लोंगिनुस (अंग्रेजी : Longinus ; ग्रीक: Λογγῖνος, Longĩnos) परम्परागत रूप से "काव्य में उदात्त तत्व" (On the Sublime / Περὶ ὕψους / Perì hýpsous) नामक कृति का रचनाकार माना जाता है। इस कृति में अच्छे लेखन के प्रभावों की चर्चा है। लोंगिनुस का असली नाम ज्ञात नहीं है। वह यूनानी काव्यालोचन का शिक्षक था। उसका काल पहली से लेकर तीसरी शदी तक होने का अनुमान है।

लोंजाइनस ने काव्य को श्रेष्ठ बनाने वाले तत्वों पर विचार करते हुए इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। वे उदात्त को काव्य को श्रेष्ठ बनाने वाला तथा कवि को प्रतिष्ठा दिलाने वाला तत्व मानते हैं। यह उदात्त महान विचारों संगठित अलंकार योजना, अभिजात्य पद रचना तथा प्रभाव की गरिमा में निहित है। वे वागाडंबर बालेयता और भावाडंबर को उदाद्त्ता में बाधक तत्व मानते हैं।

जिस प्रकार भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य के स्वरूप और उसकी आत्मा को लेकर विभिन्न मतों का प्रतिपादन हुआ है उसी प्रकार पाश्चात्य आलोचना के क्षेत्र में विभिन्न युगों में विभिन्न चिन्तकों ने काव्य या साहित्य के मूल तत्त्व की खोज की है।

प्लेटो ने अनुकरण को साहित्य का मूल तत्त्व माना। इनका पल्लवन अरस्तू ने अपनी दृष्टि से किया और विरेचन (catharsis) को साहित्य का उद्देश्य स्वीकार किया। इसी प्रकार लोंजाइनस का उदात्त सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के द्वारा उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि कोई भी कलाकृति या काव्यकृति बिना उदात्त तत्त्व के श्रेष्ठ रचना नहीं हो सकती। श्रेष्ठ वही है जिसमें रचयिता का गहन चिन्तन और अनुभूतियाँ रहती हैं। रचनाकार का यह अनुभूति तत्त्व अपनी महानता, उदात्तता, भव्यता या गरिमा के कारण रचना को महान बनाता है। रचना या कृति शिल्प के द्वारा अभिव्यक्ति पाती है; किन्तु उदात्त रचना का लेखक अपनी रचना में शिल्प के सौन्दर्य की अधिक चिन्ता न करके उसमें निहित अनुभूति को ही सबल बनाने का यत्न करता है।

इस उदात्त सिद्धान्त को प्रस्तुत करनेवाले आचार्य लोंजाइनस है। इनका यूनानी भाषा का नाम लोंगिनुस (Longinus) तथा अंग्रेजी भाषा में उच्चरित 'लोंजाइनस' है। इनकी रचना का नाम ‘पेरिहुप्सुस’ है, जिसका अंग्रेजी में ‘ऑन द सब्लाइम’ (on the sublime) नाम से अनुवाद किया गया। इसी को हिन्दी में उदात्त की संज्ञा दी गई। इसका ग्रंथ पाश्चात्य साहित्य-शास्त्र का प्रमुख ग्रंथ है।

उदात्त का स्वरूप

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लोंजाइनस ने उदात्त की परिभाषा और उसका सामान्य परिचय जिस रूप में दिया है उससे प्रतीत होता है कि उनके समय में यह शब्द इतना अधिक प्रचलित हो गया था कि उन्होंने इसका विस्तृत परिचय देने की कोई आवश्यकता नहीं समझी। फिर भी उदात्त के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने इतना कहा-

"Sublimity is a certain distinction and excellence in expression."

