अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में, किसी देश द्वारा दूसरे देशों की जनता से संवाद स्थापित करना और उनमें अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं राजनैतिक आदर्शों को फैलाना लोक राजनय या सार्वजनिक राजनय (पब्लिक डिप्लोमैसी) कहलाता है। इस प्रकार के प्रयासों का लक्ष्य विदेशी जनता को सूचित करना तथा अपने पक्ष में करना होता है। २०वीं शताब्दी में अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों के बदल जाने के बाद सार्वजनिक राजनय का स्वरूप भी बदल गया है। सार्वजनिक राजनय के लिए अनेक तरीके अपनाए जाते हैं, जैसे व्यक्तिगत सम्पर्क, मिडिया में साक्षात्कार, इन्टरनेट तथा शैक्षिक आदान-प्रदान आदि।

प्रजातन्त्रात्मक भावना का विकास जब देशों में हुआ तो उसके अनुसार राजनीतिक परिवर्तन भी हुये। राजसत्ता का बास जब जनता में माना जाने लगा तब शासन का पूरा रूप ही बदल गया। देश-देश में उत्तरदायी शासन की स्थापना प्रारम्भ हुई। प्रजातंत्रों की स्थापना से उनके राजनय की प्रक्रिया भी प्रजातंत्रात्मक होने लगी। विदेशों में भेजा जाने वाला राजदूत अब राजा या राज्याध्यक्ष का व्यक्तिगत प्रतिनिधि न रहा। वह उस देश की जनता का प्रतिनिधि माना जाने लगा। निरंकुश राजतंत्रा में राजदूत केवल राजा के प्रति वफादार रहता था, उसकी इच्छा पर उसकी नियुक्ति या पदच्युति होती थी। लेकिन प्रजातंत्रात्मक शासन में जनता के प्रतिनिधि ही उसे चुनते हैं या पदच्युत करते हैं। वह जनता की भावना का आदर करता है। अप्रत्यक्ष रूप से जनता के प्रति उत्तरदायी होता है।

प्रतातंत्रात्मक देशों के राजदूत अन्य राज्यों में अपने मंत्रिमण्डल का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन पर प्रत्यक्षतः विदेश मंत्री का नियंत्रण रहता है। विदेश मंत्री संसद के प्रति उत्तरदायी होता है और संसद जनता की प्रतिनिधि होने के कारण जनता की इच्छा के प्रति उत्तरदायी होती है। प्रो. निकलसन प्रजातंत्रात्मक राजनय में उत्तरदायित्व के इस क्रम का वर्णन करते हुए कहते हैं कि

राजनयज्ञ चूँकि एक नागरिक सेवक होता है, वह विदेश मंत्री के प्रति उत्तरदायी होता है, विदेश मंत्री चूँकि मंत्रिमण्डल का सदस्य होता है अतः वह संसद के बहुमत दल के प्रति उत्तरदायी होता है और चूँकि संसद जनप्रतिनिधियों की एक सभा होती है अतः वह जनता जो प्रभुत्ता प्राप्त होती है, उसकी इच्छा के प्रति उत्तरदायी होती है।

इन्हें भी देखें

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