ओइनवार वंश
सुगौना वंश
[[कर्नाट वंश|]]
1325 ई. – 1556 ई. [[दरभंगा राज|]]
इतिहास
 - स्थापना 1325 ई.
 - अस्थापना 1556 ई.
वर्तमान भाग भारत और नेपाल

ओइनीवार राजवंश अथवा अनवार राजवंश भारतीय उपमहाद्वीप के मिथिला क्षेत्र में शासन करने वाला एक श्रृषिवंशी राजवंश था जिसे सुगौना राजवंश भी कहते हैं। उन्होंने 1325 ई. और 1556 ई. के बीच इस क्षेत्र पर शासन किया।[उद्धरण चाहिए] इस राजवंश से पहले इस क्षेत्र पर कर्नाट वंश का शासन था। मिथिला के कर्णाट वंशी अंतिम शासक हरिसिंह देव ने अपने योग्य मंत्री कामेश्वर ठाकुर को नवीन राजा नियुक्त किया और स्वयं नेपाल जाकर रहने लगे।

ओइनवार राजवंश का शासनकाल कला और संस्कृति के उत्कर्ष का काल था। इस राजवंश के अंत के बाद दरभंगा राज के राजवंश का उदय हुआ।

उत्पत्ति संपादित करें

ओइनवार वंश के शासकों ने 1325 ई. से 1556 ई. के बीच इस क्षेत्र पर शासन किया। वे भूमिहार थे , जिनका पहला महत्वपूर्ण व्यक्ति जयपति ठाकुर था। उनके पोते, नाथ ठाकुर ने कर्नाट वंश के राजाओं की सेवा की थी और ये ओइनी गाँव के निवासी थे। इस कारण इस राजवंश को 'ओइनवार' के नाम से जाने जाने लगा।[1] एक वैकल्पिक सिद्धांत है कि परिवार को आमतौर पर महत्वपूर्ण विद्वानों के रूप में माना जाता था और यह प्रतिष्ठा और इससे प्रभावित होने वाले प्रभाव के कारण उन्हें सोदरपुर गाँव भी देकर सम्मानित किया गया था, बाद में उन्हें श्रोत्रिय के नाम से भी जाना जाने लगा।[2]

1325 में, 1324 में कर्नाट वंश के पतन के बाद[1], नाथ ठाकुर के राजवंश में 20 से अधिक शासक शामिल थे।

राजधानी संपादित करें

राजवंशीय राजधानियों को अक्सर स्थानांतरित कर दिया जाता था। किसी अज्ञात समय में, इसे वर्तमान समस्तीपुर जिले के ओइनी से आधुनिक मधुबनी जिले के सुगौना गाँव में ले जाया गया, इस प्रकार शासकों को जन्म देने के कारण इसे सुगौना राजवंश के नाम से भी जाना जाता है। देव सिंह के शासनकाल में, और फिर गजरथपुर (जिसे शिवसिंहपुर के नाम से भी जाना जाता है) के दौरान, शिव सिंह के शासनकाल के दौरान इसे फिर से देवकुली ले जाया गया। जब बाद में 1416 ई. में मृत्यु हो गई, तो उनकी रानी ​​लखीमा ने 12 साल तक शासन किया और फिर उनके भाई पद्म सिंह, जो एक बार फिर राजधानी चले गए, उत्तराधिकारी बनें। पद्म का नाम, इसके संस्थापक के नाम पर, यह राजनगर के पास था और पिछली जगह से काफी दूर था। पद्म सिंह, जिन्होंने तीन साल तक शासन किया, उनकी पत्नी विश्वास देवी उत्तराधिकारी बनी, और उन्होंने भी एक नई राजधानी की स्थापना की, जो आज विसौली गाँव है।

