छन्द शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है। "छन्दस्" वेद का पर्यायवाची नाम है। सामान्यतः वर्णों और मात्राओं की गेय-व्यवस्था को छन्द कहा जाता है। इसी अर्थ में पद्य शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पद्य अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। भाषा में शब्द और शब्दों में वर्ण तथा स्वर रहते हैं। इन्हीं को एक निश्चित विधान से सुव्यवस्थित करने पर 'छन्द' का नाम दिया जाता है।

छन्दशास्त्र इसलिये अत्यन्त पुष्ट शास्त्र माना जाता है क्योंकि वह गणित पर आधारित है। वस्तुतः देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि छन्दशास्त्र की रचना इसलिये की गई जिससे अग्रिम सन्तति इसके नियमों के आधार पर छन्दरचना कर सके। छन्दशास्त्र के ग्रन्थों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि जहाँ एक ओर प्रस्तार आदि के द्वारा आचार्य छन्दो को विकसित करते रहे वहीं दूसरी ओर कविगण अपनी ओर से छन्दों में किंचित् परिर्वन करते हुए नवीन छन्दों की सृष्टि करते रहे जिनका छन्दशास्त्र के ग्रन्थों में कालान्तर में समावेश हो गया।

प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में छन्दःशास्त्र के लिए अनेक नामों का व्यवहार उपलब्ध होता हैः[1]

(१) छन्दोविचिति, (२) छन्दोमान, (३) छन्दोभाषा, (४) छन्दोविजिनी (५) छन्दोविजिति, (छन्दोविजित), (६) छन्दोनाम, (७) छन्दोव्याख्यान, (८) छन्दसांविच्य, (९.) छन्दसांलक्षण, (१०) छन्दःशास्त्र, (११) छन्दोऽनुशासन, (१२) छन्दोविवृति, (१३) वृत्त, (१४) पिङ्गल

इतिहास संपादित करें

छन्दशास्त्र की रचना कब हुई, इस सम्बन्ध में कोई निश्चित विचार नहीं दिया जा सकता। किंवदन्ति है कि महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं और उनका रामायण नामक काव्य आदिकाव्य है। 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं गमः शाश्वती समाः यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधिः, काममोहितं' - यह अनुष्टुप छन्द वाल्मीकि के मुख से निकला हुआ प्रथम छन्द है जो शोक के कारण सहसा श्लोक के रूप में प्रकट हुआ। यदि इस किंवदन्ती को मान लिया जाए, छन्द की रचना पहले हुई और छन्दशास्त्र उसके पश्चात् आया। वाल्मीकीय रामायण में अनुष्टुप छन्द का प्रयोग आद्योपान्त हुआ ही है, अन्य उपजाति आदि का भी प्रयोग प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है।

एक अन्य किंवदन्ती यह है कि छन्दशास्त्र के आदि आविष्कर्ता भगवान् शेष हैं। एक बार गरुड़ ने उन्हें पकड़ लिया। शेष ने कहा कि हमारे पास एक अप्रतिम विद्या है जो आप सीख लें, तदुपरान्त हमें खाएँ। गरुड़ ने कहा कि आप बहाने बनाते हैं और स्वरक्षार्थ हमें विभ्रमित कर रहे हैं। शेष ने उत्तर दिया कि हम असत्य भाषण नहीं करते। इसपर गरुड़ ने स्वीकार कर लिया और शेष उन्हें छन्दशास्त्र का उपदेश करने लगे। विविध छन्दों के रचनानियम बताते हुए अन्त में शेष ने "भुजङ्गप्रयाति" छन्द का नियम बताया और शीघ्र ही समुद्र में प्रवेश कर गए। गरुड़ ने इसपर कहा कि तुमने हमें धोखा दिया, शेष ने उत्तर दिया कि हमने जाने के पूर्व आपको सूचना दे दी। चतुर्भियकारैर्भुजङ्गप्रयातम् अर्थात् चार गणों से भुजङ्गप्रयाति छन्द बनता है और प्रयुक्त होता है। इस प्रकार छन्दशास्त्र का आविर्भाव हुआ।

