बंगाल का नवजागरण

1800 से 1930 के दशक में बंगाल में सामाजिक-सांस्कृतिक और धार्मिक सुधार आंदोलन

उन्नीसवीं सदी में और बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों के बंगाल में हुए समाज सुधार आंदोलनों, देशभक्त-राष्ट्रवादी चेतना के उत्थान और साहित्य-कला-संस्कृति में हुई अनूठी प्रगति के दौर को बंगाल के नवजागरण की संज्ञा दी जाती है। इस दौरान समाज सुधारकों, साहित्यकारों और कलाकारों ने स्त्री, विवाह, दहेज, जातिप्रथा और धर्म संबंधी स्थापित परम्पराओं को चुनौती दी। बंगाल के इस घटनाक्रम ने समग्र भारतीय आधुनिकता की निर्मितियों पर अमिट छाप छोड़ी। इसी नवजागरण के दौरान भारतीय राष्ट्रवाद के शुरुआती रूपों की संरचनाएँ सामने आयीं। बंगाल के नवजागरण का विस्तार राजा राममोहन राय (१७७५-१८३३) से आरम्भ होकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर (१८६१-१९४१) तक माना जाता है।

परिचय संपादित करें

इस अवधि का सुव्यव्यस्थित अध्ययन करने वाले इतिहासकार सुशोभन सरकार लिखते हैं, ‘अंग्रेज़ी राज, पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और आधुनिक पश्चिमी संस्कृति का सबसे पहला प्रभाव बंगाल पर पड़ा जिससे एक ऐसा नवजागरण हुआ जिसे आमतौर पर बंगाल के रिनेसाँ के नाम से जाना जाता है। करीब एक सदी तक बदलती हुई आधुनिक दुनिया के प्रति बंगाल की सचेत जागरूकता शेष भारत के मुकाबले आगे रही। इस लिहाज़ से कहा जा सकता है कि भारत के आधुनिक जागरण में बंगाल द्वारा निभायी गयी भूमिका की तुलना युरोपीय रिनेसाँ के संदर्भ में इटली की भूमिका से की जा सकती है।’ इतालवी रिनेसाँ की ही तरह बंगाल का नवजागरण कोई जनांदोलन नहीं था। इसकी प्रक्रिया और प्रसार भद्रलोक (उच्च वर्गों) तक ही सीमित था। भद्रलोक में भी नवजागरण का प्रभाव अधिकतर उसके हिंदू हिस्से पर ही पड़ा। इस दौरान कुछ मुसलमान हस्तियाँ भी उभरीं (जैसे, सैयद अमीर अली, मुशर्रफ हुसैन, साके दीन महमूद, काज़ी नज़रुल इस्लाम और रुकैया सखावत हुसैन), पर बंगाल का नवजागरण आंशिक रूप से ही मुसलमान नवजागरण कहा जा सकता है। मोटे तौर पर माना जाता है कि बंगाल के नवजागरण की शुरुआत राममोहन राय से हुई और रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ उसका समापन हो गया। सुशोभन सरकार ने इसे पाँच चरणों में बाँट कर देखने का प्रयास किया है : पहली अवधि 1814 से 1833, जिसकी केंद्रीय हस्ती राजा राममोहन राय थे। 1814 में वे कोलकाता रहने के लिए आये और 1833 में उनका लंदन में देहांत हुआ। दूसरी अवधि उनकी मृत्यु से 1857 के विद्रोह तक जाती है। तीसरी अवधि 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना तक फैली हुई है। चौथी अवधि 1905 में बंगाल के विभाजन तक और पाँचवीं अवधि स्वदेशी आंदोलन से असहयोग आंदोलन और महात्मा गाँधी के नेतृत्व की शुरुआत तक यानी 1919 तक मानी गयी है। राममोहन राय के बारे में एक दृष्टांत है जिसे उनकी शख्सियत के रूपक की तरह पढ़ा जा सकता है। कहा जाता है कि उनके दो घर थे। खान-पान, वेषभूषा और रहन-सहन के लिहाज़ से एक में किसी विक्टोरियन जेंटिलमेन की भाँति रहते थे और दूसरे में पारम्परिक बंगाली ब्राह्मण की तरह। दरअसल, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी पूर्व और पश्चिम का संश्लेषण। लेकिन, यह दृष्टांत भी उनके रूढ़िभंजक व्यक्तित्व को परिभाषित नहीं करता। 1820 में उनकी कृति ‘परसेप्ट्स ऑफ़ जीसस’ का प्रकाशन हुआ जिसमें ईसा के नैतिक संदेश को ईसाई तत्त्वज्ञान और चमत्कार कथाओं से अलग करके पेश किया गया था। बंगाल में सक्रिय ईसाई पादरी वर्ग उनकी इस कोशिश से नाराज़ हो गया। उसके विरोध के परिणामस्वरूप राममोहन राय ने ईसाई जनता के नाम तीन अपीलें जारी करके अपने विचारों को और स्पष्टता प्रदान की। इसी के साथ उन्होंने ब्राह्मनीकल मैग़ज़ीन का प्रकाशन करके हिंदू आस्तिकता के वैचारिक नैरंतर्य को वेदों के हवाले से रेखांकित करने की चेष्टा भी की। राममोहन ने अपने धार्मिक विचारों को धरती पर उतारने के लिए 20 अगस्त 1828 को ‘ब्रह्म सभा’ का गठन किया। इस प्रक्रिया का परिणाम 1830 में एक चर्च की स्थापना के रूप में निकला और ब्रह्म समाज आंदोलन शुरू हुआ जो लम्बे समय तक बंगाली समाज की चेतना को प्रभावित करता रहा। 1818 से 1829 के बीच राममोहन राय ने सती प्रथा जैसी बुराई पर आक्रमण करते हुए तीन रचनाएँ प्रकाशित कीं। सती प्रथा के ख़िलाफ़ जनमत बनाने और अंग्रेज़ों को उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए मनाने का श्रेय उनके प्रयासों को ही दिया जाता है। राममोहन ने आधुनिक शिक्षा और विशेष तौर से स्त्री शिक्षा के प्रसार में अगुआ भूमिका निभायी। उन्हें बांग्ला गद्य का निर्माता भी कहा जाता है।

