विकार - उल - मुल्क (मुश्ताक़ हुसैन) संपादित करें

मुश्ताक़ हुसैन (1841-1917)

मुश्ताक़ हुसैन का जन्म 24 मार्च 1841 को मेरठ में हुआ था। इन्होनें रूड़की से इंजीनिरिंग और फिर कानून की पढाई की। वे काफी दिनों तक अलीगढ यूनिवर्सिटी के अवैतनिक सचिव रहे। वे दिसंबर 1906 में मुस्लिम लीग के संस्थापक सदस्य रहे। 1908 में ब्रिटिश सर्कार नें उन्हें नवाब की उपाधि दी थी। इनकी मृत्यु 27 जनवरी 1917 को हुई।


मुस्लिम लीग तथा अंग्रेज संपादित करें

लार्ड मिंटो द्वारा मुस्लिम संगठनों को काफी प्रशय दिया गया। इसके पूर्व में सैयद अहमद खाँ ने भारतीय मुसलमानों को अंग्रेजों के प्रति भक्ति दिखाने और कांग्रेस से दूर रहने की सलाह दी थी। 1906 में इन बातों का नतीजा हुआ मुस्लिम लीग का जन्म। इसके पूर्व 1905 के बंगाल विभाजन से अंग्रेजों पर काफी दवाब पड़ा था और वे मुस्लिम समुदाय में एक नया मित्र पाकर खुश हुए और 1909 के कानून में उन्होंने मुसलमानों को अलग मताधिकार का तोहफा देकर हिन्दू और मुसलमानों में स्थायी बीज बोने का काम किया।

मुस्लिम प्रतिनिधि मंडल द्वारा शिमला में लार्ड मिंटो से मिलने के बाद अखिल भारतीय मुस्लिम लीग द्वारा ढाका में आयोजित सम्मलेन में वक़ार उल मुल्क द्वारा दिया गया भाषण एक स्वाभाविक परिणति थी। लॉर्ड मिंटो द्वारा दिखाई गयी सदाशयता एवं सहानभूति ने मुसलमानों को संगठित होने के लिए प्रोत्साहित किया। जिससे वे ब्रिटिश शाशकों से अधिकतम लाभ हासिल कर सकें। सर सैय्यद अहमद खां ने भारतीय मुसलमानों के लिए पहले ही कर्त्तव्य निर्धारित कर दिया था। ब्रिटिश शाशकों के प्रति स्वामिभक्ति दिखायें तथा कांग्रेस से दूर रहें। मुस्लिम लीग के उद्धघाटन सत्र में अध्यक्ष ने इसी नीति की पुष्टि की। मुस्लिम लीग के उद्देश्यों को निर्धारित करते हुए तीन प्रस्ताव पारित गए।

  • भारतीय मुसलमानों के बीच ब्रिटिश राज के प्रति स्वामिभक्ति
  • मुसलमानों के रकनीतिक हितों की रक्षा और उसे आगे बढ़ाना
  • और अंत में बिना इन चीजों के प्रति कोई पूर्वाग्रह दिखाए भारत के समुदायों के बीच शत्रुतापूर्ण भावना को बढ़ाने से रोकना।

उस समय ब्रिटिश सरकार साँसत में थी। कर्जन ने समस्याओं का पहाड़ खड़ा कर दिया था। मिंटो को इससे निबटना था। 1905 के बंगाल विभाजन के बाद जनता में गुस्से की लहर फैल गयी थी और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया था। 1857 के बाद ये ब्रिटिश सत्ता के सामने बड़ी चुनौती थी। इसने बहिष्कार और स्वदेशी का रूप ले लिया था। गाँधी जी ने बाद में बड़े स्तर पर इसका उपयोग किया। इसके साथ साथ क्रांतिकारी आंदोलन भी चल रहे थे। इसके अलावे 24 दिसम्बरए 1906 को कलकत्ता मैं आयोजित कांग्रेस सम्म्मेलन में दादाभाई नौरोजी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में 20 वर्ष के कांग्रेस अस्तित्व में आने के बाद पहली बार कांग्रेस का लक्ष्य स्वराज की घोषणा की। इससे ब्रिटिश शासन के लिए और भी चिन्ता पैदा कर दी। उन्हें मित्र चाहिए था और भारतीय मुसलमानों ने उन्हें उनकी अपेक्षा से ज्यादा मदद कर दी। बदले में मुसलमानों को 1909 के कानून के रूप में अलग मतदाता होने का अधिकार मिलगया। इस कानून ने हिन्दू मुसलमानों के बीच स्थायी खाई पैदा कर दी।

