आन्वीक्षिकी, ( = अनु + ईक्षा + इक + ई प्रत्यय) न्यायशास्त्र का प्राचीन अभिधान। प्राचीन काल में आन्वीक्षिकी, विचारशास्त्र या दर्शन की सामान्य संज्ञा थी और यह त्रयी (वेदत्रयी), वार्ता (अर्थशास्त्र), दण्डनीति (राजनीति) के साथ चतुर्थ विद्या के रूप में प्रतिष्ठित थी (आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती। विद्या ह्येताश्चतस्रस्तु लोकसंसृतिहेतवः) जिसका उपयोग लोक के व्यवहार निर्वाह के लिए आवश्यक माना जाता था। कालान्तर में इस शब्द का प्रयोग केवल न्यायशास्त्र के लिए संकुचित कर दिया गया। वात्स्यायन के न्यायभाष्य के अनुसार अन्वीक्षा द्वारा प्रवृत्त होने के कारण ही इस विद्या की संज्ञा "आन्वीक्षिकी" पड़ गई।

आन्वीक्षिकी के सर्वाधिक महत्त्व को सर्वप्रथम चाणक्य ने प्रतिपादित किया है। उनका कहना है-

प्रदीपः सर्वविद्यानां उपायः सर्वकर्मणाम्।
आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वद् आन्वीक्षिकी मता॥
( अर्थ: आन्वीक्षिकी सभी विद्याओं की शाश्वत प्रदीप है, सभी कार्यों का शाश्वत साधन है, और सभी धर्मों का शाश्वत आश्रय है।)

'अन्वीक्षा' के दो अर्थ हैं :

  • (१) प्रत्यक्ष तथा आगम पर आश्रित अनुमान तथा
  • (२) प्रत्यक्ष और शब्दप्रमाण की सहायता से अवगत होनेवाले विषयों का अनु (पश्चात्‌) ईक्षण (पर्यालोचन, अर्थात्‌ ज्ञान), अर्थात्‌ अनुमिति।

न्यायशास्त्र का प्रधान लक्ष्य तो है प्रमाणों के द्वारा अर्थो का परीक्षण (प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः - न्यायभाष्य १.१.१), परन्तु इन प्रमाणों में भी अनुमान का महत्वपूर्ण स्थान है और इस अनुमान द्वारा प्रवृत्त होने के कारण तर्कप्रधान "आन्वीक्षिकी' का प्रयोग न्यायभाष्यकार वात्स्यायन मुनि ने न्यायदर्शन के लिए ही उपयुक्त माना है।

दूसरी धारा में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द, इन चार प्रमाणों का गम्भीर अध्ययन तथा विश्लेषण मुख्य उद्देश्य था। फलतः इस प्रणाली को "प्रमाणमीमांसात्मक' (एपिस्टोमोलाजिकल) कहते हैं। इसका प्रवर्तन गंगेश उपाध्याय (१२वीं शताब्दी) ने अपने प्रख्यात ग्रंथ "तत्वचिंतामणि' में किया। "प्राचीन न्याय' (प्रथम धारा) में पदार्थों की मीमांसा मुख्य विषय है, "नव्यन्याय' (द्वितीय धारा) में प्रमाणों का विश्लेषण मुख्य लक्ष्य है। नव्यन्याय का उदय मिथिला में हुआ, परंतु इसका अभ्युदय बंगाल में संपन्न हुआ। मध्ययुगीन बौद्ध तार्किकों के साथ घोर संघर्ष होने से खण्डन-मण्डन के द्वारा यह शास्त्र विकसित होता गया। प्राचीन न्याय के मुख्य आचार्य हैं गौतम, वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, जयन्त भट्ट, भा सर्वज्ञ तथा उदयनाचार्य। नव्यन्याय के आचार्य हैं गंगेश उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ, जगदीश भट्टाचार्य तथा गदाधर भट्टाचार्य। इन दोनों धाराओं में मध्य बौद्ध न्याय तथा जैन न्याय के अभ्युदय का काल आता है। बौद्ध नैयायिकों में वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति के नाम प्रमुख हैं।

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ ग्रन्थ संपादित करें

  • डॉ॰ विद्याभूषण : हिस्ट्री ऑव लाजिक, कलकत्ता, १९२५।