भक्तमाल हिन्दी का एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता नाभादास या नाभाजी हैं। इसका रचना काल सं. १५६० और १६८० के बीच माना जा सकता है। भक्तमाल में नाभाजी ने इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य बताया है कि -

अग्रदेव आज्ञा दई भक्तन को यश गाउ ।
भवसागर के तरन कौं नाहिन और उपाउ ॥
भक्तमाल
Sri_Bhaktamal

भक्तमाल के दो पहलू स्पष्ट ही प्रतीत होते हैं, एक में छप्पयों में रामानुज आचार्य से पूर्व के सभी प्रकार के भक्तों के नामों का ही स्मरण है। दूसरे में एक-एक कवि या भक्त पर एक पूरा छप्पय, जिसमें उस भक्त के विशिष्ट गुणों पर प्रकाश पड़ता है।[1] एक छप्पय में छः चरणों के एक छन्द में किसी कवि की जीवनी नहीं आ सकती। इसलिये इसे जीवनी साहित्य नहीं कहा जा सकता। यह भी ठीक है, पर आगे भक्तमाल पर जो टीकाएँ हुई उनमें विस्तारपूर्वक प्रत्येक कवि के जीवन की घटनाओं का वर्णन हुआ है। ऐसी पहली प्रसिद्ध टीका है -- प्रियादास की भक्ति रस बोधिनी, जिसका मंगलाचरण ये है-

महाप्रभु कृष्णचैतन्य मनहरनजू के चरण को ध्यान मेरे नाम मुख गाइये।
ताही समय नाभाजू ने आज्ञा दई लई धारिटीका विस्तारि भक्तमाल की सुनाइये॥
कीजिये कवित्त बंद छंद अति प्यारो लगै जगै जग माहिं कहि वाणी विरमाइये।
जानों निजमति ऐपै सुन्यौ भागवत शुक द्रुमनि प्रवेश कियो ऐसेई कहाइये॥

नाभाजी ने भक्तमाल में चार संप्रदायों का वर्णन किया है-

रामानन्द उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु।
विष्णुस्वामी बोहित्थ सिन्धु संसार पार करु॥
मध्वाचारज मेघ भक्ति सर ऊसर भरिया।
निम्बादित्य आदित्य कुहर अज्ञान जु हरिया॥
जनम करम भागवत धरम संप्रदाय थापी अघट।
चौबीस प्रथम हरि बपु धरे त्यों चतुर्व्यूह कलिजुग प्रगट॥

नाभाजी की भक्तमाल की एक परम्परा ही चल पड़ी। कितनी ही भक्तमालाएँ लिखी गई। भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में अपने-अपने संप्रदायों के भक्तों के विवरण विशेषतः प्रस्तुत किए गए।

भक्तमालाओं की मूल प्रेरणा इस धार्मिक भावना में थी कि भक्त कीर्तन भी हरिकीर्तन है। इस बिन्दु से आरम्भ होकर विविध प्रकार की घटनाओं से युक्त होकर ये भक्तों की कथाएँ अलौकिक तत्वों से युक्त होते हुए भी भक्तों की जीवन-कथा प्रस्तुत करने में प्रवृत्त हुई।

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