सेना संपादित करें

ओइनवार वंश की सेना को राजा की शक्ति का मुख्य स्तंभ माना जाता था। सेना एक सेनापति की कमान के अधीन थी, जिसका सेना पर सीधा नियंत्रण था। सेना में पैदल सेना, घुड़सवार सेना, हाथी और रथ के साथ चार गुना संरचना थी। कवि, विद्यापति जिन्होंने ओइनवारों के दरबार में काम किया था, ने नोट किया कि सेना के कोर में राजपूत और ब्राह्मण शामिल थें और मोहरा में कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सुरसेना और पांचाल के व्यापारी शामिल थे।

राजा शिवसिंह के शासनकाल के दौरान एक मुस्लिम सुल्तान के साथ एक लड़ाई में, कमांडर सूरज, श्री साखो सनेही झा, पंडमल्ला सहित कई अलग-अलग योद्धाओं का उल्लेख किया गया था, जो धनुर्विद्या के विशेषज्ञ थे और राजदेव (राउत), जो एक अतुलनीय योद्धा माने जाते थे।

संस्कृति संपादित करें

राजधानियों के लगातार बढ़ने और नए गाँवों की स्थापना के परिणामस्वरूप राजवंश द्वारा वित्तपोषित नए बुनियादी ढांचे की एक श्रृंखला बनी, जो सड़क, मंदिर, तालाब और किलों जैसे रूपों को ले लिया। इसके अलावा शासक मैथिली संस्कृति के महत्वपूर्ण संरक्षक थें। उनके युग को मैथिली भाषा का प्रतीक कहा गया है, कवि विद्यापति के योगदान के साथ। जो विशेष रूप से उल्लेखनीय होने के कारण शिव सिंह के शासनकाल के दौरान फले-फूले थें। यह कर्नाट युग से एक महत्वपूर्ण बदलाव था, जिसके शासक सांस्कृतिक रूप से स्थिर थें।

सुगौना, हिंदू धर्म के भाषाई और दार्शनिक विकास का मूल बन गया।

अंत संपादित करें

ओइनवार शासकों में अंतिम महान राजा लक्ष्मीनाथ सिंह देव थे। इसके बाद राज दरभंगा का राजवंश उभरा।

प्रमुख शासक संपादित करें

  1. कामेश्वर ठाकुर- १३२५-१३५४ ई.। आरंभिक समय में राजधानी 'ओइनी' (अब 'बैनी') गाँव।
  2. भोगीश्वर (भोगेश्वर) ठाकुर - १३५४ ई. से १३६० ई. तक।
  3. ज्ञानेश्वर (गणेश्वर) ठाकुर - १३६०-१३७१ ई.
  4. कीर्तिसिंह देव - १४०२ ई. से १४१० ई. तक। इनके समय तक मिथिला राज्य विभाजित था। दूसरे भाग पर भवसिंह का शासन था।
  5. भवसिंह देव (भवेश) - १४१० ई., अल्पकाल। ये अविभाजित मिथिला के प्रथम ओइनवार शासक हुए। इस रूप में इनका शासन अल्पकाल के लिए ही रहा। इन्होंने अपने नामपर भवग्राम (वर्तमान मधुबनी जिले में) बसाया था। इनके समय में मिथिला के किंवदंती पुरुष बन चुके गोनू झा विद्यमान थे। महान् दार्शनिक गंगेश उपाध्याय भी इसी समय के रत्न थे।
  6. देव सिंह - (१४१०-१४१३ ई) इन्होंने ओइनी तथा भवग्राम को छोड़कर अपने नाम पर दरभंगा के निकट वाग्मती किनारे 'देवकुली' (देकुली) गाँव बसाकर वहाँ राजधानी स्थापित किया।
  7. शिव सिंह देव (विरुद 'रूपनारायण')- १४१३ से १४१६ ई तक। (मात्र ३ वर्ष ९ महीने)
 
