त्रिजटा रामायण की एक पात्रा हैं। त्रिजटा मुख्य साध्वी, राक्षसी प्रमुख थी। मन्दोदरी ने सीताजी की देख-रेख के लिए उसे विशेष रूप से सुपुर्द किया था। वह राक्षसी होते हुए भी सीता की हितचिंतक थी। रावण के बाहर होने पर लंका की सत्ता मन्दोदरी के हाथ में थी तथा मन्दोदरी ने सीता के साथ रावण को महल में प्रवेश की अनुमति नहीं दी।

  • विभीषण की पुत्री त्रिजटा की सम्पूर्ण कथा?*
  • त्रिजटा नाम राच्छसी एका।*
  • राम चरन रति निपुन बिबेका॥*

श्री रामचरित मानस के छोटे-से-छोटे पात्र भी विशेषता संपन्न है। इसके स्त्री पात्रों में त्रिजटा एक लधु स्त्रीपात्र है । यह पात्र आकार में जितना ही छोटा है, महिमा में उतना की गौरावमण्डित है।

सम्पूर्ण ‘मानस’ में केवल सुन्दरकाण्ड और लंका काण्ड में सीता-त्रिजटा संवाद के रूपमें त्रिजटा का वर्णन आया है परंतु इन लघु संवादो में ही त्रिजटा के चरित्र की भारी विशेषताएँ निखर उठी हैं।

छोटेसे वार्ताप्रसङ्गमें भी सम्पूर्ण चरित्र को समासरूप से उद्भासित करने की क्षमता पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदासजी की विशेषता है । मानस के सुन्दरकाण्ड की एक चौपाईं में त्रिजटा का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है :

  • त्रिजटा जाम राच्छसी एका ।*
  • राम चरन रति निपुन बिबेका ।।*

(रा.च.मा ५। ११ । १)

प्रस्तुत पंक्ति त्रिजटाके चार गुणोंको स्पष्ट करती है- १- वह राक्षसी है । २-श्री रामचरण में उसकी रति है । ३ -वह व्यवहार-निपुण और ४ -विवेकशीला है । राक्षसी होते हुए भी श्री रामचरणानुराग, व्यवहार कुशलता एवं विवेकशीलता जैसे दिव्य देवोपम गुणों की अवतारणा चरित्र में अलौकिकता को समाविष्ट करती है।

सम्भवत: इन्ही तीन गुणों के समाहार के कारण उसका नाम त्रिजटा रखा गया हो । संत कहते है इनके सिर पर ज्ञान,भक्ति और वैराग्य रुपी तीन जटाएं है अतः इनका नाम त्रिजटा है।

त्रिजटा रामभक्त विभीषणजी की पुत्री है। इनकी माता का नाम शरमा है। वह रावण की भ्रातृजा है। राक्षसी उसका वंशगुण है और रामभक्ति उसका पैतृक गुण । लंका की अशोक वाटिका में सीताजी के पहरेपर अथवा सहचरी के रूपमें रावणद्वारा जिस स्त्री-दल की नियुक्ति होती है, त्रिजटा उसमें से एक है।

अपने सम्पूर्ण चरित्र में सीताके लिये इसने परामर्शदात्री एवं प्राणरक्षिका का काम किया है । यही कारण है कि विरहाकुला और त्रासिता सीताने त्रिज़टा के सम्बोधन में माता शब्द का प्रयोग किया है।

  • त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी ।*
  • मातु बिपति संगिनि तें मोरी।।*

(रा.च.मा. ५। १२ । १)

ऐसी शुभेच्छुका के लिये मा शब्द कितना समीचीन है ।

त्रिज़टा की रति राम-चरण में है । रामभक्त पिता की पुत्री होने के कारण इसका यह अनुराग पैतृक सम्पत्ति है और स्वाभाविक है । त्रिजटा के घर में निरंतर रामकथा होती है । अभी माता सीता से मिलने के थोडी देर पहले वह घरसे आयी है, जहाँ हनुमान जी जैसे परम संत श्री विभीषणजी से रामकथा कह रहे थे ।

  • तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम ।*
  • सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।।*
(रा.च.मा ५।६)

राक्षसी होते हुए भी त्रिजटा को मानव-मनोविज्ञान का सूक्ष्म ज्ञान है । वह सीताजी के स्वभाव और मनोभाव को अच्छी तरह समझती है । वह यह भलीभांति जानती है कि सीताजी को सांत्वना के लिये और उनके दुखों को दूर करने के लिये रामकथा से बढकर दूसरा कोई उपाय नहीं है।