मुस्लिम लीग के ढाका में आयोजित सम्मलेन में दिया गया मुश्ताक़ हुसैन का भाषण संपादित करें

सज्जनो! आज जिस बात के लिए आये हैं एउसकी आवश्यक्ता हम महसूस करते रहे हैं। जब भारत में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी, उस समय हमें ऐसी आवश्यक्ता महसूस हुई थी। सर सैयद अहमद खाँ जिसकी दूरद्रष्टि एवं राजनेता वाले गुण के सभी कायल हैं। उन्होंने भी मुसलमानों को समझाने का प्रयास किया था की उनका भविष्य, सुरक्षा एवं समृद्धि कांग्रेस से अलग रहने मैं ही निहित है। हालाँकि सर सैयद अहमद खान हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अभी तक वह यह बात सही साबित नहीं हुई है। ज्यों.ज्यों समय बीत रहा है ए मुसलमानों के बीच यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है की अपने राजनितिक हितों की रक्षा एवं उन्हें आगे बढ़ाने के लिए उन्हें अपना अलग संगठन बनाना होगा। पांच वर्ष पहले अक्टूबर 1901 में बिभिन्न प्रदेशों के कुछ मुसलमान लखनऊ मैं जमा हुए और इस पर गहराई से विचार विमर्श कर वे इस निर्णय पर पहुंचे की इस तरह के संगठन का समय आ गया है। इसके बाद संयुक्त प्रान्त में इस तरह की संस्था के गठन की प्रक्रिया चल रही थी। बंगाल में हो रही नयी घटनाओं एवं राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभावों के साथ साथ सरकार द्वारा विधानसभा में प्रतिनिधिओं की संख्या बढ़ाने की इच्छा को देखते हुए एक समुदाय के रूप में मुसलमानों ने पिछले अक्टूबर में शिमला में महामहिम (वाइसराय) के पास एक प्रतिनिधिमंडल मिलने के लिए भेजा। उन्होंने महामहिम के सामने अपनी आवश्यकताओं एवं कठिनाइओं का जिक्र किया। प्रतिनिधिमंडल का महामहिम से मिलना एवं महामहिम द्वारा दिए गए उत्तर के बारे में अख़बारों में विस्तार से चर्चा हुई है अब मैं उस पर कोई ज्यादा बातें नहीं बोलना चाहता हूँ। आज जो काम मेरे हाथ मैं है उसे आगे बढ़ाने के पहले मैं यह कहना आवश्यक समझता हूँ कि ब्रिटिश प्रशासन का सामान्य सिद्धांत जो भी हो और ब्रिटिश राष्ट्र की कृपा से भारतीय प्रजा के लिए जो भी अधिकार दिए गए हों, एक हाल के शासक होने के नाते हम अपनी परम्पराओं को नहीं भूले हैं और हम लोग प्रजा और राजा के बीच के संबंधों से पूरी तरह परिचित हैं। हमें यह स्वीकार करना चाहिए की प्रजा का अधिकार राजा के प्रति स्वामिभक्ति से ही फूलता फलता है अतः मुसलमानों को अपना अधिकार मांगने के पहले सरकार के प्रति स्वामिभक्ति का परिचय देना चाहिए। भारत की पूरी जनसंख्या में 5वां हिस्सा मुसलमानों का है और जैसा की दिखाई पड़ता है कि अगर ब्रिटिश सत्ता लम्बे समय के बाद समाप्त हो जाती है तो भारत की सत्ता हमसे जनसंख्या में चार गुणा ज्यादावाले समुदाय के हाथ में चली जाएगी।