मिथिला नरेश राजा शिव सिंह की तस्वीर

इन्होंने अपनी राजधानी 'देकुली' से हटाकर 'गजरथपुर'/गजाधरपुर/शिवसिंहपुर में स्थापित किया, जो दरभंगा से ४-५ मील दूर दक्षिण-पूर्व में है। दरभंगा में भी वाग्मती किनारे इन्होंने किला बनवाया था। उस स्थान को आज भी लोग किलाघाट कहते हैं। १४१६ ई.(पूर्वोक्त मत से १४०६ ई.) में जौनपुर के सुलतान इब्राहिम शाह की सेना गयास बेग के नेतृत्व में मिथिला पर टूट पड़ी थी। दूरदर्शी महाराज शिवसिंह ने अपने मित्रवत् कविवर विद्यापति के संरक्षण में अपने परिवार को नेपाल-तराई में स्थित राजबनौली के राजा पुरादित्य 'गिरिनारायण' के पास भेज दिया। स्वयं भीषण संग्राम में कूद पड़े। मिथिला की धरती खून से लाल हो गयी। शिवसिंह का कुछ पता नहीं चल पाया। उनकी प्रतीक्षा में १२ वर्ष तक लखिमा देवी येन-केन प्रकारेण शासन सँभालती रही।

  1. लखिमा रानी - १४१६ से १४२८ ई तक। अत्यन्त दुःखद समय के बावजूद कविवर विद्यापति के सहयोग से शासन-प्राप्ति एवं संचालन।
  2. पद्म सिंह - १४२८-१४३० ई.
  3. रानी विश्वास देवी - १४३०-१४४२ ई (राजधानी- विसौली)
  4. हरसिंह देव ( शिवसिंह तथा पद्म सिंह के चाचा) - १४४३ से १४४४ ई तक।
  5. नरसिंह देव - १४४४ से १४६० ई तक।
  6. धीर सिंह - १४६०-१४६२ ई। इनके बाद इनके भाई भैरव सिंह राजा हुए।
  7. भैरव सिंह - उपशासन धीर सिंह के समय से ही। मुख्य शासन संभवतः १४८० ई के लगभग से। (उपनाम - रूपनारायण। बाद में 'हरिनारायण' विरुद धारण किया।) इन्होंने अपनी राजधानी वर्तमान मधुबनी जिले के बछौर परगने के 'बरुआर' गाँव में स्थापित किया था। वहाँ अभी भी मिथिला में अति प्रसिद्ध 'रजोखर' तालाब है, जिसके बारे में मिथिला में लोकोक्ति प्रसिद्ध है :-
पोखरि रजोखरि और सब पोखरा। राजा शिवसिंह और सब छोकरा॥

इसके साथ ही कुछ-कुछ दूरी पर दो और तालाब है। साथ ही संभवतः उसी युग का विष्णु-मन्दिर है, जो लक्ष्मीनारायण-मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भारतीय मध्यकालीन शैली की विष्णु-मूर्ति है। इन्हीं महाराज (भैरव सिंह) के दरबार में सुप्रसिद्ध महामनीषी अभिनव वाचस्पति मिश्र तथा अनेक अन्य विद्वान् भी रहते थे।

  1. रामभद्रसिंह देव - १४८८ से १५१० ई तक। इन्होंने अपनी राजधानी पुनः अपने पूर्वज शिवसिंह देव की राजधानी से करीब २ मील पूरब में अपने नाम पर बसाये गये 'रामभद्र पुर' में स्थानान्तरित किया। अब इसके पास रेलवे स्टेशन है।
  2. लक्ष्मीनाथसिंह देव - १५१० से १५२६ ई तक। ये अपने पूर्वजों की तरह ही वीर थे।
  3. कामनारायण सिंहदेव - १५२६ से १५५६ ई तक।

संदर्भ संपादित करें

  1. Jha, Makhan (1997). Anthropology of Ancient Hindu Kingdoms: A Study in Civilizational Perspective. M.D. Publications Pvt. Ltd. पपृ॰ 52–53. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788175330344. मूल से 31 मार्च 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 सितंबर 2019.
  2. Jha, Makhan (1997). Anthropology of Ancient Hindu Kingdoms: A Study in Civilizational Perspective. M.D. Publications Pvt. Ltd. पपृ॰ 155–157. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788175330344. मूल से 31 मार्च 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 सितंबर 2019.