काव्य को मुख्यत: दो वर्गो में विभक्त किया गया है - श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य। श्रव्य काव्य के अंतर्गत साहित्य की वे सभी विधाएँ आती हैं जिनकी रसानुभूति श्रवण द्वारा होती है जब कि दृश्य काव्य का वास्तविक आनंद मुख्यतया नेत्रों के द्वारा प्राप्त किया जाता है अर्थात् अभिनय उसका व्यावर्तक धर्म है। भरतमुनि ने दृश्य काव्य के लिये "नाट्य" शब्द का व्यवहार किया है। आचार्यों ने "नाट्य" के दो रूप माने हैं - रूपक तथा उपरूपक। इन दोनों के पुन: अनेक उपभेद किए गए हैं। रूपक के दस भेद है; प्रहसन इन्हीं में से एक है - नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामून, अंक, वीथी, प्रहसन

प्रहसन के भेद संपादित करें

भारतीय काव्यशास्त्र में प्रहसन के स्वरूप-विवेचन पर पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। भरत मुनि ने इसके दो भेद किए हैं - शुद्ध प्रहसन और संकीर्ण प्रहसन। रूपक का वह भेद जिसमें तापस, सन्यासी, पुरोहित, भिक्षु, श्रोत्रिय आदि नायकों और नीच प्रकृति के अन्य व्यक्तियों के मध्य परिहास चर्चा होती है, प्रहसन कहलाता है। निकृष्ट श्रेणी के पात्रों का परिहासपूर्ण अभिनय संकीर्ण प्रहसन के अंतर्गत आता है। धनंजय तथा शारदातनय ने भी लगभग इसी आधार पर प्रहसन के तीन भेज किए हैं - शुद्ध, वैकृत (विकृत), संकर। इधर कुछ नए लेखकों ने परंपरा से भिन्न चरित्रप्रधान, परिस्थितिप्रधान, कथोपकथन प्रधान और विदूषकप्रधान भेदों का उल्लेख कर प्रहसन का नवीन वर्गीकरण प्रस्तुत किया है।

प्रहसन की कथा संपादित करें

प्रहसन की कथा प्रायः काल्पनिक होती है और उसमें हास्यरस की प्रधानता रहती है। उसके विविध पात्र अपनी अद्भुत चेष्टाओं द्वारा प्रेक्षकों का मनोरंजन करते हैं। कथाविकास में मुख और निर्वहण संधियों से सहायता ली जाती है तथा प्रवेशक, विष्कंभक आदि का नियोजन नहीं किया जाता। इसकी कथावस्तु प्राय: एक अंक में समाप्त हो जाती है, किंतु शिंगभूपाल आदि आचार्यो के अनुसार इसमें अपवादस्वरूप दो अंक भी होते हैं।

प्रहसन का प्रत्यक्ष प्रयोजन मनोरंजन ही है; किन्तु अप्रत्यक्षतः प्रेक्षक को इससे उपदेशप्राप्ति भी होती है।

संस्कृत साहित्य में प्रहसन संपादित करें

संस्कृत साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज की समुन्नत स्थिति तथा आदर्शवादी नाटकों के प्रति विशेष अनुराग होने के कारण स्वतंत्र प्रहसनों की रचना बहुत कम हुई। "सागरकौमुदी", "सैरंध्रिका", "कलिकेलि" आदि प्रहसन ही उल्लेखनीय हैं। हाँ, विदूषक के माध्यम से संस्कृत नाटकों में हास्य की सृष्टि अवश्य होती रही। संस्कृत भाषा के नाटककार वत्सराज द्वारा रचित प्रहसन 'हास्यचूड़ामणि' इसका एक उदाहरण है।

हिन्दी साहित्य में प्रहसन संपादित करें

हिन्दी साहित्य के आधुनिक युग में प्रहसनों की रचना की ओर भी ध्यान दिया गया है। भारतेन्दु हरिशचंद्र (वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, "अंधेर नगरी", "विषस्यविषमौषधम्") प्रतापनारायण मिश्र ("कलिकौतुक रूपक") बालकृष्ण भट्ट ("जैसा काम वैसा दुष्परिणाम"), राधाचरण गोस्‍वामी ("विवाह विज्ञापन"), जी. पी. श्रीवास्तव ("उलट फेर" "पत्र-पत्रिका-संमेलन") पांडेय बेचन शर्मा उग्र ("उजबक", "चार बेचारे"), हरिशंकर शर्मा (बिरादरी विभ्राट पाखंड प्रदर्शन, स्वर्ग की सीधी सड़क), आदि इस युग में सफल प्रहसनकार हैं। इन सभी ने प्राय: धार्मिक पाखण्ड, बाल एवं वृद्ध विवाह, मद्यपान, पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव, भोजनप्रियता आदि विषयों को ग्रहण किया है और इनके माध्यम से हास्य व्यंग्य की सृष्टि करते हुए प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रीति से इनके दुष्परिणामों की ओर संकेत किया है।

पाश्चात्य साहित्य में प्रहसन (कॉमेडी) संपादित करें

प्रहसन के समान ही पाश्चात्य काव्यशास्त्र में कॉमेडी के स्वरूप की चर्चा हुई है। ग्रीक आचार्य प्लेटो ने अपने आदर्शवादी दृष्टिकोण के कारण कॉमेडी में वर्णित हँसी मजाक का तिरस्कार किया है। किन्तु, अरस्तु के अनुसार कॉमेडी के मूलभाव का विषय कोई ऐसी शारीरिक या चारित्रिक या चारित्रिक विकृति होता है जो क्लेशप्रद या सार्वजनिक होता है; अत: साधारणीकरण की क्षमता के कारण कॉमेडी काव्यकला का मान्य रूप है। कांट आदि दार्शनिकों ने विरोध, असंगति, कुरूपता, बुराई, अप्रत्याशित वर्णन, बुद्धिविलास आदि को कॉमेडी के लिये आवश्यक माना है।

वर्ण्यविषय और प्रेक्षकगत प्रभाव के आधार पर पश्चिम में कॉमेडी के अनेक भेदों की प्रकल्पना की गई है जिनमें से "फार्स" का रूप कुछ कुछ प्रहसन के निकट है। इसमें हास्य के सूक्ष्मतर रूपहृ जैसे शुद्ध विनोद व्यंग्य, आदि की अपेक्षा प्रत्यक्ष शारीरिक विकृतियों पर अधिक बल रहता है। पाश्चात्य प्रहसनकारों में मॉलिये सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं।

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें