इस पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी में किया था । यह बात स्वयं लाल कवि की कविता की महत्ता साबित करती है । ‘छत्रप्रकाश’ (पृष्ठ 155) संपादक : बाबू श्यामसुंदरदास बी. ए,,  कृष्णवल्देव वर्मा रचनाकार : लाल कवि / प्रकाशन : नागरी प्रचारिणी सभा, काशी संस्करण : 1910 में ‘कृष्ण-जन्म’ शीर्षक से इनकी एक रचना के आरंभिक अंश यों है-


छंद

रचना रचिवे कौ मनु धायौ । महत्तत्व सो इहां कहायौ॥

काल शक्ति के छोभित कीने । अहंकार उपज्यौ गुन लीने॥

अहकार तहं त्रिबिध जनायौ । सात्विक राजस तामस गायौ॥

तामस अहंकार उपजाये । पाँचौं भूत पाँच गुन ल्याये॥

शब्द स्पर्श रस रूप बनाये । गंध सहित गुन पाँच गनाये॥

कान सबद सुनिवे कौ पाये । त्वचा परस के भेद बताये॥

रसना स्वाद रसन के लीनै । रूप देखिये कौं दृग दीनै॥

गंध ग्रहन नासिका लीनै। पाँच पाँच के भये अधीनै॥

दोहा

पाँच ज्ञानइन्द्रिय भये, पाँच स्वाद के हेत।

पाँच भूत कौ जगत रचि, घेतन कियौ निकेत॥

छंद

चेतन तहां आपुही आये । सोरद कला रूप छबि छाये॥

जल अगाघ चारहु दिस जोयौ । सेज बिछाइ शेष की सोयौ॥

यह नारायन रूप कहायौ । ताकी नाभि कमल उपजायौ॥

उपजे तहां चार मुखवारे । ब्रह्मा सृष्टि बनावनहारे॥

ब्रह्मा अपनै मन तै कीनै । छहौ पुत्र तप के रस भीनै॥

प्रथम मरीचि अत्रि पुनि जानौ । और अंगिरा उर में आनौ॥

फिरि पुलस्त्य अरु पुलह बखानै । जे छटए वे क्रतु पहिचाननै॥

इनतै उपजी सृष्टि तहां लौ । थावर जंगम जीव जहां लौ

छंद

तहं बसुदेव नंद तपु कीनौ । तिन्है आइ दरसन प्रभु दीनौ॥

मांग्यो बर यह दुहुन अकेलौ । सुत ह्वे नाथ हमारे खेलौ॥

दयौ दुहुन को वर मन भायौ । लै अवतार आप इन आयौ॥

तौ लगि आठ बीस जुग बीते । ह्वां पल के सह सांस न रीते॥

बढ़े कालजमनादिक भारे । जरासंध से भूप अन्यारे॥

तिनके दलनि भूमि भय भारी । पीड़ित ह्वै बिधि पास पुकारी॥

धेनु रूप धरि रोवत आई । ब्रह्मा पीर भूमि की पाई॥

महादेव अरु देवनि लैकै । छीरसमुद पर बोले जैकै॥



दोहा

तहँ अकासबानी सुनी, लख्यौ न कछु आकार।

हौं आवत व्रज नंद के, हरन भूमि कौ भार॥


आचार्य शुक्ल ने इनकी कविता के जो अंश अपने इतिहास में ‘छत्रप्रकाश’ से उद्धृत किये हैं, वे राजा छत्रसाल की प्रशंसा से संबंध रखने वाले अवधी + बुन्देली + व्रजभाषा के ऐसे पद्य हैं, जिनसे उस समय की कविताई, और कवि-दृष्टि, दोनों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है ! काव्य-सौष्ठव के विचार से गोरेलाल  की प्रबंध-पटुता भी श्लाघनीय है । वे कथा का संबंध-निर्वाह भी खूब जानते हैं और मार्मिक स्थलों का चुनाव भी। उनके साहित्य में टकार, डकार आदि लोमहर्षक वर्णों का प्रयोग बड़ी ही स्वाभाविक पद्धति से वीररसोद्रेक के लिए किया गया है। कुछ आलोचक कहते हैं- इस कवि की दृष्टि घटनावर्णन की ओर जितनी रहती है उतनी रसचित्रण की ओर नहीं; फिर भी भावों को इनके यहाँ समुचित उत्कर्ष ही मिला है । इसके विपरीत युद्धप्रसंग में थोड़े अंतर पर अनेक व्यक्तियों के नामों के उल्लेख, वर्णन-विस्तार-प्रियता और इतिवृत्तात्मकता आदि के संयोग ने कुछ आलोचकों की दृष्टि में उसकी काव्यात्मक सरसता को कुछ ‘नीरस’ बना दिया है । उन की भाषा आम तौर पर व्रजभाषा है जिसमें बुंदेली बोली की अच्छी मिलावट है ।

उद्दंड’ शब्द आलोचना में इस्तेमाल पहली बार यहीं हुआ हो- इस ‘उद्दंड’ से असल समीक्षकों का अभिप्राय ‘निर्बंध’ या ‘आत्मविश्वासी’ होना चाहिए,   ‘मिश्र बंधु विनोद’ में इनके बारे  में संपादक-समीक्षकों द्वारा यह लिखा गया था-  “गोरेलाल उपनाम ‘लाल कवि’ इस समय का परमोत्तम कथा-प्रासंगिक कवि है । इसने ‘छत्रप्रकाश’ नामक ललित-ग्रंथ में महाराज छत्रसाल का जीवन-चरित्र संवत् 1761 पर्यंत लिखा है । जान पड़ता है कि यह कवि इस समय के पीछे जीवित नहीं रहा । इस ग्रंथ में दोहा-चौपाई छोड़कर कोई भी छंद नहीं है, परंतु इन्हीं से यह अनमोल और मनोहर बना है।

          ‘लाल’ के बराबर उत्तम कविता में उद्दंडता लाने में कोई भी कवि समर्थ नहीं हुआ है । भूषण, हरिकेश, शेखर और लाल, ये चारों बड़े उद्दंड लेखक हैं, परंतु गोरेलाल का प्राबल्य इन सबसे निकलता हुआ है, यद्यपि कुल मिलाकर ये भूषण के समान सत्कवि नहीं हैं । बैताल भी एक बड़ा ही उद्दंड कवि है, परंतु उसके कथन कुछ प्रामीणता लिए हुए हैं और गोरेलाल साधु-भाषा में अद्वितीय उद्दंडता लाए हैं ।

        इस अमूल्य ग्रंथ में कविता-संबंधी प्रायः सभी सद्गुण वर्तमान हैं । युद्धों का ऐसा उत्तम वर्णन बहुत स्थानों पर न मिलेगा । इस कवि ने उत्तमता में अपनी रचना गोस्वामीजी से मिला-सी दी है, यद्यपि इन दोनों कवियों के ढंगों में बड़ा अंतर है । गोरेलाल एक बड़ा ही अनमोल कवि है । ”

रचनाएँ संपादित करें

लाल कवि की कई रचनाएँ बतायी जातीं हैं - "छत्रप्रशस्ति", "छत्रछाया", "छत्रकीर्ति", "छत्रछंद", "छत्रसालशतक", "छत्रहजारा", "छत्रदंड", "छत्रप्रकाश", "राजाविनोद" बरबे आदि। किंतु इनमें एकमात्र प्राप्य और महत्व की रचना छत्रप्रकाश ही है। रचनाओं के नाम से ही जान पड़ता है कि कवि अपने चरितनायक के गुणों पर इतना लट्टू था कि उसने जो कुछ और जितना भी लिखा सब "छत्र" (छत्रसाल) को ही लेकर। "छत्रप्रकाश" की गिनती वीररस के अनूठे काव्यग्रंथों में की जाती है। इसकी रचना महाराज छत्रसाल की आज्ञा से की गई थी। "छत्रप्रकाश" का सर्वप्रथम प्रकाशन कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज से मेजर प्राइस द्वारा किया गया था, लेकिन वह प्रति अब प्राप्य नहीं। वर्तमान संस्करण नागरीप्रचारिणी सभा, काशी से बाबू श्यामसुंदरदास के संपादकत्व में निकला था। इसमें कुल 26 अध्याय और 163 पृष्ठ है। इसमें न केवल महाराज छत्रसाल के जीवन से संबंधित घटनाओं का ही वर्णन किया गया है वरन् सं. 1767 वि. तक की बुंदेलखंड संबंधी छोटी से छोटी घटनाओं का विवरण भी दिया गया है। ऐतिहासिक सत्य की सुरक्षा के प्रति कवि की गहरी निष्ठा दिखाई पड़ती है। कला और कल्पना, जिनसे घटनाओं की सचाई काफी धुँधली और मंद पड़ जाती है, का बहुत कम प्रयोग होने से "छत्रप्रकाश" के वर्णन तथ्य से भरे हुए और इतिवृत्तात्मक हो गए हैं। इसकी ऐतिहासिक महत्ता से आकर्षित होकर ही कैप्टन पावसन ने इसका उल्थ अंग्रेजी में किया था।

काव्यसौष्ठव के विचार से लाल की प्रबंधपटुता श्लाधनीय है। वे कथा का संबंधनिर्वाह भी खूब जानते हैं और मार्मिक स्थलों का चुनाव भी। टकार, डकारादि लोमहर्षक वर्णों का प्रयोग बड़ी ही स्वाभाविक पद्धति पर वीररसोद्रेक के लिए किया गया है। कवि की दृष्टि जितनी घटनावर्णन की ओर रहती है उतनी रसचित्रण की ओर नहीं; फिर भी भावों को समुचित उत्कर्ष मिला है। इसके विपरीत युद्धप्रसंग में थोड़े अंतर पर अनेक व्यक्तियों के नामों के उल्लेख, वर्णन-विस्तार-प्रियता और इतिवृत्तात्मकता आदि के संयोग ने उसकी काव्यात्मक सरसता को नीरस और फीका बना दिया है। भाषा उसकी ब्रजभाषा है जिसमें बुंदेली की अच्छी मिलावट है।

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