इससे प्रतीत होता है कि छन्दशास्त्र एक दैवीय विद्या के रूप में प्रकट हुआ। इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि इसके आविष्ककर्ता 'शेष' नामक कोई आचार्य थे जिनके विषय में इस समय कुछ विशेष ज्ञान और सूचना नहीं है। इसके पश्चात् कहा जाता है कि शेष ने अवतार लेकर पिंगलाचार्य के रूप में छन्दसूत्र की रचना की, जो पिंगलशास्त्र कहा जाता है। यह ग्रंथ सूत्रशैली में लिखा गया है और इस समय तक उपलब्ध है। इसपर टीकाएँ तथा व्याख्याएँ हो चुकी हैं। यही छंदशास्त्र का सर्वप्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसके पश्चात् इस शास्त्र पर संस्कृत साहित्य में अनेक ग्रंथों की रचना हुई।

छंदशास्त्र के रचियताओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है : एक आचार्य श्रेणी, जो छन्दशास्त्र का शास्त्रीय निरूपण करती है और दूसरी कवि श्रेणी, जो छन्दशास्त्र पर पृथक् रचनाएँ प्रस्तुत करती है। थोड़े समय के पश्चात् एक लेखक श्रेणी और प्रकट हुई जिनमें ऐसे लेखक आते हैं जो छन्दों के नियमादिकों की विवेचना अपनी ओर से करते हैं किंतु उदाहरण दूसरे के रचे हुए तथा प्रचलित अंशों से उद्धृत करते हैं। हिन्दी में भी छन्दशास्त्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं।

छ्न्दशास्त्र का विवेच्य विषय संपादित करें

छन्दशास्त्र में मुख्य विवेच्य विषय दो हैं :

  • छंदों की रचनाविधि, तथा
  • छन्द सम्बन्धी गणना जिसमें प्रस्तार, पताका, उद्दिष्ट, नष्ट आदि का वर्णन किया गया है। इनकी सहायता से किसी निश्चित संख्यात्मक वर्गों और मात्राओं के छन्दों की पूर्ण संख्यादि का बोध सरलता से हो जाता है।

छन्द के प्रकार संपादित करें

छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं :

वैदिक छन्द संपादित करें

जिनका प्रयोंग वेदों में प्राप्त होता है। इनमें ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत और स्वरित, इन चार प्रकार के स्वरों का विचार किया जाता है, यथा "अनुष्टुप" इत्यादि। वैदिक छंद अपौरुषेय माने जाते हैं। पिंगलाचार्य जी ने छन्द:शास्त्र में अध्याय 1से लेकर 4अध्याय के7वें सूत्र तक वैदिक छन्दों का प्रयोग किया गया है।

लौकिक छन्द संपादित करें

इनका प्रयोग साहत्यांतर्गत किया जाता हैं, किंतु वस्तुत: लौकिक छंद वे छंद हैं जिनका प्रचार सामान्य लोक अथवा जनसमुदाय में रहता है। ये छंद किसी निश्चित नियम पर आधारित न होकर विशेषत: ताल और लय पर ही आधारित रहते हैं, इसलिये इनकी रचना सामान्य अपठित जन भी कर लेते हैं। लौकिक छंदों से तात्पर्य होता है उन छंदों से जिनकी रचना निश्चित नियमों के आधार पर होती है और जिनका प्रयोग सुपठित कवि काव्यादि रचना में करते हैं। इन लौकिक छंदों के रचना-विधि-संबंधी नियम सुव्यवस्थित रूप से जिस शास्त्र में रखे गए हैं उसे छंदशास्त्र कहते हैं।

छन्दों का वर्गीकरण संपादित करें

छंदों का विभाजन वर्णों और मात्राओं के आधार पर किया गया है। छंद प्रथमत: दो प्रकार के माने गए है : वर्णिक और मात्रिक

वर्णिक छन्द संपादित करें

इनमें वृत्तों की संख्या निश्चित रहती है। इसके दो भी प्रकार हैं- गणात्मक और अगणात्मक।