अर्थात् अभिव्यक्ति की विशिष्टता और श्रेष्ठता का नाम उदात्त है। इसी को लक्ष्य करके हिन्दी आलोचकों ने यह स्वीकार किया है कि किसी रचना में उदात्त तत्त्व उपयुक्त तथा गरिमापूर्ण शब्द-विधान, आवेग को दीप्त करने वाली अलंकार योजना तथा रचना-विधान द्वारा अभिव्यक्त होता है।

लोंजाइनस ने काव्य के उदात्त को वक्तृता से एकदम भिन्न बताया है, क्योंकि काव्य में श्रोताओं पर उदात्त का प्रभाव तन्मयता के रूप में होता है, प्रवर्तन के रूप में नहीं। इस कारण लोंजाइनस की दृष्टि में भव्य कविता वहीं है जो आनन्दातिरेक के कारण हमें इतना निमग्न और तन्मय कर दे कि हम ऐसी उच्च भाव-भूमि पर पहुँच जाए जहाँ वर्ण्य विषय विद्युत-प्रकाश की भाँति आलोकित हो उठता है। इस दृष्टि से लोंजाइनस को आनन्दातिरेक और विश्वनाथ के विगलित-वेद्यान्तर में बहुत कुछ साम्य देखा जा सकता है। उदात्त के स्वरूप के अन्तर्गत लोंजाइनस में मनोवैज्ञानिक और व्यवहारिक दोनों दृष्टियों को सामने रखा। इसी से उन्होंने एक ओर उदात्त के आन्तरिक तत्त्वों का उल्लेख किया है और दूसरी ओर उसके बाह्य पक्ष की भी विवेचना की है।

उदात्त का मूल आधार

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उदात्त मूल आधार क्या है? क्या वह वक्ता या लेखक की जन्मजात प्रतिभा पर आधारित होता है या उसका प्रस्फुटन शिक्षा-दीक्षा से विचार किया जा सकता है या अभ्यास पर निर्भर है? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए लोंजाइनस ने मध्य मार्ग का अनुकरण किया है। उनके विचार से उदात्त न तो सर्वथा प्रतिभा सापेक्ष है और न पूर्णतः अभ्यास-सापेक्ष। वस्तुतः उदात्त का आधार व्यक्ति का कोई एक पक्ष, एक गुण या एक प्रवृत्ति नहीं है अपितु उसके पीछे सम्पूर्ण व्यक्तित्व की झलक होती है। अतः उदात्त का सृष्टा उदात्त व्यक्तित्व ही हो सकता है। महान प्रतिभाशाली उच्च विद्वान एवं यशस्वी चरित्रवान व्यक्ति ही उदात्त या उद्घोषक हो सकता है। लोंजाइनस के अनुसार - ‘‘उदात्त आत्मा की महानता का प्रतिबिम्ब है। सच्चा उदात्त केवल उन्हीं में प्राप्य है जिनकी चेतना उदात्त एवं विकासोन्मुख है। यह सर्वथा स्वाभाविक है कि जिनके मस्तिष्क उदात्त धारणाओं से परिपूर्ण है उन्हीं की वाणी से उदात्त शब्द झंकृत हो सकते हैं।’’

इस प्रकार उदात्त का सम्बन्ध केवल प्रतिभा, अध्ययन और भाषा के अध्ययन से नहीं, अपितु व्यक्ति के समूचे व्यक्तित्व से है।

निष्कर्षतः

  • उदात्त अभिव्यंजना का प्रकर्ष और वैशिष्ट्य है।
  • उदात्त का कार्य अनुनयन नहीं अपितु सम्मोहन है।
  • उदात्त सर्जनात्मक या रचनात्मक कौशल से भिन्न तत्त्व है।

उसका प्रभाव क्रमिक नहीं, आकस्मिक होता है और उसके अलौलिक आलोक से कथा चमक उठती है।

उदात्त के स्रोत

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यद्यपि उदात्त के मूलाधार साहित्यकार के व्यक्तित्व की महानता में निहित है फिर भी रचना में उदात्त का तत्त्व लाने में लिए लोंजाइनस ने पाँच स्रोतों की चर्चा की है-

  • महान धारणाओं की क्षमता या विचारों की भव्यता।
  • प्रेरणा-प्रसूत आवेग या भावावेश की तीव्रता।
  • समुचित अलंकार योजना।
  • उत्कृष्ट भाषा।
  • गरिमामय रचना विधान।

उपर्युक्त पाँचों तत्त्वों में से प्रथम दो जन्मजात अर्थात् कवि-प्रतिभा के अंग हैं और शेष तीन कला सम्बन्धी विशेषताएँ हैं।

महान धारणाओं की क्षमता

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उदात्त के स्त्रोतों में प्रथम स्थान विचार की महत्ता का है। इसी को लोंजाइनस ने शब्द-भेद से आत्मा की भव्यता भी कहा है। उनका स्पष्ट कथन है- ‘‘उदात्त महान की आत्मा की प्रतिध्वनि होता है।’’ यदि आत्मा की यह महत्ता नैसर्गिक न हो तो उत्कृष्ट विचारों द्वारा उसे प्राप्त किया जा सकता है। महान शब्द उन्हीं के मुख से निकलते हैं जिनमें विचार गम्भीर और गहन हों। महान विचारों से सम्पन्न, आत्मोत्थानयुक्त साहित्यकार ही उदात्त-सृजन कर सकते हैं। लोंजाइनस की यह ऐसी अवधारणा है, जिससे उनकी उदात्त-प्रभाव सम्बन्धी धारणा भी जुड़ी हुई हैं। उदात्त का प्रभाव आत्मातिक्रमण होता है, अनुनयन नहीं। यह धारणा इस बात को विशेषीकृत करती हैं कि आत्माति क्रमण भव्य और महान विचारों की गरिमामयी अभिव्यक्ति से ही सम्भव है। वस्तुतः आत्मिक महानता उदात्त सृजना की पहली शर्त है, इसीलिए उदात्त का प्रभाव (ट्रांसपोर्ट) भी नैतिकरूप से कल्याणकारी ही माना जाएगा। इस प्रकार उदात्त साहित्य का प्रभाव नैतिक तथा कलात्मक दोनों ही दृष्टियों से उत्तम माना जाना चाहिए। इस दृष्टि से लोंजाइनस और महाकवि मिल्टन एक ही स्तर पर उतरते हैं। मिल्टन के अनुसार महान साहित्यकार बनने के लिए महान और अति सम्माननीय वस्तुओं का अनुकरण करना चाहिए। मिल्टन का मत है-

"He ought himself to be a true poem, that is a composition and pattern of the best and honour-ablest things."

मनस्वियों को यह भव्य वाणी सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि प्रतिभाशाली कवि अपने जीवन के संध्या काल में अस्त होते हुए सूर्य की तरह ठण्डा हो जाता है और उसके परवर्ती काव्य में उदात्त की कमी दिखाई देने लगती है। ओदिसी (ओद्यु स्सेइया) में होमर की इसी अस्ताचल-गामिनी प्रतिभा के दर्शन होते हैं। लोंजाइनस का कथन है- ‘‘इलियट होमर की तरुणाई की रचना हैं, क्योंकि इसमें गति और संघर्ष का प्राचुर्य हैं। इसके विपरीत, ओडिसी का बहुलांश आख्यानात्मक हैं, जो बुढ़ापे की देन है।’’ हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त के ‘विष्णु प्रिया’ और ‘रत्नावली’ इसी प्रकार के काव्य हैं, जिनमें इनकी प्रतिभा का अपकर्ष देखा जा सकता है। पन्त और बच्चन का परवर्ती काव्य भी इसका उदाहरण हैं।

