जॉन इवलिन (John Evelyn ; १६२०-१७०६) एक अंग्रेज लेखक थे।

जॉन इवलिन

इनका जन्म सरे प्रदेश के एक ऐसे कुलीन परिवार में हुआ था जिसके वंशज दीर्घकाल से इंग्लैंड के नरेशों तथा विधान के सबल समर्थक रहे। राजभक्ति की इस वंशपरंपरा के अनुसार ही युवक इवलिन को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय छोड़ने के साथ ही सन् १६४२ में भयंकर गृहयुद्ध की भड़कती अग्निज्वाला में चार्ल्स प्रथम की विजय के लिए कूदना पड़ा। परंतु वर्ष के अंतिम चरण में उन्होंने स्वदेश छोड़कर हालैंड को प्रस्थान किया। कई वर्षो तक वे यूरोप के विभिन्न देशों में भ्रमण करते रहे और इस यात्रा से उपलब्ध अनुभवों का प्रयोग उन्होंने अपनी प्रसिद्ध 'डायरी' में यथास्थान किया। डायरी का आंरभ १६४२ से हुआ और १७०६ तक की प्रसिद्ध घटनाओं का इसमें उल्लेख है। सन् १६५२ ई. में वे स्वदेश लौटे और सेज़ कोर्ट नामक स्थान पर स्थायी रूप से बस गए। यहीं पर 'सिल्वा' तथा 'स्कल्प्चुरा' नामक दो ग्रंथों में उन्होंने अपने बागवानी तथा गृह-निर्माण-कला संबंधी गहन ज्ञान का परिचय दिया। सन् १६६० में वे 'रायल सोसायटी' के सदस्य हुए और कुछ समय तक इसके स्थानापन्न मंत्री भी रहे। १६८५ से १६८७ तक 'कमिश्नर ऑव प्रीवी सील' के सम्मानित पद को भी उन्होंने सुशोभित किया और १६९५ से १७०३ ई. तक ग्रिनिच हास्पिटल के कोषाध्यक्ष भी रहे।

जॉन इवलिन प्रसिद्ध डायरी लेखक सैमुएल पेप्स के घनिष्ठ मित्रों में थे परंतु उनका स्वभाव तथा चरित्र पेप्स महोदाय से बिलकुल भिन्न था। इनके व्यक्तित्व में उत्कट राजभक्ति, विशुद्ध धार्मिकता तथा विवेकशील दार्शनिकता का सुखद सम्मिश्रण था। चार्ल्स द्वितीय के शासन काल में भी, जब अनैतिकता का बोलबाला था और कामिनी तथा सुरा की भोगलिप्सा प्राय: संक्रामक रोग सी हो गई थी, इवलिन महोदय ने अपने को व्याधिमुक्त ही रखा। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी और वे शुद्ध मनोरंजन तथा सामाजिक जीवन की विविधता एवं बहुरसता के हार्दिक प्रेमी थे। उनकी डायरी में वह रस तथा रंग नहीं है जो सैमुएल पेप्स की सफल लेखनी ने संचारित किया है, परंतु उसमें इंग्लैंड के एक तूफानी युग के विभिन्न पहलुओं के विशद चित्र अंकित हैं। 'डायरी' में उनके महान् व्यक्तित्व के साथ ही प्रकांड पांडित्य का साक्षात्कार होता है। पेप्स महोदय की तरह उन्होंने अपने अनुभवों को विशृंखल नहीं छोड़ा है, अपितु कुशल कलाकार के समान एक अंश को दूसरे से गुंफित कर दिया है। पंरतु उनकी गद्यशैली सरल तथा स्पष्ट होते हुए भी रसहीन तथा कई स्थलों पर शुष्क प्रतीत होती है।