गणात्मक वणिंक छंदों को वृत्त भी कहते हैं। इनकी रचना तीन लघु और दीर्घ गणों से बने हुए गणों के आधार पर होती है। लघु तथा दीर्घ के विचार से यदि वर्णों क प्रस्तारव्यवस्था की जाए आठ रूप बनते हैं। इन्हीं को "आठ गण" कहते हैं इनमें भ, न, म, य शुभ गण माने गए हैं और ज, र, स, त अशुभ माने गए हैं। वाक्य के आदि में प्रथम चार गणों का प्रयोग उचित है, अंतिम चार का प्रयोग निषिद्ध है। यदि अशुभ गणों से प्रारंभ होनेवाले छंद का ही प्रयोग करना है, देवतावाची या मंगलवाची वर्ण अथवा शब्द का प्रयोग प्रथम करना चाहिए - इससे गणदोष दूर हो जाता है। इन गणों में परस्पर मित्र, शत्रु और उदासीन भाव माना गया है। छंद के आदि में दो गणों का मेल माना गया है। वर्णों के लघु एवं दीर्घ मानने का भी नियम है। लघु स्वर अथवा एक मात्रावाले वर्ण लघु अथवा ह्रस्व माने गए और इसमें एक मात्रा मानी गई है। दीर्घ स्वरों से युक्त संयुक्त वर्णों से पूर्व का लघु वर्ण भी विसर्ग युक्त और अनुस्वार वर्ण तथा छंद का वर्ण दीर्घ माना जाता है।

अगणात्मक वर्णिक वृत्त वे हैं जिनमें गणों का विचार नहीं रखा जाता, केवल वर्णों की निश्चित संख्या का विचार रहता है विशेष मात्रिक छंदों में केवल मात्राओं का ही निश्चित विचार रहता है और यह एक विशेष लय अथवा गति (पाठप्रवाह अथवा पाठपद्धति) पर आधारित रहते हैं। इसलिये ये छंद लयप्रधान होते हैं।

गण और यमाताराजभानसलगाः संपादित करें

वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं। तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं। इन गणों के नाम हैं: यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण। अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं। किस गण में लघु-गुरु का क्या क्रम है, यह जानने के लिए निम्नलिखित सूत्र सहायक होता है-

यमाताराजभानसलगाः ( या, यमाताराजभानसलगं )

जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड़ लेते हैं और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगा लेते हैं, जैसे:

यगण - यमाता =। ऽ ऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽ ऽ ऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज = ऽ ऽ। अन्तलघु
रगण - राजभा = ऽ। ऽ मध्यलघु
जगण - जभान =। ऽ। मध्यगुरु
भगण - भानस = ऽ।। आदिगुरु
नगण - नसल =।। । सर्वलघु
सगण - सलगाः =।। ऽ अन्तगुरु

मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है। जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया।

मात्रिक छन्द संपादित करें

संस्कृत में अधिकतर वर्णिक छन्दो का ही ज्ञान कराया जाता है; मात्रिक छन्दों का कम।

दोहा संपादित करें

संस्कृत में इस का नाम 'दोहडिका' छन्द है। इसके विषम चरणों में तेरह-तेरह और सम चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के आदि में।ऽ। (जगण) इस प्रकार का मात्रा-क्रम नहीं होना चाहिए और अंत में गुरु और लघु (ऽ।) वर्ण होने चाहिए। सम चरणों की तुक आपस में मिलनी चाहिए। जैसे:

।ऽ।ऽ।। ऽ। ऽ ऽऽ ऽ ऽऽ।
महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि।
विधेहि कर्म सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥

इस दोहे को पहली पंक्ति में विषम और सम दोनों चरणों पर मात्राचिह्न लगा दिए हैं। इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में भी आप दोनों चरणों पर ये चिह्न लगा सकते हैं। अतः दोहा एक अर्धसम मात्रिक छन्द है।

हरिगीतिका संपादित करें

हरिगीतिका छन्द में प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु और फिर गुरु वर्ण अवश्य होना चाहिए। इसमें यति 16 तथा 12 मात्राओं के बाद होती हैं; जैसे

।। ऽ। ऽ ऽ ऽ।ऽ।।ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ
मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥

गीतिका संपादित करें

इस छन्द में प्रत्येक चरण में छब्बीस मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यति होती है। जैसे:

ऽ। ऽ ॥ ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना में श्रूयतां
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्।
चंचलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं में पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम् ॥

सम, विषम, अर्धसम छन्द संपादित करें

छंदों का विभाजन मात्राओं और वर्णों की चरण-भेद-संबंधी विभिन्न संख्याओं पर आधारित है। इस प्रकार छंद सम, विषम, अर्धसम होते है। सम छंदों में छंद के चारों चरणों में वर्णस्वरसंख्या समान रहती है। अर्धसम में प्रथम, तृतीय और द्वितीय तथा चतुर्थ में वर्णस्वर संख्या समान रहती है। विषम छंद के चारों चरणों में वर्णों एवं स्वरों की संख्या असमान रहती है। ये वर्ण परस्पर पृथक् होते हैं वर्णों और मात्राओं की कुछ निश्चित संख्या के पश्चात् बहुसंख्यक वर्णों औ स्वरों से युक्त छंद दंडक कहे जाते है। इनकी संख्या बहुत अधिक है।

