प्रोबायोटिक एक प्रकार के खाद्य पदार्थ होते हैं, जिसमें जीवित जीवाणु या सूक्ष्मजीव शामिल होते हैं। प्रोबायोटिक विधि रूसी वैज्ञानिक एली मैस्निकोफ ने २०वीं शताब्दी में प्रस्तुत की थी। इसके लिए उन्हें बाद में नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।[1] विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रोबायोटिक वे जीवित सूक्ष्मजीव होते हैं जिसका सेवन करने पर मानव शरीर में जरूरी तत्व सुनिश्चित हो जाते हैं।[2] ये शरीर में अच्छे जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि कर पाचन क्रिया को बेहतर बनाते हैं।[3] इस विधि के अनुसार शरीर में दो तरह के जीवाणु होते हैं, एक मित्र और एक शत्रु। भोजन के द्वारा यदि मित्र जीवाणुओं को भीतर लें तो वे धीरे-धीरे शरीर में उपलब्ध शत्रु जीवाणुओं को नष्ट करने में कारगर सिद्ध होते हैं। मित्र जीवाणु प्राकृतिक स्रोतों और भोजन से प्राप्त होते हैं, जैसे दूध, दही और कुछ पौंधों से भी मिलते हैं। अभी तक मात्र तीन-चार ही ऐसे जीवाणु ज्ञात हैं जिनका प्रयोग प्रोबायोटिक रूप में किया जाता है। इनमें लैक्टोबेसिलस, बिफीडो, यीस्ट और बेसिल्ली हैं। इन्हें एकत्र करके प्रोबायोटिक खाद्य पदार्थ में डाला जाता है। वैज्ञानिकों के अब तक के अध्ययन के अनुसार इस तरह से शरीर में पहुंचने वाले जीवाणु किसी प्रकार की हानि भी नहीं पहुंचाते हैं। शोधों में रोगों के रोकथाम में इनकी भूमिका सकारात्मक पाई गई है तथा इनके कोई दुष्प्रभाव भी ज्ञात नहीं हैं।

लैक्टोबैसिलस जीवाणु प्रोबायोटिक जीवाणु है, जो दूध को दही में बदलता है।

लाभ

 
स्ट्रेप्टोकोकस जीवाणु दूध में उपस्थित प्रोबायोटिक जीवाणु होता है

पाचन तंत्र

मानव पाचन तंत्र एक बड़ी संख्या में सूक्ष्मजीवों से भरा होता है, जिनसे भोजन को पचाने में मदद मिलती है। इन सहयोगी जीवाणुओं के संग ही पाचन तंत्र में कई ऐसे जीवाणु भी होते हैं जिनसे रोग आदि फैलने की आशंका रहती है। प्रोबायोटिक जीवाणुओं से पाचन तंत्र में फ्लोरा व्यवस्थित होने के साथ हानिकारक जीवाणुओं के प्रसार पर नियंत्रण भी संभव होता है। इस कारण से ही प्रायः लंबे समय तक एंटीबायोटिक दवा देने के बाद चिकित्सक रोगी को प्रोबायोटिक लेने का परामर्श देते हैं। लंबी बीमारी के मामलों में सहयोगी जीवाणुओं का क्षय हो जाता है, जिसका सीधा असर पाचन तंत्र पर पड़ता है। इसे जैवसुरक्षित खाद्य (बायोप्रोटेक्टिव फूड) भी कहते हैं।[2]

संक्रमण रोगों में

इसके अलावा प्रोबायोटिक संक्रमण से होने वाले रोगों पर नियंत्रण में भी सहायक होता है। यह शरीर में लैक्टोज इंटोलरेंस को भी व्यवस्थित करते हैं। लैक्टोज़ की मात्रा के कारण की वजह से ही कई बार बच्चे और वयस्क दूध पचा नहीं पाते हैं, इसे लैक्टोस इंटोलरेंस कहते हैं। दूध का सेवन बच्चों के लिए परमावश्यक है क्योंकि यह कैल्शियम का प्रमुख स्रोत है। इसमें प्रोबायोटिक जीवाणु सहायक रहते हैं।