बंगाल रिनेसाँ के इस दौर में राममोहन के प्रयासों को दोहरे विरोध का सामना करना पड़ा। एक तरफ़ उनका विरोध राधाकांत देब, गौरीकांत भट्टाचार्य और भवानी चरण बनर्जी जैसे सुधार विरोधी परम्परानिष्ठ लेखक और विद्वान कर रहे थे, वहीं उन्हें फ़्रांसीसी क्रांति और इंगलिश रैडिकलिज़म से अनुप्राणित आलोचना का भी सामना करना पड़ा जिसका नेतृत्व ‘यंग बंगाल’ और उसके एंग्लो-इण्डिन नेता हेनरी विवियन डेरॉज़ियो के हाथों में था। यह अलग बात है कि डेरॉज़ियो के अनुयायी अपने कामों और वक्तृताओं से समाज को चौंकाने के अलावा कोई स्थाई असर नहीं डाल पाये। लेकिन, राममोहन की परम्परा के आधार पर समाज सुधारों का नरम कार्यक्रम उनकी मृत्यु के बाद भी जारी रहा। उसकी कमान देवेंद्रनाथ ठाकुर और अक्षय कुमार दत्त के हाथों में थी। इसी दौरान ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बाल विवाह और बहुविवाह के ख़िलाफ़ मुहिम चलायी। हालाँकि यंग बंगाल आंदोलन 1842 में विधवा विवाह के पक्ष में आवाज़ उठा चुका था, पर विद्यासागर के प्रयासों से ही इसे लोकप्रिय आंदोलन का रूप मिला।