स्वतंत्र छन्द और मिश्रित छन्द संपादित करें

छंदो का विभाजन फिर अन्य प्रकार से भी किया जा सकता है। स्वतंत्र छंद और मिश्रित छंद। स्वतंत्र छंद एक ही छंद विशेष नियम से रचा हुआ रहता है।

मिश्रित छंद दो प्रकार के है :

  • (१) जिनमें दो छंदों के चरण एक दूसरे से मिला दिए जाते हैं। प्राय: ये अलग-अलग जान पड़ते हैं किंतु कभी-कभी नहीं भी जान पड़ते।
  • (२) जिनमें दो स्वतंत्र छंद स्थान-स्थान पर रखे जाते है और कभी उनके मिलाने का प्रयत्न किया जाता है, जैसे कुंडलिया छंद एक दोहा और चार पद रोला के मिलाने से बनता है।

दोहा और रोला के मिलाने से दोहे के चतुर्थ चरण की आवृत्ति उसके प्रथम चरण के आदि में की जाती है और दोहे के प्रारंभिक कुछ शब्द रोले के अंत में रखे जाते हैं। दूसरे प्रकार का मिश्रित छंद है "छप्पय" जिसमें चार चरण रोला के देकर दो उल्लाला के दिए जाते हैं। इसीलिये इसे षट्पदी अथवा छप्पय (छप्पद) कहा जाता है।

इनके देखने से यह ज्ञात होता है कि छंदों का विकास न केवल प्रस्तार के आधार पर ही हुआ है वरन् कवियों के द्वारा छंद-मिश्रण-विधि के आधार पर भी हुआ है। इसी प्रकार कुछ छंद किसी एक छंद के विलोम रूप के भाव से आए हैं जैसे दोहे का विलोम सोरठा है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवियों ने बहुधा इसी एक छंद में दो एक वर्ण अथवा मात्रा बढ़ा घटाकर भी छंद में रूपांतर कर नया छंद बनाया है। यह छंद प्रस्तार के अंतर्गत आ सकता है।

यति के विचार से छन्द संपादित करें

लघु छंदों को छोड़कर बड़े छंदों का एक चरण जब एक बार में पूरा नहीं पढ़ा जा सकता, उसमें रचना के रुकने का स्थान निर्धारित किया जाता है। इस विरामस्थल को यति कहते हैं। यति के विचार से छंद फिर दो प्रकार के हो जाते हैं-

  • (१) यत्यात्मक : जिनमें कुछ निश्चित वर्णों या मात्राओं पर यति रखी जाती है। यह छंद प्राय: दीर्घाकारी होते हैं जैसे दोहा, कवित्त आदि।
  • (२) अयत्यात्मक : जिन छंदों में चौपाई, द्रुत, विलंबित जैसे छंद आते हैं। यति का विचार करते हुए गणात्मक वृत्तों में गणों के बीच में भी यति रखी गई है जैसे मालिनी। इससे स्पष्ट है कि यति का उद्देश्य केवल रचना को कुछ विश्राम देना ही है।

छंद में संगीत तत्त्व द्वारा लालित्य का पूरा विचार रखा गया है। प्राय: सभी छंद किसी न किसी रूप में गेय हो जाते हैं। राग और रागिनी वाले सभी पद छंदों में नहीं कहे जा सकते। इसी लिये "गीति" नाम से कतिपय पद रचे जाते हैं। प्राय: संगीतात्मक पदों में स्वर के आरोह तथा अवरोह में बहुधा लघु वर्ण को दीर्घ, दीर्घ को लघु और अल्प लघु भी कर लिया जाता है। कभी कभी हिंदी के छंदों में दीर्घ ए और ओ जैसे स्वरों के लघु रूपों का प्रयोग किया जाता है।

पुष्पिताग्रा छन्द संपादित करें

उदा.