अन्य लाभ

प्रोबायोटिक में लैक्टिक अम्ल जीवाणु होते हैं जो दूध में उपस्थित लैक्टोज शक्कर को लैक्टिक अम्ल में परिवर्तित देते है। प्रोबायोटिक खाद्यों से कोलोन कैंसर से बचाव भी होता है। कुछ शोध से ज्ञात हुआ है कि प्रोबायोटिक उत्पादों का प्रयोग करने वाले लोगों में कोलोन कैंसर होने की संभावना बेहद कम होती है। इससे कोलेस्ट्रोल पर भी नियंत्रण होता है।[2] दूध और फॉरमेंटेड खाद्य उत्पादों के प्रयोग से रक्तचाप भी नियंत्रण में रहता है। यह मानव शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के लिए भी लाभदायक होता है, जिससे शरीर रोगाणुओं से बचाव करने में सक्षम हो पाता है। लैक्टोबैसिलस एवं बाइफीडोबैक्ट्रियम खाद्य और पूरक से डायरिया के रोकथाम में भी मदद मिलती है। प्रोबायोटिक के सेवन से वयस्कों में होने वाले संक्रामक बॉवल रोग और हाइपर सेंसिटिविटी प्रतिक्रिया पर भी नियंत्रण रहता है। इनके उपयोग से सूक्ष्म खनिजों के अवशोषण में होने वाली समस्याएं भी समाप्त हो सकती हैं।

विकास

प्रोबायोटिक खाद्य पदार्थ का प्रचलन विकसित देशों में बहुत है। वहां पर इनके प्रभावों को लेकर काफी अध्ययन भी हुए हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि ये कुछ बीमारियों से बचाव में लाभदायक हो सकते हैं। लेकिन उपचार में इनकी भूमिका की पुष्टि अभी तक नहीं हुई है। अतएव भारतीय चिकित्साविदों के अनुसार प्रोबायोटिक खाद्य को तो दवा के रूप में नहीं वरन मात्र खाद्य पूर्क रूप में लेना चाहिए। भारत के स्वास्थ्य विभाग सलाहकार[4] के अनुसार विदेशों में प्रायोबायोटिक खाद्य पर बहुत शोध हुए हैं। इन शोधों के अनुसार प्रोबायोटिक पदार्थ डायरिया, मधुमेह, लोअर रेस्पेरेटरी इंफेक्शन, मोटापा घटाने, इरीटेबल बाउल सिंड्रोम, आदि से बचाव में कारगर हुए हैं। इनके नियमित सेवन से रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल वृद्धि भी रुकती है। डायरिया संक्रमण में इनका प्रयोग उपचार रूप में कारगर है।[1] अभी तक ये परिणाम विदेशी लोगों पर हुए अध्ययनों पर आधारित हैं, व भारतीय लोगों पर परीक्षण अभी बाकी हैं।

प्रसार

भारत के लिए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने प्रोबायोटिक खाद्य पदार्थों का नियमन करने हेतु मार्गदर्शिका तैयार की है, जो जनवरी २०१० से लागू होगी। ये मार्गदर्शिका राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत तैयार की गई हैं। इसमें प्रमुख प्रावधान यह है कि कोई भी प्रोबायोटिक कंपनी इनसे किसी रोग के दूर होने का दावा नहीं कर सकेगी। यदि कंपनी ऐसा करना चाहती है, तो उसे अपने उत्पादों को प्रायोगिक परीक्षण के लिए भी पंजीकृत कराना होगा और दवाओं की तरह उनके मानवीय प्रायोगिक परीक्षण किये जायेंगे तथा उसके परिणाम सही आने पर ही कंपनी ऐसा कर सकेगी। और इतना होने पर उस खाद्य को खाद्य न होकर प्रोबायोटिक दवाई की श्रेणी में रखा जा सकेगा।[1] विश्व में प्रोबायोटिक खाद्य पदार्थ का उद्योग १४ अरब डॉलर के लगभग हो रहा है। भारत में मदर डेयरी, अमुल, निरुलाज़[5] और याकुल्ट व कई अन्य कंपनियां प्रोबायोटिक दूध और दही बाजार में लॉन्च कर चुकी हैं।[3]

सन्दर्भ

  1. प्रोबायोटिक फूड फायदेमंद पर दवा नहीं Archived 2015-10-22 at the वेबैक मशीन। हिन्दुस्तान लाइव। १ दिसम्बर २००९
  2. प्रोबायोटिक दुग्ध उत्पादों के फायदे[मृत कड़ियाँ]। बिज़नेस भास्कर। २४ मई २००९। डॉ॰ रतन सागर खन्ना
  3. प्रोबायोटिक के बाजार में रफ्तार[मृत कड़ियाँ]। बिज्नेस स्टैण्डर्ड। नेहा भारद्वाज। १८ सितंबर २००८
  4. डिपार्टमेंट ऑफ हैल्थ रिसर्च के एडवाइजर डॉ॰ एन. के. गांगुली के अनुसार
  5. स्वाद के साथ सेहत का भी ध्यान रखेगी आइसक्रीम [मृत कड़ियाँ]। इकॉनोमिक टाइम्स। सीमा क‘ओल। १ मई २००८

बाहरी कड़ियाँ