प्रेरणा-प्रसूत आवेग या भावावेश की तीव्रता

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लोंजाइनस ने कलाकृति में उद्दाम आवेगों की अनिवार्यता पर बल दिया है, क्योंकि कृति के महान होने के लिए यह आवश्यक है कि पाठकों को भावनात्मक उत्तेजना प्रदान करे। भावावेश या भव्य आवेग वे हें जिनसे ‘आत्मा’ अपने आप ऊपर उठने लगती हैं और फिर हर्षोल्लास से भर जाती हैं। लोंजाइनस ने आवेगों के दो वर्ग बनाए हैं- एक भव्य और दूसरा निम्न। भव्य आवेगों में उच्च भावावेश अर्थात् उत्कृष्ट भावना प्राबल्य, आदर, विस्मय, उल्लास और शौर्य आदि की गणना करते हैं, जबकि निम्न आवेगों का सम्बन्ध करुणा, शोक और भय से है। काव्य में उदात्त भरने के लिए उच्च भावावेशों का ग्रहण तथा निम्न भावावेशों का त्याग होना चाहिए।

समुचित अलंकार योजना

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लोंजाइनस का मत है कि अलंकारों का प्रयोग इस कुशलता से होना चाहिए कि इस बात पर किसी का ध्यान न जाए कि वह अलंकार है। कला जब कौशलपूर्वक प्रयुक्त की जाती है तो वह अपने सौन्दर्य और चमत्कार के विन्यास को खो देती है। वस्तुतः अलंकार की चमत्कृत न करें, अपितु वह आनन्द हेतुक होना चाहिए। लोंजाइनस ने अतिशयमूलक अलंकारों को उदात्त का हेतु माना है। उनके अनुसार विस्तारणा, शपथोक्ति, प्रश्नालंकार, विपर्यय, व्यतिक्रम, पुनरावृत्ति, प्रत्यक्षीकरण, संचय, सार, रूप-परिवर्तन, पर्यायोक्ति, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों में उदात्त विद्यमान रहता हैं। अतः उदात्त के लिए अलंकारों का सहज और औचित्यपूर्ण होना अनिवार्य है।

उदाहरणार्थ

  • (१) विस्तारणा के अन्तर्गत वक्ता अपनी युक्तियों के विस्तार से प्रस्तुतकर उदात्त पोषण में सहायक होता है।
  • (२) प्रश्नालंकार में वक्ता स्वयं ही प्रश्नकर उसका उत्तर देता है, जैसा कि प्लेटो ने ‘रिपब्लिक’ में किया है।
  • (३) ‘विपयर्य’ और ‘व्यतिक्रम’ में शब्दों और विचारों के क्रम में परिवर्तन अथवा उलट-फेर की जाती हैं।
  • (४) पुनरावृत्ति के शब्दों अथवा वाक्यों की पुनरावृत्ति की जाती है।
  • (५) प्रत्यक्षीकरण में साक्षात् वर्णन द्वारा समस्य विषय-वस्तु जीवित-सी प्रतीत होने लगती है।
  • (६) ‘सार’ में वर्णित वस्तु की क्रमशः वृद्धि की ओर संकेत होता है।
  • (७) पर्यायोक्ति में बात को घुमा-फिराकर कहा जाता है।

उत्कृष्ट और अभिजात अभिव्यक्ति

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अभिजात अभिव्यक्ति से लोंजाइनस का तात्पर्य काव्य भाषा है। उन्होंने भाषा की उत्कृष्टता पर विशेष बल दिया है; क्योंकि उदात्त की अभिव्यक्ति भाषा के माध्यम से होती है। पदावली का विषयानुकूल, उपयुक्त प्रभाव एवं सुगुम्फित होना अनिवार्य है, क्योंकि ऊर्जस्वित भाषा के प्रयोग द्वारा रचनाकार ऐसी कृति का निर्माण कर सकता है, जिसका प्रभाव दुर्निवार हो। उपयुक्त और प्रभावी शब्दावली के द्वारा रचना में भव्यता, गरिमा, ओज, मादेव, शक्ति आदि गुणों का समावेश और जीवन्तता का संचार होता है।