"इति मतिरुपकल्पिता वितृष्णा, भगवति सात्वतपुंगवे विभुन्मि।
स्वसुखमुपगते क्कचिद्विहर्तुं, प्रकृतिमुपेयुषि यद्भवप्रवाह:॥"[2]

छन्दशास्त्र और गणित संपादित करें

 
पास्कल त्रिकोण की प्रथम पाँच पंक्तियाँ। पास्कल त्रिकोण को 'हलायुध त्रिकोण' भी कहते हैं। [3]

सर्वाधिक आनन्ददायी ध्वनि का पता लगाने के लिए प्राचीन भारतीय विद्वानों ने क्रमचय और संचय का उपयोग किया।[4] पिंगल के छन्दःसूत्रम् में द्वयाधारी प्रणाली (बाइनरी सिस्टम) का वर्णन है जिसके प्रयोग द्वारा वैदिक छान्दों के क्रमचयों की गणना की जा सकती है।[5][6][7] पिंगल तथा क्लासिकी युग के छन्दशास्त्रियों ने मात्रामेरु की विधि का विकास किया। मात्रामेरु, एक संख्या-अनुक्रम (सेक्वेंस) है जो 0, 1, 1, 2, 3, 5, 8 आदि के क्रम में चलता है। इसे प्रायः फिबोनाकी श्रेणी कहा जाता है।[5][6][8] १०वीं शताब्दी के छन्दशास्त्री हलायुध ने छन्दःसूत्र के अपने भाष्य में तथाकथित पास्कल त्रिकोण के प्रथम पाँच पंक्तियों का वर्णन किया है। हलायुध ने मेरुप्रस्तार नामक विधि का विकास किया जो वस्तुतः 'पास्कल त्रिकोण' का ही दूसरा रूप है। इसलिए गणित की पुस्तकों में अब पास्कल त्रिकोण के स्थान पर 'हलायुध त्रिकोण' लिखा जाने लगा है।[5][3] ११वीं शताब्दी के छन्दशास्त्री रत्नाकरशान्ति ने अपने छन्दोरत्नाकर नामक ग्रन्थ में एक कलनविधि दी है जिसके द्वारा प्रत्ययों से छन्दों के द्विपद गुणक की गणना की जाती है। जो छः प्रत्यय प्रयुक्त होते हैं, वे ये हैं-[9][10]

  • (१) प्रस्तार (table of arrangement) : किसी दिए हुए 'लम्बाई' के लिए सभी सम्भव छन्दों की गणना करने (सारणी के रूप में व्यवस्थित करने) की विधि,
  • (२) नष्ट : सारणी में किसी छन्द का स्थान दिया हुआ हो तो उस छन्द की गणना करना (पूरी सारणी को बिना बनाए )
  • (३) उद्दिष्ट : पूरी सारणी को बिना बनाए ही सारणी में किसी दिए हुए छन्द का स्थान ज्ञात करना
  • (४) लघुक्रिया या लगक्रिया  : सारणी में स्थित उन छन्दों की संख्या की गणना करना जिनमें दी हुई संख्या में लघु (या, गुरु) मात्राएँ हों।
  • (५) सङ्ख्यान : सारणी में स्थित सभी छन्दों की संख्या की गणना करना
  • (६) अध्वन या अध्वयोग : किसी दिए हुए लम्बाई (वर्ग) के प्रस्तार सारणी को लिखने के लिए आवश्यक स्थान की गणना

छन्दशास्त्र का प्रभाव संपादित करें

भारत में संपादित करें

संस्कृत परम्परा में साहित्यिक ज्ञान के पाँच अंगों में छन्द भी एक है। अन्य चार हैं- गुण, रीति या मार्ग, अलङ्कार, तथा रस। संस्कृत ग्रन्थों में छन्दों को पवित्र माना जाता है। इनमें भी गायत्री छन्द को सर्वाधिक परिशुद्ध एवं पवित्र माना जाता है।

अन्य देशों में संपादित करें

भारतीय छन्दशास्त्र का दक्षिणपूर्वी एशिया के छन्दों एवं काव्य पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। उदाहरण के लिए, थाई चान (थाई: ฉันท์).[11] ऐसा माना जाता है कि यह प्रभाव या तो कम्बोडिया से होकर आया है या सिंहल से। [11] संस्कृत छन्दों का ६ठी शताब्दी के चीनी साहित्य पर भी प्रभाव देखा गया है। शायद यह प्रभाव उन बौद्ध भिक्षुओं के साथ गया जो भारत से चीन गए।[12]