सज्जनों! आप में से प्रत्येक कल्पना करें की उस समय आपकी स्तिथि क्या होगी। उस समय हमारी ज़िंदगी, संपत्ति, सम्मान एवं आस्था सभी के लिए खतरा उत्पन्न हो जायेगा। अभी जब शक्तिशाली ब्रिटिश प्रशासन अपनी प्रजा की हिफाजत कर रहा है, उस समय भी हम मुसलमानों को अपने पड़ोसिओं द्वारा अपने हितों को नुकसान पहुंचाएं जाने से बचाने के लिए गंभीर कठिनाइओं का सामना करना पड़ रहा है। किसी जिले या प्रांतों में इस तरह की घटनाएं आम हैं। अब आप कल्पना कीजिये जब आप अपने पड़ोसिओं की प्रजा हो जायेंगे उस समय आपको और अंग्रेज के वास्तविक या काल्पनिक पापों का जवाब देना पड़ेगा। जिसकी मृत्यु दो शताब्दी पूर्व हो गयी। आपको उनके पापों का भी जवाब देना होगा जो मुसलमान विजेता औरंगजेब के पहले ही मर चुके हैं। मैं अपने पड़ोसिओं की दुष्टतापूर्वक भावनाओं के बारे में सोचनेवाला अंतिम व्यक्ति होऊंगा। मुझे यह कहने में कहने में कोई संकोच नहीं है कि कांग्रेस नेताओं को ब्रिटिश सरकार या जाती के खिलाफ उनके समंर्थकों में बढ़ रहें शत्रुतापूर्ण व्यवहार को जल्दी से जल्दी दबाने का गंभीर प्रयास करना चाहिए नहीं तो आज जो खुलेआम कहा जा रहा है वो कल देशद्रोह के रूप में आम घटनाएं बन जाएँगी और तब भारत के मुसलमानों को इस विद्रोह को सरकार के साथ मिलकर मुकाबला करने के कर्त्तव्य के लिए बुलाया जायेगा। हमारा अपने पड़ोसिओं के प्रति यह कर्त्तव्य है कि जब तक हम उन्हें समझा सकते हैं और इस गलत रास्ते पर जाने से रोक सकते हैं, यह कार्य हमें करते रहना चाहिए। एक पड़ोसी की हैसियत से यह हमारा कर्त्तव्य है हम अपने पड़ोसिओं के साथ अच्छाई और सम्मान के साथ पेश आएं और अपने वैध अधिकारों एवं हितों की हिफाजत करते हुए बिना किसी पूर्वाग्रह के उनके साथ सामाजिक समागम जारी रखें। हम उनके साथ सहानुभूति सम्बन्ध रखने के साथ .साथ सभी तरह के शत्रुतापूर्ण रुख का परित्याग करें। सज्जनों! मैं आगे बढ़कर कहना चाहता हूँ कि कांग्रेस और उनके समर्थकों के साथ हमारा कोई मतभेद या असहमति नहीं है बल्कि उन्होंने समान हितों के लिए जो अधिकार हासिल किये हैं उसका लाभ हमें भी मिला है हम इस बात के लिए उन्हें धन्यवाद देते है। आज या भविष्य में हमारे और उनके बीच जिन-जिन बातों पर असहमति है वे उन मांगों से सम्बंधित है जिससे ब्रिटिश सत्ता के लिए भारत में खतरा पैदा हो सकता है या वहाँ प्रजा द्वारा सत्ता के प्रति नरम रुख या रखने के साथ जुड़ा हो सकता है। अतः मैं कहना चाहता हूँ जो मुस्लमान यहाँ संगठन बनाने के लिए इक्कठे हुए हैं उनके राजनितिक संगठन का मुख्य चरित्र नरम एवं सत्ता के सम्मान पर आधारित होना चाहिए।

सन्दर्भ संपादित करें

[1]

  1. डॉ फणीश, सिंह (२०१७). स्वतंत्रता संघर्ष और भारत की संरचना (१८८३- १९८४ के ७५ भाषणों में ) (प्रथम् संस्करण). दिल्ली: वाणी प्रकाशन. पृ॰ ७७-८१. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ ९७८-९३-५२२९-६६४-४ |isbn= के मान की जाँच करें: invalid character (मदद). |pages= और |page= के एक से अधिक मान दिए गए हैं (मदद)