सीता जी का विरह जब असह्य हो चला तब मरणातुर सीताजी आत्मत्याग के लिये जब त्रिजटा से अग्नि की याचना करती हैं , सीताजी त्रिजटा से कहती है के चिता बनाकर सजा दे और उसमे आग लगा दे, तो इस अनुरोंध को वह बुद्धिमान राम भक्ता यह कहकर टाल देती है कि रात्रि के समय अग्नि नहीं मिलेगी और सीताजी के प्रबोधके लिये वह राम यश गुणगान का सहारा लेती है ।

ज्ञान गुणसागर हनुमान जी ने भी जब अशोकवाटिका में सीटा जी की विपत्ति देखी तो उनके प्रबोधके लिये उन्हें कोई उपाय सूझा ही नहीं । वे सीताजी के रूप और स्वभाव दोनों ही से अपरिचित थे ।

उन्होंने त्रिजटा प्रयुक्त विधिका ही अनुसरण किया । रावण त्रासिता सीताजी को राम सुयश सुनने से ही सांत्वना मिली थी, यह हनुमान् जी ऊपर पल्लवोंमें छिपे बैठे देख रहे थे।

त्रिजटाके चले जानेके बाद सीताजी और भी व्याकुल हो उठी । तब उनकी परिशान्ति के लिये हनुमान जी ने भी श्रीराम गुणगान सुनाये ।

दानवी होने के कारण त्रिजटा में दानव मनोविज्ञान का ज्ञान तो था ही । दानवोंका अधिक विश्वास दैहिक शक्ति मे है और इसीलिये उन्हें कार्यविरत करनेमें भय अधिक कारगर होता है।

सीताजी को वशीभूत करने के लिये रावणने भय और त्रासका सहारा लिया था और तदनुसार राक्षसियों को ऐसा ही अनुदेश करके यह चला गया था । सीताजीका दुख दूना हो गया, क्योंकि राक्षसियाँ नाना भाँति बह्यंकर रूप बना बनाकर उन्हें डराने धमकाने लगी ।

व्यवहार-विशारद त्रिजटा के लिये यह असह्य हो गया । वर्जन के लिये उस पण्डिता ने विवेकपूर्ण एक युक्ति निकाली । उसने राक्षस मनोविज्ञान का सहारा लिया और एक भयानक स्वप्न कथा की सृष्टि की ।उसने सब राक्षसियों को बुलवाकर कहा सब सीता जी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो।

त्रिजटा ने उन राक्षसियों से कहा की मैंने एक स्वप्न देखा है। स्वप्नमे मैंने देखा कि एक बंदर ने लंका जला दी । राक्षसों की सारी सेना मार डाली गयी । रावण नंगा है और गधे पर सवार है । उसके सिर मुँड़े हुए हैं बीसो भुजाएँ कटी हुई है ।

इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लंका विभीषण ने पायी है। लंका में श्री रामचंद्र जी की दुहाई फिर गयी । तब प्रभुने सीताजी को बुलावा भेजा।

पुकारकर (निश्चय के साथ ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार ( कुछ ही) दिनों में सत्य होकर रहेगा । उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गयी और  जानकी जी के चरणों पर गिर पड़ी।

इस स्वप्न वार्तासे एक ओर जहाँ त्रिज़टा का भविष्य दर्शिनी होना सिद्ध होता है, वहीं दूसरी ओर उसका व्यवहार-निपुणा और विवेकिनी होना भी उद्धाटित होता है।

भय दिखाकर दूसरे को वशीभूत करनेवाली मण्डलि को उसने भावी भयकी सूचना देकर मनोनुकूल बना लिया । प्रत्यक्ष वर्जन मे तो राजकोप का डर था, अनिष्ट की सम्भावना थी । उसने उन राक्षसियों को साक्षात भक्तिरूपा सीता जी के चरणों में डाल दिया । यही तो भक्तो संतो का स्वभाव है।

