देवनी मोरी

भारत के गुजरात राज्य का एक गाँव

देवनी मोरी (Devni Mori) भारत के गुजरात राज्य के उत्तरी भाग में अरवल्ली ज़िले के शामलाजी नगर से 2 किमी दूर एक बौद्ध पुरातत्व स्थल है। इसका काल तीसरी से चौथी शताब्दी ईसवी आंका जाता है। यह ऐसे स्थान पर है जहाँ से प्राचीन व्यापार व सार्थ (कारवाँ) मार्ग निकला करते थे। खुदाई से सबसे निचली परत में आठवी शताब्दी के बौद्ध अवशेष, मध्य परत में गुर्जर-प्रतिहार काल के हिन्दू व बौद्ध अवशेष और सबसे ऊपरी परत में 14वीं शताब्दी के मुस्लिम मीनाकारी वस्तुएँ मिली हैं। यहाँ पुरातत्विक खुदाई 1960 से 1963 तक करी गई थी। यह स्थल मेश्वो नदी पर बने बाँध के जलाशय में डूब गया था, जिसपर 1959 में कार्य आरम्भ हुआ और 1971–1972 में पूर्ण हुआ।[2][3][4]

देवनी मोरी
Devni Mori
દેવની મોરી

बुद्ध शाक्यमुनि का टेराकोटा से बना शिर (375-400 ई)
देवनी मोरी is located in गुजरात
देवनी मोरी
गुजरात व भारत में स्थान
देवनी मोरी is located in भारत
देवनी मोरी
देवनी मोरी (भारत)
स्थान अरवल्ली ज़िला, गुजरात, भारत
प्रकार मठ और स्तूप
इतिहास
स्थापित 4वीं शताब्दी ईसवी
संस्कृति पश्चिमी क्षत्रप[1]

पुरातात्विक अवशेष संपादित करें

बौद्ध मूर्तियाँ संपादित करें

देवनी मोरी में कई टेराकोटा बौद्ध मूर्तियाँ (लेकिन कोई पत्थर की मूर्तियाँ नहीं) मिली, जिन्हें तीसरी शताब्दी के लिए भी दिनांकित करा गया, और जो गुजरात की सबसे प्रारम्भिक मूर्तियों में हैं। यह अवशेष शामलाजी संग्रहालय और बड़ौदा संग्रहालय और चित्र गैलरी में स्थित हैं।[2][5]

विहार संपादित करें

देवनी मोरी में एक मठ है जिसके प्रवेश द्वार के सामने एक छवि मंदिर बनाया गया है। इस तरह की व्यवस्था उत्तर-पश्चिमी स्थलों जैसे कि कलावन ( तक्षशिला क्षेत्र में) या धर्मराजिक में शुरू की गई थी। यह माना जाता है कि यह वास्तुशिल्प पैटर्न तब देवनी मोरी, अजंता, औरंगाबाद, एलोरा, नालंदा, रत्नागिरी और अन्य मंदिरों के साथ मठों के विकास के लिए उदाहरण बन गया। देवनी मोरी में विहार ईंटों से बनाए गए थे। यहाँ भी जूनागढ़ ज़िले के ऊपरकोट की भांति आवासीय गुफाएँ हैं, जिनमें पानी के कुण्ड हैं।[2]

स्तूप संपादित करें

देवनी मोरी में एक स्तूप भी है जहाँ कई अवशेष मिले थे। यह गुजरात का एकमात्र ज्ञात स्वयं खड़ा हुआ स्तूप है। स्तूप के अंदर महात्मा बुद्ध की नौ छवियाँ मिली थीं। इन छवियों में स्पष्ट रूप से गांधार के ग्रीको-बौद्ध कला के प्रभाव दिखते हैं और इसे पश्चिमी क्षत्रपों की पश्चिमी भारतीय कला के उदाहरण के रूप में वर्णित किया गया है।[1]

