जैन धर्म का इतिहास

प्राचीन धर्म

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला प्राचीन धर्म और दर्शन है। जैन अर्थात् कर्मों का नाश करनेवाले 'जिन भगवान' के अनुयायी। सिन्धु घाटी से मिले जैन अवशेष जैन धर्म को सबसे प्राचीन धर्म का दर्जा देते है।[1]

उदयगिरि की रानी गुम्फा

सम्मेत्त शिखर, राजगिर, पावापुरी, गिरनार, शत्रुंजय, श्रवणबेलगोला आदि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। पर्यूषण पर्व या दशलाक्षणी, और श्रुत पंचमी इनके मुख्य त्यौहार हैं। अहमदाबाद, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बंगाल राजस्थानआदि के अनेक जैन आजकल भारत के अग्रगण्य उद्योगपति और व्यापारियों में गिने जाते हैं।

जैन धर्म का उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है। जैन ग्रंथो के अनुसार धर्म वस्तु का स्वाभाव समझाता है, इसलिए जब से सृष्टि है तब से धर्म है, और जब तक सृष्टि है, तब तक धर्म रहेगा, अर्थात् जैन धर्म सदा से अस्तित्व में था और सदा रहेगा। इतिहासकारो द्वारा [2][3][4][5][6] जैन धर्म का मूल भी सिंधु घाटी सभ्यता से जोड़ा जाता है जो हिन्द आर्य प्रवास से पूर्व की देशी आध्यात्मिकता को दर्शाता है। सिन्धु घाटी से मिले जैन शिलालेख भी जैन धर्म के सबसे प्राचीन धर्म होने की पुष्टि करते है। [7][8][9] अन्य शोधार्थियों के अनुसार श्रमण परम्परा ऐतिहासिक वैदिक धर्म के हिन्द-आर्य प्रथाओं के साथ समकालीन और पृथक हुआ।[10]

जैन ग्रंथो (आगम्) के अनुसार वर्तमान में प्रचलित जैन धर्म भगवान आदिनाथ के समय से प्रचलन में आया। यहीं से जो तीर्थंकर परम्परा प्रारम्भ हुयी वह भगवान महावीर या वर्धमान तक चलती रही जिन्होंने ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान महावीर के समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। उनके अनुसार यह धर्म बौद्ध धर्म के पीछे उसी के कुछ तत्वों को लेकर और उनमें कुछ ब्राह्मण धर्म की शैली मिलाकर खडा़ किया गया। जिस प्रकार बौद्धों में २४ बुद्ध है उसी प्रकार जैनों में भी २४ तीर्थंकर है। जैन शब्द जिन शब्द से बना है। जिन बना है 'जि' धातु से जिसका अर्थ है जीतना। ''जिन अर्थात जीतने वाला'' जिसने स्वयं को जीत लिया उसे जितेंद्रिय कहते हैं।

ऐतिहासिक रूपरेखा संपादित करें

जैन मान्यता के अनुसार जैन धर्म अनादि काल से चला आया है अनंत काल तक चलता रहेगा। इस धर्म का प्रचार करने के लिये समय-समय पर अनेक तीर्थंकरों का आविर्भाव होता रहता है। जैन धर्म के २४ तीर्थंकरों में ऋषभ प्रथम और महावीर अंतिम तीर्थंकर थे।

महावीर के ११ गणधर (मुख्य शिष्य) थे -- इंद्रभूति गौतम,अग्निभूति गौतम ,वायुभूति गौतम, व्यक्तस्वामी, सुधर्मास्वामी , मंडितपुत्र, मौर्यपुत्र, अकंपित गौतम, अचलभ्राता, मेतार्यस्वामी और प्रभासस्वामी। महावीर स्वयं क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे लेकिन उनके सभी गणधर ब्राह्मण थे। इनमें गौतम इंद्रभूति और सुधर्मा को छोड़कर नौ गणधरों ने महावीर भगवान के जीवन काल में ही देह त्याग किया। जिस रात्रि को महावीर ने निर्वाण पाया उसी रात्रि को गौतम इंद्रभूति को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।

महावीर-निर्वाण के पश्चात् सुधर्मा २० वर्ष तक जैन संघ के अधिपति रहे। बाद में संघ का भार जंबूस्वामी के सुपुर्द कर दिया गया और इस प्रकार जैन परंपरा आगे बढ़ती रही। जंबूस्वामी के पश्चात् केवलज्ञान और निर्वाण-गमन के द्वार बंद हो गए।

पार्श्वनाथ की मान्यता का अनुसरण कर लिच्छवि कुलोत्पन्न महावीर ने चतुर्विध संघ को दृढ़ बनाने के लिये गणतंत्रवादी आदर्श पर संघ के नियमों को संघटित किया। निर्ग्रंथ धर्म का प्रचार करने के लिए ज्ञातपुत्र महावीर ने बिहार में राजगृह, चंपा (भागलपुर), मछिया (मुंगेर), वैशाली (बसाढ़) और मिथिला (जनकपुर) आदि तथा उत्तर-प्रदेश में बनारस, कौशांबी (कोसम) अयोध्या, श्रावस्ति (सहेट-महेट) और स्थूणा (स्थानेश्वर) आदि स्थानों में विहार किया। उस समय यही आर्य क्षेत्र कहलाता था, शेष क्षेत्र अनार्य था।

मगध के राजा बिंबसार (श्रेणिक) और अजातशत्रु (कूणिक) को जैनधर्म का अनुयायी कहा गया है। राजसिंह श्रेणिक द्वारा महावीर से प्रश्न पूछे जाने का उल्लेख जैन शास्त्रों में आता है। चंपा नगरी में महावीर भगवान के समवसृत होने पर अजातशत्रु का अपने दलबल सहित उनके दर्शनार्थ गमन करने का वर्णन प्राचीन आगमों में मिलता है। नंद राजाओं के समय भद्रबाहु और स्थूलभद्र बड़े प्रतिभाशाली जैन आचार्य हुए जिन्होंने जैन धर्म को समुन्नत बनाया। आचार्य महागिरि स्थूलभद्र के प्रधान शिष्यों में से थे। तत्पश्चात् पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य (३२५-३०२ ईo पूर्व) का राज्य हुआ। इस समय मगध में भयंकर दुष्काल पड़ा और जैन साधु मगध छोड़कर चले गए। दुष्काल समाप्त होने पर जब लौटकर आए तब पाटलिपुत्र में जैन आगमों की प्रथम वाचना हुई जो 'पाटलिपुत्र-वाचना' के नाम से कही जाती है। दिगंबर जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ग्रहण की और दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला में देह-त्याग किया। चंद्रगुप्त के बाद अशोक (२७२-२३२ ईo पूo) के पौत्र राजा संप्रति (२२०-२११ ईo पूo) का नाम जैन ग्रंथों में बहुत आदर के साथ लिया जाता है। आचार्य महागिरि के शिष्य सुहस्ति ने संप्रति को जैन धर्म में दीक्षित किया। संप्रति ने महाराष्ट्र, आंध्र. द्रविड़, कुर्ग आदि प्रदेशों में अपने सुभटों को भेजकर जैन श्रमणसंघ की विशेष प्रभावना की।

कलिंग का सम्राट् खारवेल जैन धर्म का परम अनुयायी था। मगध का राजा नंद, जो जिन-प्रतिमा उठाकर ले गया था, उसे वह वापस लाया। कटक के पास उदयगिरि से प्राप्त, शिलालेखों से पता चलता है कि खारवेल ने ऋषभ की प्रतिमा निर्माण कराई और जैन साधुओं के रहने के लिये गुफाएँ खुदवाईं। तत्पश्चात् ईसवी सन् के पूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल से उत्तेजित किए जाने पर कालकाचार्य का ईरान जाकर शक राजाओं को हिंदुस्तान में लाने का उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलता है। कालकाचार्य को प्रतिष्ठान (पैठन, महाराष्ट्र) के राजा सातवाहन का समकालीन बताया गया है। फिर आचार्य पादलिप्त, वज्रस्वामी और आर्यरक्षित ने संघ का अधिपतित्व किया। इस प्रकार जैन धर्म की उन्नति होती गई और अब वह दूर दूर तक फैल गया।