1857 के विद्रोह के बाद बंगाल के पुनर्जागरण ने साहित्यिक क्रांति और उसके ज़रिये राष्ट्रवादी चिंतन के युग में प्रवेश किया। नील की खेती करवाने वाले अंग्रेज़ों के जुल्मों के ख़िलाफ़ किसानों के संघर्ष में बंगाली बुद्धिजीवियों ने भी अपनी आवाज़ मिलायी। दीनबंधु मित्र के नाटक ‘नील दर्पण’ ने बंगाल के मानस को झकझोर दिया। माइकेल मधुसूदन दत्त ने उसका अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित किया जिसके ख़िलाफ़ अदालत ने एक हज़ार रुपये के ज़ुर्माने की सज़ा सुनायी। माइकेल ने 1860 में मेघनाद-वध की रचना करके नयी बंगाली कविता की सम्भावनाओं का उद्घोष किया। 1865 में बंकिम चंद्र चटर्जी का सूर्य उनके पहले ऐतिहासिक उपन्यास दुर्गेशनंदिनी के साथ बंगाली सांस्कृतिक क्षितिज पर उगा। 1873 में विषबृक्ष के ज़रिये उन्होंने सामाजिक उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात किया। 1879 में ‘साम्य’ शीर्षक से निबंध लिख कर बंकिम ने समतामूलकता और यूटोपियन समाजवाद के प्रति रुझान दिखाया, पर 1882 में आनंदमठ लिख कर वे देशभक्तिपूर्ण पुनरुत्थानवाद की लहर में बह गये। इसी रचना में दर्ज ‘वंदेमातरम’ गीत भारत के तीन राष्ट्रगीतों में से एक है। साहित्यिक उन्मेष के साथ- साथ बंगाली नवजागरण ने इतिहास लेखन (राजेंद्रलाल मित्र) और समाज-विज्ञान (बंगाल सोशल साइंस एसोसिएशन) के अन्य क्षेत्रों में योगदान की परम्परा का सूत्रपात भी किया। धार्मिक सुधारों और पुनरुत्थानवाद के लिहाज़ से भी यह दौर ख़ासा घटनाप्रद था। एक तरफ़ तो केशव चंद्र सेन के नेतृत्व में युवा ब्रह्म समाजी सुधार आंदोलन की अलख जगाये हुए थे, दूसरी तरफ़ वहाबी असंतोष खदबदा रहा था और नव- हिंदूवाद की पदचाप सुनायी दे रही थी। इसी अवधि में दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण परमहंस ने अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व के माध्यम से सभी धार्मिक आस्थाओं को पवित्र घोषित किया। ईसाई धर्मांतरण को हवा देने वाला प्रोटेस्टेंट उग्रवाद इससे कमज़ोर हुआ और परम्परा के पैरोकारों को थोड़ी राहत मिली। परमहंस के युवा शिष्य स्वामी विवेकानंद ने 1893 में वर्ल्ड रिलीजस कांफ्रेंस में दिये गये अपने भाषण से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की और अपनी ख़ास शैली के आदर्शवादी राष्ट्रवाद का सूत्रीकरण किया। चार साल तक पश्चिम का दौरा करके लौटे तो 1897 में उनका राष्ट्रीय नायक की तरह स्वागत किया गया।

1861 के बाद की अवधि तो कुछ इस तरह की थी जिसमें बंगाली बुद्धिजीवी समाज का सबसे प्रिय शब्द ‘राष्ट्रीय’ बन गया। राजनारायण बोस, नवगोपाल मित्र, ज्योतिरिंद्रनाथ ठाकुर और भूदेव मुखर्जी की अगुआई में कई तरह की गतिविधियाँ चलीं जिनमें हिंदू मेले का आयोजन उल्लेखनीय था जो करीब दस साल तक कोलकाता को आलोड़ित करता रहा। 1870 के बाद की अवधि राजनीतिक आंदोलनों की अवधि थी जिसमें सुरेंद्रनाथ बनर्जी का नेतृत्व उभरा जिन्हें ‘बंगाल के बेताज के बादशाह’ के तौर पर जाना गया। सुरेंद्रनाथ के जुझारूपन कारण के कारण अंग्रेज़ उनका नाम बिगाड़ कर ‘सरेंडर नॉट’ बनर्जी भी कहते थे। 1876 में बनर्जी ने ‘इण्डिन एसोसिएशन’ की स्थापना की जिसके 1883 के राष्ट्रीय सम्मेलन में सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संगठन बनाने का विचार पैदा हुआ। इसका परिणाम 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ऐतिहासिक स्थापना के रूप में निकला। बंगाली बुद्धिजीवियों कांग्रेस की गतिविधियों में जम कर भागीदारी की और 1903 तक कांग्रेस अधिवेशनों की अध्यक्षता सात बार उनके खाते में गयी। बंगाल ने महाराष्ट्र और पंजाब के साथ मिल कर कांग्रेस के गरमदली धड़े की रचना करने में निर्णायक भूमिका निभायी।

बंगाल के नवजारण के आख़िरी दौर पर गिरीश चंद्र घोष जैसे नाटककार, बंकिम की परम्परा में रमेश चंद्र दत्त जैसे ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासकार (जिन्हें हम महान आर्थिक इतिहासकार के तौर पर भी जानते हैं), मीर मुशर्रफ़ हुसैन जैसे मुसलमान कवि, जगदीश चंद्र बोस और प्रफुल्ल चंद्र राय जैसे वैज्ञानिकों की छाप रही। लेकिन, रवींद्रनाथ ठाकुर की प्रतिभा के सामने ये सभी प्रतिभाएँ फीकी पड़ गयीं। हिंदू मेले में अपनी देशभक्तिपूर्ण कविताओं के पाठ से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने वाले रवींद्रनाथ ने अपने रचनात्मक और वैचारिक साहित्य से एक पूरे युग को नयी अस्मिता प्रदान की। उन्होंने अपने युग पर आलोचनात्मक दृष्टि फेंकी। 1901 में अपनी रचना नष्टनीड़ के ज़रिये वे बंगाली रिनेसाँ के ऐसे पैरोकारों को आड़े हाथों लेते नज़र आये जो अपने पारिवारिक जीवन में उन आदर्शों को लागू करने के लिए तैयार नहीं थे। 1913 में गीतांजलि के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले रवींद्रनाथ ने बंग- भंग विरोध और स्वदेशी आंदोलन की राजनीति को सर्वथा नये दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने इस आंदोलन में मुसलमानों की न के बराबर भागीदारी पर अफ़सोस जताया और राष्ट्रवाद में निहित अशुभ आयामों की आलोचना प्रस्तुत की। गाँधी के साथ उनकी बहसों में आने वाले भारत की दुविधाओं की झलक देखी जा सकती थी।

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

1. सुशोभन सरकार (1981), ‘नोट्स ऑन द बंगाल रिनेसाँ’, बंगाल रिनेसाँ ऐंड अदर एसेज़, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली.

2. शिवनाथ शास्त्री (2002), अ हिस्ट्री ऑफ़ द रिनेसाँ इन बंगाल, रिनेसाँ, कोलकाता.

3. सुमित सरकार (1996), ‘कोलकाता ऐंड द बंगाल रिनेसाँ’, संकलित : कैलकटा, द लिविंग सिटी, संपादक : सुकांत चौधरी, खण्ड-1.

4. नीतिश सेनगुप्ता (1980), हिस्ट्री ऑफ़ बंगाली स्पीकिंग पीपुल, यूबीएस पब्लिशर्स डिस्ट्रीब्यूटर्स.