विवर्त
विवर्त जैनेंद्र की छठीं औपन्यासिक कृति है जिसका प्रकाशन सन् 1953 में हुआ। प्रारंभ में यह उपन्यास 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के कथानक का केंद्र जितेन का चरित्र है। उसकी सामान्य पारिवारिक स्थिति से कथा का व्यावहारिक आरंभ होता है। उसकी असाधारण प्रसिद्धि आदि बताकर लेखक कथा-विकास का भावी मार्ग खोलता है। भुवनमोहिनी के कथानक में प्रवेश से उसमें गति आती है परंतु जब भुवनमोहिनी जितेन से विवाह न करके नरेशचंद्र की पत्नी बन जाती है तब कथा की समस्या का अंत हो जाता है। उसका असफल प्रेम उसे क्रांतिकारी दल में सम्मिलित हो जाने की प्रेरणा देता है। चार वर्ष के बाद जितेन का आना, शरण पाना, भुवनमोहिनी के गहने चुरा कर भागना, उसके दलवालों का भुवनमोहिनी को पकड़ ले जाना, जितेन का पुलिस को समर्पण आदि नाटकीयतापूर्ण घटनाएँ क्रमशः घटित होने लगती हैं। उसका अंत भी इन्हीं के जाल में बँधकर आकस्मिक रूप से होता है और पाठक के ह्रदय पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाता।