क़ाफ़िया

कुलदीप बिश्नोई

क़ाफ़िया किसी शेर में रदीफ़ से पहले आने वाले तुकांत को कहा जाता है। किसी भी ग़ज़ल के लिए सबसे महत्वपूर्ण बातों में से एक है। ग़ज़ल के हर शेर के दूसरे मिसरे में क़ाफ़िया होना आव्य्श्यक है जबकि पहले शेर के दोनों मिसरों में इसका होना आव्य्श्यक है।

जब भी कोई शेर कहना चाहता है तो उसके लिए सबसे ज़रूरी चीज़ होती है क़ाफ़िया, रदीफ़ और छंद। क़ाफ़िया किसी भी मिसरे या पंक्ति में रदीफ़ के ठीक पहले आता है।[1] रदीफ़ हर शेर के दूसरे मिसरे में बार-बार आने वाले शब्द या शब्दों के समूह को कहा जाता है जबकि क़ाफ़िया उसके ठीक पहले आने वाले शब्द के तुकांत से समझा जा सकता है। शकेब जलाली के इस शेर से समझते हैं-

आ के पत्थर तो मिरे सहन में दो चार गिरे,

जितने उस पेड़ के फल थे पस-ए-दीवार गिरे

इस शेर में 'गिरे' रदीफ़ है और उसके पहले आने वाले 'चार' और 'दीवार' क़ाफ़िया हैं।

किसी ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहा जाता है और मतले की पहली दो लाइनों में क़ाफ़िया मिलाना ज़रूरी होता है। बाक़ी के सभी शेर के आख़िरी लाइन में क़ाफ़िया मिलाना ज़रूरी है। किसी भी ग़ज़ल को कहने के लिए रदीफ़ एक बार मिल जाए तो बस मिल जाए लेकिन मुश्किल आती है क़ाफ़िए ढूंढने में, कई बार किसी शेर को मुकम्मल करने के लिए क़ाफ़िया बिठाना पेंचीदगी का काम होता है।