 
मथुरा के कंकाली टीला नामक पुरातात्विक स्थल पर चार तीर्थंकरों की मूर्ति

मथुरा में ईसवी सन् के आरंभ के जो शिलालेख उपलब्ध हुए हैं। उनसे पता लगता है कि किसी समय मथुरा जैन धर्म का बड़ा केंद्र था तथा व्यापारी और निम्नवर्ग के लोग इस धर्म के अनुयायी थे। यहाँ के शिलालेखों में जो जैन आचार्यों के गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है वह भद्रबाहु के कल्पसूत्र की स्थाविरावलि में ज्यों का त्यों मिलता है। ईसवी सन् ३६०-७३ के लगभग आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में जैन आगमों की दूसरी वाचना हुई, इससे भी मथुरा के महत्त्व का पता चलता है। इस काल के प्रमुख जैन आचार्यो में उमास्वाति, कुंदकुंद, सिद्धसेन और समंतभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं जिन्होंने अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल से जैन साहित्य को पुष्पित और पल्लवित किया।

गुप्त राजाओं का काल भारतवर्ष का सुवर्णकाल कहा जाता है। इस समय जैन धर्म उत्तरोत्तर उन्नत दशा को प्राप्त होता गया। गुजरात में गिरनार और शत्रुंजय जैनों के परम तीर्थ माने गए हैं। ईसवीं सन् की ७वीं शताब्दी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के अधिपतित्व में वल्लभी में जैन आगमों की अंतिम वाचना स्वीकार कर उन्हें लिपिबद्ध कर दिया गया। आगे चलकर चावड़ा वंश के राजा वनराज ने राजगद्दी पर आसीन होने के पूर्व (७२०-७८०) जैन मुनि शीलगुणसूरि के उपदेश से प्रभावित हो गुजरात का प्रसिद्ध अणहिल्लपुर पाटण नाम का नगर बसाया। आचार्य् हरिभद्र और अकलंक जैसे प्रकांड विद्वानों का इस समय जन्म हुआ; जिन्होंने न्यायसिद्धांत आदि विषयों पर ग्रंथ लिखकर जैन धर्म को समुन्नत किया।

फिर चालुक्य वंश के स्थापक राजा मूलराज (९६१-९९६) ने जैन मंदिर का निर्माण कराया। अणहिल्लपुर पाटण के राजा सिद्धराज जयसिंह कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्र (जन्म १०८८ ईo) के समकालीन थे। सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु हो जाने पर उनका भतीजा कुमारपाल गुजरात की गद्दी पर बैठा। कुमारपाल, हेमचंद को राजगुरु की तरह मानते थे। इस समय आदर्श जैन राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया गया जिसके फलस्वरूप अनेक सुंदर जैन मंदिरों का निर्माण हुआ; प्राणि हिंसा, शिकार, मांस-भक्षण आदि को रोकने की घोषणा की गई और यज्ञ के अवसर पर पशुहिंसा के बदले ब्राह्मणों को अनाज होम करने का आदेश दिया गया। इसी समय वस्तुपाल और तेजपाल मंत्रियों ने गिरनार, शत्रुंजय तथा आबू पर्वतों पर कलापूर्ण भव्य मंदिरों का निर्माण किया।

दक्षिण भारत में भी जैनधर्म का प्रसार हुआ, खासकर दिगंबर जैनों का वहाँ प्रवेश हुआ। ईसा सन् की प्रारंभिक शताब्दियों से ही तमिल साहित्य पर जैन धर्म का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चोल और चेर इस धर्म के अनुयायी बने। महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास राज्य के उत्तरी भाग, कुर्ग, आंध्र और मैसूर राज्य में अनेक जैन धर्मानुयायी लोग बसते थे, इसा पता इन स्थानों के जीर्णशीर्ण देवालयों और शिलालेखों से लगता है। कर्नाटक दिगंबर संप्रदाय का मुख्य धाम था। दिगंबर आचार्य समंतभद्र और पूज्यपाद ने इस प्रदेश में घूम घूमकर जैने धर्म का अभ्युत्थान किया था। गंग और राष्ट्रकूट राजवंशों के आश्रय से जैन धर्म उन्नत हुआ। गंगवंशी राजा राजमल्ल के मंत्री और सेनापति तथा सिद्धांतचक्रवर्ती नेमिचंद्र के गुरु चामुंडराय ने सन् ९८० में अरिष्टनेमि का भव्य देवालय और गोम्मटेश्वर में बाहुवली जी की विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया। चामुंडराय सुप्रद्धि कविरत्न का आश्रयदाता था। राष्ट्रकूट वंश के राजाओं में अमोघवर्ष प्रथम (८१५-८७७ ईo) जैन आचार्य जिनसेन के शिष्य थे। अमोघवर्ष ने जिनसेन के शिष्य गुणभद्र को भी आश्रय दिया। कदंबवंशी भी अधिकतर जैने धर्म के अनुयायी रहे।