गरिमामय रचना विधान

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रचना-विधान का अर्थ है समंजित शब्द-योजना या एक निश्चित क्रम से शब्दों की योजना। लोंजाइनस के अनुसार विभिन्न तत्त्वों का पारस्परिक सामंजस्य कृति को गरिमापूर्ण बनाता है। जैसे शरीर के विभिन्न अवयवों के स्वतंत्र रहने पर कोई महत्त्व नहीं है, सबसे मिलने पर ही सम्पूर्ण शरीर की रचना सम्भव होती है, उसी प्रकार समस्त तत्त्वों के संयोग द्वारा ही गरिमामय कृति की रचना होती है। रचना के सभी तत्त्व मिलकर जब सामंजस्य की श्रृंखला में बँध जाते हैं, तभी उन में उदात्त आता है। अन्यथा वह बिखर जाता है।

कभी-कभी रचना-तत्त्वों का सामंजस्य उस क्षति की आपूर्ति कर देता है, जो रचना के किसी विशेष तत्त्व-दोष से उत्पन्न होती है और इस प्रकार यह सामंजस्य उदात्त-प्रभाव को अक्षुण्ण बनाये रखता है। अतः गरिमामय एवं भव्य रचना-विधान भी उदात्त-सृजन का पोषक है।

उदात्त के विरोधी तत्त्व

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लोंजाइनस ने उदात्त के विरोधी तत्त्वों पर भी विचार किया है। उन्होंने बालेयता, असंयत वाग्विस्तार, अस्त-व्यस्त पद-रचना, हीन अर्थ वाले शब्द, भावाडम्बर और शब्दाडम्बर, अवांछित संक्षिप्तता, अनावश्यक साज-सज्जा, संगीत व लय पर अत्यधिक बल आदि को उदात्त का विरोधी तत्त्व माना है। अतः श्रेष्ठ कवि को अपनी रचना में इन्हें स्थान नहीं देना चाहिए।

यह शैली का भारी दोष है। ‘बालेय’ का शाब्दिक अर्थ है ‘बचकाना’। बच्चों में जैसे चपलता, संयमहीनता, हल्कापन और क्षुद्रता पाई जाती है, वैसे ही बालेयता का दोष उस शैली में माना जाएगा। जिसमें बिना संयम के वाग्स्फीति की जाए, क्षुद्र अर्थ द्योतक शब्दों का प्रयोग हो और चंचल या अस्थिर पद-विन्यास पाया जाए। इसमें शैली कृत्रिम हो जाती है। लोंजाइनस के अनुसार-

"Slips of this sort are made by those who aiming at brilliancy, polish and especially attractiveness."

वागाडम्बर

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भाव की गरिमा के अभाव में अलंकृत और भारी शब्दों का प्रयोग। जैसे गृद्ध जैसे छोटे पदार्थ के लिए ‘जीवित समाधि’ शब्द का प्रयोग। वागाडम्बर उदात्त अतिक्रमण के प्रयास से उत्पन्न होता है।

भावाडम्बर

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जहाँ लेखक मद्यप की भाँति आचरण कर प्रायः अनपेक्षित, निरर्थक और असंगत आवेग की अभिव्यक्ति करता है अर्थात् जहाँ आवेग के नियंत्रण की आवश्यकता होने पर भी आवेग की अभिव्यक्ति की जाए। आवेग की अभिव्यक्ति भावाडम्बर को जन्म देती है और उदात्त का ह्रास करती है।

शब्दाडम्बर

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लोगों को प्रभावित करने के मोह में अतिशयोक्तिपूर्ण कथन ही शब्दाडम्बर है। हिन्दी में बिहारी के ऊहात्मक दोहे इसी दोष से ग्रस्त हैं। उदाहरणार्थ, लोंजाइनस का मत है कि स्त्री के लिए चक्षु-दंश अथवा ‘चक्षु-फोडक’ और ‘पुतली’ के लिए ‘आँख की कुमारी’ आदि शब्दों का प्रयोग मात्र शब्दाडम्बर है, भाषा का अलंकार नहीं है।

