निजी अंतरराष्ट्रीय कानून

(विधियों में विरोध से अनुप्रेषित)

न्याय व्यवस्था में विधियों में विरोध (Conflict of laws) या निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून (Private international law) वह नियम या कानून होते हैं जिनका प्रयोग कोई आधिकारिता (किसी क्षेत्र या विषय में न्याय करने का अधिकार रखने वाली संस्था) तब करती है जब कोई मामला एक से अधिक आधिकारिताओं से सम्बन्धित हो। अर्थात इनका प्रयोग राज्य द्वारा ऐसे विवादों का निर्णय करने के लिए होता है जिनमें कोई विदेशी तत्व होता है। इन नियमों का प्रयोग इस प्रकार के वाद विषयों के निर्णय में होता है जिनका प्रभाव किसी ऐसे तथ्य, घटना अथवा संव्यवहार पर पड़ता है जो किसी अन्य देशीय विधि प्रणाली से इस प्रकार संबद्ध है कि उस प्रणाली का अवलंबन आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के अगर एक देश का कोई व्यक्ति किसी अन्य देश से किसी व्यक्ति से कुछ खरीदता है और उनमें इस लेनदेन को लेकर मतभेद होता है, तो प्रश्न उठता है कि इसका निर्णय कैसे करा जाएगा, क्योंकि दोनों देशों के कानून भिन्न होते हैं।[1][2][3]

सार्वजनिक अंतर्राष्ट्रीय कानून से तुलना

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"निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून" नाम से ऐसा बोध होता है कि यह विषय अंतर्राष्ट्रीय कानून की ही शाखा है। परंतु वस्तुतः ऐसा है नहीं। निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून और सार्वजनिक अंतर्राष्ट्रीय कानून (Public international law) में किसी प्रकार की पारस्परिकता नहीं है।

रोमन साम्राज्य में वे सभी परिस्थितियाँ विद्यमान थीं जिनमें अंतर्राष्ट्रीय कानून की आवश्यकता पड़ती है। परंतु पुस्तकों से इस बात का पूरा आभास नहीं मिलता कि रोम-विधि-प्रणाली में उनका किस प्रकार निर्वाह हुआ। रोम राज्य के पतन के पश्चात् स्वीय विधि (पर्सनल लॉ) का युग आया जो प्रायः 10वीं शताब्दी के अंत तक रहा। तदुपरांत पृथक प्रादेशिक विधि प्रणाली का जन्म हुआ। 13वीं शताब्दी में निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून को निश्चित रूपरेखा देने के लिए आवश्यक नियम बनाने का भरपूर प्रयत्न इटली में हुआ। 16वीं शताब्दी के फ्रांसीसी न्यायज्ञों ने संविधि सिद्धांत (स्टैच्यूट-थ्योरी) का प्रतिपादन किया और प्रत्येक विधि नियम में उसका प्रयोग किया। वर्तमान युग में निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून तीन प्रमुख प्रणालियों में विभक्त हो गया-

  • संविधि प्रणाली (स्टैच्यूट सिस्टम),
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली, तथा
  • प्रादेशिक प्रणाली।

निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून इस तत्व पर आधारित है कि संसार में अलग-अलग अनेक विधि प्रणालियाँ हैं जो जीवन के विभिन्न विधि संबंधों को विनियमित करने वाले नियमों के विषय में एक-दूसरे से अधिकांशतः भिन्न हैं। यद्यपि यह ठीक है कि अपने निजी देश में प्रत्येक शासक संपूर्ण-प्रभुत्व-संपन्न है और देश के प्रत्येक व्यक्ति तथा वस्तु पर उसका अनन्य क्षेत्राधिकार है, फिर भी सभ्यता के वर्तमान युग में व्यावहारिक दृष्टि से यह संभव नहीं है कि अन्यदेशीय कानूनों की अवहेलना की जा सके। बहुधा ऐसे अवसर आते हैं जब एक क्षेत्राधिकार के न्यायालय को दूसरे देश की न्याय प्रणाली का अवलंबन करना अनिवार्य हो जाता है, जिसमें अन्याय न होने पाए तथा निहित अधिकारों की रक्षा हो सके।

अन्यदेशीय कानून तथा विदेशी तत्व–निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून के प्रयोजन के लिए अन्यदेशीय कानून से तात्पर्य किसी भी ऐसे भौगोलिक क्षेत्र की न्याय प्रणाली से है जिसकी सीमा के बाहर उस क्षेत्र का स्थानीय कानून प्रयोग में नहीं लाया जा सकता। यह स्पष्ट है कि अन्यदेशीय कानून की उपेक्षा से न्याय का उद्देश्य अपूर्ण रह जाएगा। उदाहरणार्थ, जब किसी देश में विधि द्वारा प्राप्त अधिकार का विवाद दूसरे देश के न्यायालय में प्रस्तुत होता है तब वादी को रक्षा प्रदान करने के पूर्व न्यायालय के लिए यह जानना नितांत आवश्यक होता है कि अमुक अधिकार किस प्रकार का है। यह तभी जाना जा सकता है जब न्यायालय उस देश की न्याय प्रणाली का परीक्षण करे जिसके अंतर्गत वह अधिकार प्राप्त हुआ है।

विवादों में विदेशी तत्व अनेक रूपों में प्रकट होते हैं। कुछ दृष्टांत इस प्रकार हैं:

  • जब विभिन्न पक्षों में से कोई पक्ष अन्य राष्ट्र का हो अथवा उसकी नागरिकता विदेशी हो;
  • जब कोई व्यवसायी किसी एक देश में दिवालिया करार दिया जाए और उसके ऋणदाता अन्याय देशों में हो;
  • जब वाद किसी ऐसी संपत्ति के विषय में हो जो उस न्यायालय के प्रदेशीय क्षेत्राधिकार में न होकर अन्याय देशों में स्थित ह।

निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून प्रत्येक देश में अलग-अलग होता है। उदाहरणार्थ, फ्रांस और इंग्लैंड के निजी अंतरराष्ट्रीय कानूनों में अनेक स्थलों पर विरोध मिलता है। इसी प्रकार अंग्रेजी और अमरीकी नियम बहुत कुछ समान होते हुए भी अनेक विषयों में एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। उपर्युक्त बातों के अतिरिक्त विवाह संबंधी प्रश्नों में प्रयोज्य विभिन्न न्याय प्रणालियों के सिद्धांतों में इतनी अधिक विषमता है कि जो स्त्री-पुरुष एक प्रदेश में विवाहित समझे जाते हैं, वही दूसरे प्रदेश में अविवाहित।

इस विषमता को दो प्रकार से दूर किया जा सकता है। पहला उपाय यह है कि विभिन्न देशों की विधि प्रणालियों में यथासंभव समरूपता स्थापित की जाए; दूसरा यह कि निजी अंतरराष्ट्रीय कानून का एकीकरण हो। इस दिशा में अनेक प्रयत्न हुए परंतु विशेष सफलता नहीं मिल सकी। सन् 1893, 1894, 1900 और 1904 ई. में हेग नगर में इसके निमित्त कई सम्मेलन हुए और छह विभिन्न अभिसमयों द्वारा विवाह, विवाह-विच्छेद, अभिभावक, निषेध, व्यवहार-प्रक्रिया आदि के संबंध में नियम बनाए गए। इसी प्रयोजन-पूर्ति के लिए विभिन्न राज्यों में व्यक्तिगत अभिसमय भी संपादित हुए। निजी अंतर्राष्ट्रीय कानून के एकीकरण की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का योग विशेष महत्वपूर्ण है।

इन्हें भी देखें

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  1. Hay, Peter; Borchers, Patrick J.; Symeonides, Symeon C. (2010). Conflict of Laws (Fifth संस्करण). St. Paul, Minn.: West.
  2. McClean, David; Beevers, Kisch (2009). The Conflict of Laws (Seventh संस्करण). London: Sweet & Maxwell.
  3. Calliess, Gralf-Peter (2010). The Rome Regulations: Commentary on the European Rules of the Conflict of Laws. Kluwer.