मुसलमानों के राज्य में अनेक बादशाहों ने जैन मुनियों को सम्मानित कर उच्च पद पर बैठाया। सुलतान फिरोजशाह तुगलक (१३५१-१३८८) ने रत्नशेखरसूरि को, तुगलक सुल्तान मुहम्मद शाह ने जिरप्रभसूरि के और सम्राट् अकबर (१५५६-१९०५) ने हरिविजयसूरि को सम्मानित किया। इसी प्रकार औरंगजेब (१६५९-१७०७) ने अपने दरबार के जवेरी शांतिदास जैन को शत्रुंजय पर्वत और उसकी दो लाख की आमदनी, तथा अहमदशाह बहादुर (१७४८-१७४५) ने जगत्सेठ महताबराय को पारसनाथ पर्वत देकर पुरस्कृत किया।


सन्दर्भ संपादित करें

  1.  http://www.umich.edu/~umjains/jainismsimplified/chapter20.html  Archived 2015-07-04 at the वेबैक मशीन
  2. Helmuth von Glasenapp,Shridhar B. Shrotri. 1999. Jainism: an Indian religion of salvation. P.15 "Jainas consider that religion is eternal and imperishable. It is without beginning and it will never cease to exist. The darkness of error enveloping the truth in certain, periodically occurring aeons clears up again and again so that the brightness of the Jaina-faith can sparkle again anew."
  3. Dundas, Paul. 2002. The Jains. P.12 "Jainism is believed by its followers to be everlasting, without beginning or end..."
  4. Varni, Jinendra; Ed. Prof. Sagarmal Jain, Translated Justice T.K. Tukol and Dr. Narendra Bhandari. Samaṇ Suttaṁ. New Delhi: Bhagwan Mahavir memorial Samiti. “The Historians have so far fully recognized the truth that Tirthankara Mahavira was not the founder of the religion. He was preceded by many tirthankaras. He merely reiterated and rejuvenated that religion. It is correct that history has not been able to trace the origin of the Jaina religion; but historical evidence now available and the result of dispassionate researches in literature have established that Jainism is undoubtedly an ancient religion.” Pp. xii – xiii of introduction by Justice T.K.Tutkol and Dr. K.K. Dixit.
  5. Helmuth von Glasenapp,Shridhar B. Shrotri. 1999. Jainism: an Indian religion of salvation. P.24. "Thus not only nothing, from the philosophical and the historical point of view, comes in the way of the supposition that Jainism was established by Parsva around 800 BC, but it is rather confirmed in everything that we know of the spiritual life of that period."
  6. Dundas, Paul. 2002. The Jains. P.17. "Jainism, then, was in origin merely one component of a north Indian ascetic culture that flourished in the Ganges basin from around the eighth or seventh centuries BC."
  7. Larson, Gerald James (1995) India’s Agony over religion SUNY Press ISBN 0-7914-2412-X. “There is some evidence that Jain traditions may be even older than the Buddhist traditions, possibly going back to the time of the Indus valley civilization, and that Vardhamana rather than being a “founder” per se was, rather, simply a primary spokesman for much older tradition. Page 27”
  8. Joel Diederik Beversluis (2000) In: Sourcebook of the World's Religions: An Interfaith Guide to Religion and Spirituality, New World Library : Novato, CA ISBN 1-57731-121-3 Originating on the Indian sub-continent, Jainism is one of the oldest religion of its homeland and indeed the world, having pre-historic origins before 3000 BC and the propagation of Indo-Aryan culture.... p. 81
  9. Jainism by Mrs. N.R. Guseva p.44
  10. Long, Jeffrey D. (2009). Jainism: An Introduction. New York: I.B. Tauris. पपृ॰ 45–56. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-84511-626-2.

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें