टप्पा हिंदुस्तानी संगीत की एक विशिष्ट शैली है। इसमें छोटी लम्बाई के बोल होते हैं और लय अक्सर चंचल होती है। ये गीत बहुधा पंजाबी भाषा में होते हैं। इन्हें मुग़ल काल में दरबारी गायन के रूप में स्थापित करने का श्रेय शौरी मियां को जाता है।[1] ग्वालियर घराने के गायक टप्पा गायन में निपुण माने जाते हैं।[2]

विवरण संपादित करें

टप्पा का अर्थ है निश्चित स्थान पर पहुंचना या ठहरी हुई मंजिल तय करना। गुजरात, काठियावाड से पंजाब, काबुल, बलोचिस्तान के व्यापारी जब पूर्व परम्परा के अनुसार ऊंटों के काफिलों पर से राजपुताना की मरुभूमि में से यात्रा करते हुए ठहरी हुई मंजिलों तक पहुंचकर पड़ाव डाला करते थे, उस समय पंजाब की प्रेमगाथाओं के लोकगीत, हीर-राँझा, सोहिनी-महिवाल आदि से भरी हुई भावना से गाये जाते थे। उनका संकलन हुसैन शर्की के द्वारा हुआ। शोरी मियां ने इन्हें विशेष रागों में रचा। यही पंजाबी भाषा की रचनाएँ टप्पा कहलाती हैं। टप्पा, भारतीय संगीत के मुरकी, तान, आलाप, मीड के अंगों कि सहायता से गाया जाता है। पंजाबी ताल इसमें प्रयुक्त होता है। टप्पा गायन के लिए विशेष प्रकार का तरल, मधुर, खुला हुआ कन्ठ आवश्यक है, जिसमें गले की तैयारी विशेषता रखती है।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Anju Munjaal. Sangeet Manjusha. Saraswati House Pvt Ltd. पपृ॰ 50–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5199-685-9.
  2. Madhya Pradeśa kī kalā evaṃ saṃskr̥ti. Gyan Publishing House. 2011. पपृ॰ 120–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7835-879-6.