छन्दशास्त्र से सम्बन्धित संस्कृत ग्रन्थ संपादित करें

संस्कृत छन्दशास्त्र से सम्बन्धित लगभग १५० ग्रन्थ ज्ञात हैं जिनमें कोई ८५० छन्दों की परिभाषा और वर्णन है।

इसकी टीकाएं-
  • जयदेवकृत -- जयदेवछन्द (६ठी शताब्दी)
  • गणस्वामी -- जानाश्रयीछन्दोविचितिः (६ठी शताब्दी)
  • अज्ञात -- छन्दोरत्नमञ्जूषा (६ठी शताब्दी)
  • भट्ट हलायुध -- छन्दशास्त्र का भाष्य (१०वीं शताब्दी)
  • लक्ष्मीनाथसुतचन्द्रशेखर -- पिङ्गलभावोद्यात
  • चित्रसेन -- पिङ्गलटीका
  • रविकर -- पिङ्गलसारविकासिनी
  • राजेन्द्र दशावधान -- पिङ्गलतत्वप्रकाशिका
  • लक्ष्मीनाथ -- पिङ्गलप्रदीप
  • वंशीधर -- पिङ्गलप्रकाश
  • वामनाचार्य -- पिङ्गलप्रकाश
  • अज्ञात (पूना के भंडारकर संस्था में सुरक्षित) - कविदर्पण
  • अज्ञात (पूना के भंडारकर संस्था में सुरक्षित) - वृत्तदीपका
  • अज्ञात (पूना के भंडारकर संस्था में सुरक्षित) - छन्दसार
  • अज्ञात (पूना के भंडारकर संस्था में सुरक्षित) - छान्दोग्योपनिषद
  • दामोदर मित्र - वाणीभूषण
अन्य ग्रन्थों में छन्दशास्त्र का वर्णन

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "छन्दःशास्त्र के पर्याय--८". मूल से 22 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 दिसंबर 2018.
  2. भागवत महापुराण (स्कंध 1, अध्ययाय 9, श्लोक 32)
  3. Alexander Zawaira; Gavin Hitchcock (2008). A Primer for Mathematics Competitions. Oxford University Press. पृ॰ 237. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-156170-2.
  4. Kim Plofker (2009). Mathematics in India. Princeton University Press. पपृ॰ 53–57. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-691-12067-6.
  5. Nooten, B. Van (1993). "Binary numbers in Indian antiquity". J Indian Philos. Springer Science $\mathplus$ Business Media. 21 (1): 31–50. डीओआइ:10.1007/bf01092744.
  6. Susantha Goonatilake (1998). Toward a Global Science. Indiana University Press. पृ॰ 126. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-253-33388-9.
  7. Alekseĭ Petrovich Stakhov (2009). The Mathematics of Harmony: From Euclid to Contemporary Mathematics and Computer Science. World Scientific. पपृ॰ 426–427. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-981-277-583-2. मूल से 8 अप्रैल 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 नवंबर 2018.
  8. Keith Devlin (2012). The Man of Numbers: Fibonacci's Arithmetic Revolution. Bloomsbury Academic. पृ॰ 145. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-4088-2248-7.
  9. प्रस्तारो नष्टमुद्दिष्टं एकद्वयादिलगक्रिया।
    सङ्ख्या चैवाध्वयोगश्च षडेते प्रत्ययाः स्मृताः॥ (वृत्तरत्नाकर ६.१)
  10. छन्द-समीक्षा में प्रतिपादित छन्दोगणित की प्रासंगिकता Archived 2018-11-05 at the वेबैक मशीन (International Journal of Advanced Research and Development ; ISSN: 2455-4030, Impact Factor: RJIF 5.24 ; www.advancedjournal.com Volume 2; Issue 3; May 2017; Page No. 275-278)
  11. B.J. Terwiel (1996). Jan E. M. Houben (संपा॰). Ideology and Status of Sanskrit: Contributions to the History of the Sanskrit Language. BRILL. पपृ॰ 307–323. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 90-04-10613-8.
  12. B.J. Terwiel (1996). Jan E. M. Houben (संपा॰). Ideology and Status of Sanskrit: Contributions to the History of the Sanskrit Language. BRILL. पपृ॰ 319–320 with footnotes. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 90-04-10613-8.

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

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