उदात्त और परवर्ती समीक्षक

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परवर्ती समीक्षकों में हीगेल ने उदात्त के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए उसकी तुलना सौन्दर्य से की है। उसके मतानुसार सौन्दर्य का अर्थ है सामंजस्य। सौन्दर्य में वस्तु और कला पक्ष का सामंजस्य रहता है। उदात्त की स्थिति सुन्दर से भिन्न है। उदात्त वह है जहाँ उसका भाव उसके रूप की अपेक्षा अधिक प्रशस्त और विलष्ट होता है। हीगेल यह भी मानते हैं कि उदात्त के मूल में विचारों की उत्कृष्टता है और विचारों की महत्ता व्यक्ति के उच्च चरित्र से जन्म पाती है। व्यक्ति का चरित्र महान है तो उसके विचार भी महान होंगे।

एडमंड बर्क ने लोंजाइनस द्वारा विवेचित प्रतिभा-प्रसूत कल्पना तथा विचार भावना आदि की विशालता के आधार पर उदात्त के स्वरूप की स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस वस्तु या रचना में प्रभावित करने की शक्ति है और जो अपने अभिनव प्रभाव से प्रेक्षक को चकित कर सकती है, वहीं उदात्ततव्य समझना चाहिए।

उदात्त-तत्त्व की रचना का उदाहरण हम पिरामिड तथा रामचरित्र-मानस के सुन्दर काण्ड में प्रस्तुत हनुमान के विराट रूप, महाभारत में कृष्ण के विराट रूप आदि को ले सकते हैं। बर्क ने उदात्त-तत्त्व पदार्थों के अतिरिक्त ध्वनि के भीतर भी स्वीकार किया है, जैसे भारी आँधी, विशाल प्रपात, बिजली की गरज, तोपों की गर्जना में भी उदात्त-तत्त्व रहता है। वस्तुतः सौन्दर्य की अपेक्षा अक्खड़पन उदात्त से अधिक निकट हैं।

उदात्त का प्रभाव

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कवि-कर्म के रूप में आनन्द की प्रतिष्ठा लोंजाइनस की ऐसी देन है जो एक ओर उन्हें होरेस जैसे अलंकार-शास्त्री से और दूसरी ओर अरस्तू जैसे काव्य-शास्त्री से भिन्न करती है। अरस्तू का विरेचन एक प्रकार का उपचार है, जिसकी परिकल्पना विशेषकर त्रासदी के संदर्भ में की गई है, जबकि लोंजाइनस का ‘आनन्द’ एक उपलब्धि है, जिसका पोषक आधार महाकाव्य त्रासदी, प्रगीत आदि सभी तक विस्तृत हैं। वस्तुतः उदात्त का विवेचन और विश्लेषण लोंजाइनस के ‘पेरि इप्सुस’ मे सर्वाधिक रूप में हुआ है।

उदात्त सिद्धान्त और भारतीय काव्यशास्त्र

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लोंजाइनस का उदात्त सिद्धान्त पाश्चात्य समीक्षा की देन है। उनका ‘उदात्त’ जीवन के अर्जित पक्ष की अभिव्यक्ति हैं, मधुर पक्ष के लिए उसमें कोई स्थान नहीं है। अतः जीवन के आधे पक्ष का विवेचन करने के कारण उनका शास्त्र अधूरा है। भारतीय काव्यशास्त्र की पूर्णता उसमें कहाँ, जिसमें ओज के साथ माधुर्य गुण भी है। एक ओर वीर और अद्भुत रस है तो दूसरी ओर शृंगार और हास्य रस हैं। वह सम्पूर्ण मानव की कृति है। लोंजाइनस की धारणा में इस एकांगिता का कारण यह है कि उसने अपने ग्रन्थ की रचना भाषण-शास्त्र (Rhetoric) के रूप में की थी, काव्यशास्त्र के रूप में नहीं। इसीलिए सफल भाषण के लिए महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का ही निर्वचन इसमें मिलता है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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