लंका काण्डके युद्ध- प्रसंग में त्रिज़टा की चातुरीका एक और विलक्षण उदाहरण मिलता है । राम रावण युद्ध चरम सीमापर है । रावण छोर युद्ध कर रहा है । उसके सिर कट-कट करके भी पुन: जुट जाते हैं । भुजाओ को खोकर भी वह नवीन भुजावाला बन जाता है और श्रीराम के मारे भी नहीं मरता । अशोक वाटिका में त्रिज़टा के मुँहसे यह प्रसङ्ग सुनकर सीताजी व्याकुल हो जाती हैं । श्री रामचंद्र के बाणों से भी नहीं मरने वाले रावण के बन्धन से वह अब मुक्त होने की आशा त्याग देने को हो जाती हैं।

त्रिजटा को परिस्थितिवश अनुभव होता है । वह सीताजी की मनोदशा को देखकर फिर प्रभु श्रीरामके बलका वर्णन करती है और सीता को श्रीराम की विजय का विश्वास दिलाती है।

त्रिजटाने कहा- *राजकुमारी ! सुनो, देवताओ का। शत्रु रावण हृदयमें बाण लगते ही मर जायगा ।परन्तु प्रभु उसके हृदय मे बाण इसलिये नहीं मारते कि इसके हृदयमे जानकी जी (आप) बसती हैं ।*

श्री राम जी यही सोचकर रह जाते हैं कि इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हदयमे मेरा निवास है और मेरे उदरमें अनेकों भूवन हैं । अत: रावणके हृदयमें बाण लगते ही सब भुवनोंका नाश हो जायगा । यह वचन सुनकर, सीताजी के मनमें अत्यन्त हर्ष और विषाद हुआ यह देखकर त्रिजटाने फिर कहा-

  • सुन्दरी !*
  • महान सन्देह का त्याग कर दो अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा । सिरोंके बार बर कटि जानेसे जब वह व्याकुल हो जायगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जायेगा और उसकी मृत्यु होगी।*

(रावण हर क्षण जानकी जी को प्राप्त करने के बारे में ,उन्हें अपना बनाने के बारे में ही सोचता रहता अतः ह्रदय से जानकी जी का ही विचार करता रहता । संतो ने सीता माँ को साक्षात् भक्ति ही बताया है। रावण भक्ति को जबरन अपने बल से प्राप्त करना चाहता है, परंतु क्या भक्ति इस तरह प्राप्त होती है?

भक्ति तो संतो के संग से, प्रभु लीला चिंतन एवं जानकी जी की कृपा दृष्टी से ही प्राप्त हो सकती है । जानकी माता ने तो कभी रावण की ओर दृष्टी तक नहीं डालीं । रावण को पता था की प्रभु से वैर करने पर उन्हें हाथो मृत्यु होगी तो मोक्ष प्राप्त हो जायेगा परंतु प्रभु चरणों की भक्ति नहीं प्राप्त होगी। )

जानकी माता ने पुत्र कहकर हनुमान जी से और माता कहकर त्रिजटा से अपना सम्बन्ध जोड़ लिया। किशोरी जी की कृपा हो गयी तब राम भक्ति सुलभ है। हनुमान जी को और त्रिजटा को सीता माँ ने अखंड भक्ति का दान दिया है ।सीता जी के प्राणों की रक्षा करने में और उनकी पीड़ा कम करने में हनुमान जी और त्रिजटा का मुख्य सहयोग रहा है।

संतो ने कहा है लगभग २ वर्ष तक सीताजी लंका में रही(कोई ४३५ दिन मानते है) और त्रिजटा अत्यंत भाग्यशाली रही की राक्षसी होने पर भी उन्हें साक्षात् भक्ति श्री सीता जी का प्रत्येक क्षण संग मिला,सेवा मिली और प्रेम मिला।

संत कहते है भगवान् के पास देने के लिए सबसे छोटी वस्तु कोई है तो वो है मोक्ष और भगवान् के पास देने के लिए सबसे बड़ी वस्तु कोई है तो वह है भक्ति।

भगवान् संसार की बड़ी से बड़ी वास्तु और भोग प्रदान कर अपना पीछा छुडा लेते है ,परंतु अपने चरणों की अविचल भक्ति नहीं देते ।नारी भक्ताओ का चरित्र हमेशा ही सर्वश्रेष्ठ रहा है, लंका में सर्वश्रेष्ठ भक्ता त्रिजटा है ऐसा संतो का मत है।

इस प्रकार त्रिजटा चरित्र भक्ति, विवेक और व्यवहार कुशलता का एक मणिकाञ्चन योग है।

शुभ प्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।