दिनांक और प्रभाव संपादित करें

 
रुद्रसिंह द्वितीय (305-313 ई) का एक सिक्का, जो देवनी मोरी स्तूप में मिला

स्तूप से तीन अवशेष मंजुषाओं (बड़े डब्बों) को प्राप्त किया गया। इनमें से एक पर लेखन है, जिसमें एक तिथि का उल्लेख है: 127वें वर्ष में रुद्रसेन का शासन। पश्चिमी क्षत्रप नरेश सदैव शक संवत का प्रयोग करते थे, इसलिए इसका तात्पर्य 204 ईसवी होने का अनुमान है और यह शासक पश्चिमी क्षत्रप के रुद्रसेन प्रथम रहे होंगे। यदि यहाँ किसी कारण से शक के स्थान पर कलचुरी संवत उल्लेखित था, तो वर्ष 375 ईसवी रहा होगा और शासक रुद्रसेन तृतीय। दूसरी मंजुषा में पश्चिमी क्षत्रप के 8 सिक्के शामिल थे, जिनमें से एक विश्वसेन (शासनकाल 294-305 ई) का था। सिक्के घिसे हुए हैं, लेकिन दो अच्छी स्थिति के सिक्के मिले हैं, जिनमें से एक रुद्रसेन प्रथम (203-220 ई) और दूसरा रुद्रसिंह द्वितीय (305-313 ई) का है। इन भिन्न तिथियों के कारण देवनी मोरी को कभी तृतीय शताब्दी और कभी चतुर्थ शताब्दी का निर्माण माना जाता है। इसके बाद के पश्चिम क्षत्रप शासकों के चिन्ह न मिलने का अर्थ यह समझा जाता है कि लगभग 305–313 ईसवी काल में स्तूप का पुनर्निर्माण करवाया गया होगा।

मेहता और चौधरी के अनुसार, देवनी मोरनी की कला से पश्चिमी भारतीय कला परम्परा में एक गुप्त वंश से पूर्व युग की कलाशैली के संकेत मिलता है। उनका मानना है कि इस कलाशैली से अजंता गुफाओं, सारनाथ और पांचवी शताब्दी के बाद के स्थलों की कला प्रभावित थी। देवनी मोरी में गंधार का प्रभाव भी दिखता है, जो सिंध के मीरपुर खास (काहु जो दड़ो नाम स्तूप), शामलाजी और धांक में स्थाई रूप से देखा जा सकता है। शास्तोक के अनुसार, यहाँ इस कला के मिलने का अर्थ है कि इस शैली के कई केन्द्र थे। विलियम्स के अनुसार कोई भी अनुमान लगाना कठिन है क्योंकि यह सभी शैलियाँ लम्बे समय से उपस्थित होने के कारण सम्भव है कि यह स्थानीय नवाचार और बाह्य प्रभावों का मिश्रण हो सकता है।

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाह्य जोड़ संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. द जर्नल ऑफ़ द इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ़ बुद्धिस्ट स्टडीज़, खंड 4 1981 संख्या I एक अजंता में चित्रित बुद्ध आकृतियों का असाधारण समूह, p.97 और नोट 2 Archived 2018-05-06 at the वेबैक मशीन
  2. Schastok, Sara L. (1985). The Śāmalājī Sculptures and 6th Century Art in Western India. BRILL. पपृ॰ 24–27 with footnotes. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9004069410.
  3. Meshwo Water Reservoir, Government of Gujarat (India)
  4. मेशवू जल भंडार Archived 2019-01-09 at the वेबैक मशीन , गुजरात सरकार (भारत)
  5. Ishikawa, Ken (2019). "More Gandhāra than Mathurā: substantial and persistent Gandhāran influences provincialized in the Buddhist material culture of Gujarat and beyond, c. AD 400-550" in "The Global Connections of Gandhāran Art" (अंग्रेज़ी में). पपृ॰ 156ff.