भूमिधर (Land Tenure) भूमि की उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अंतर्गत भूमि पर अधिकार रखनेवाले व्यक्तियों का वर्गीकरण हो और उनके अधिकारों तथा उनके दायित्वों का उल्लेख हो। विभिन्न कालों में भूधृति के भिन्न-भिन्न नियम रहे हैं।

इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में विभिन्न भूधृतियाँ पाई जाती हैं। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद प्राय: सभी राज्यों में भूमिसुधार संबंधी कानून बनाए गए हैं। इनका लक्ष्य यह रहा है कि भूमि पर खेती करनेवालों और राज्य के बीच से मध्यवर्तीयों को समाप्त कर दिया जाए प्राचीन काल मे इस तरह की व्यवस्था के स्पस्ट प्रमाण नही मिलते है

परिचय संपादित करें

ब्रिटिश शासनकाल में भी भूमिव्यवस्था में अनेक बार परिवर्तन किए गए। इस संबंध में लार्ड कार्नवालिस द्वारा स्थापित स्थायी भूमि व्यवस्था (परमानेन्ट सेटिलमेन्ट) का उल्लेख आवश्यक है। लार्ड कार्नवालिस ने भारत में इंग्लैड जैसी भूमिव्यवस्था स्थापित करने की चेष्टा की थी। इस व्यवस्था के फलस्वरूप बंगाल के जमींदार सरकार को स्थायी रूप से मालगुजारी देते थे। सन् १९०० में बंगाल के जमींदार सरकार को चार करोड़ रुपए मालगुजारी देते थे जबकि वे स्वयं भूमि पर खेती करने वाले किसानों से १६११ करोड़ रुपए लगान के रूप में वसूल करते थे। किसानों की रक्षा करने के लिये सन् १८८६ और १९२८ में कानून बनाए गए जिनके आधार पर किसानों को देदखल किए जाने से रोका गया। सन् १९३८ में वहाँ फ्लाउड कमीशन नियुक्त किया गया। उसने बंगाल की भूमिव्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने का सुझाव दिया। सन् १९४५ में बंगाल की स्थायी भूमिव्यवस्था का अंत कर दिया गया और वहाँ खेती करनेवालों और सरकार के बीच के मध्यवर्तियों को समाप्त कर दिया गया।

मद्रास में ब्रिटिश शासनकाल में रैयतवाड़ी और जमींदारी व्यवस्था थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था के अंतर्गत किसान अपने खेत का स्थायी रूप से मालिक रहता था। पैतृक संमत्ति के रूप में भूमि उसके उत्तराधिकारियों को मिल जाती थी। उसे अपनी भूमि को बेचने अथवा हस्तांरित करने का भी अधिकर था। रैयत को केवल सरकार को मालगुजारी देनी पड़ती थी। धीरे धीरे उक्त रैयत जमींदार बन गए और मद्रास की भूमि व्यवस्था में भी वे सब बुराइयाँ उत्पन्न हो गई जो जमींदारी व्यवस्था में पाई जाती थी। मद्रास के बहुत बड़े भाग पर जमींदारी व्यवस्था की भूधृति थी। सन् १८०२ में मद्रास के पाँचवें भाग में जमींदारों को स्थायी भूमिव्यवस्था के अंतर्गत जमीन दी गई। जमींदारों को अपनी भूमि के लिये सरकार को 'पेशकस्त' देना पड़ता था। सन् १९४६ में मद्रास के कांग्रेसी मंत्रिमंडल ने जमींदारी उन्मूलन का निश्चय किया और सन् १९५० में वहाँ भी जमीदारी उन्मूलन कानून बन गया। इस कानून के द्वारा मद्रास में भी मध्यवर्तियों को समाप्त कर दिया गया, साथ ह रैयतवाड़ी व्यवस्था में सुधार करने और किसानों को आवश्यक सुविधाएँ देने के लिये सन् १९५४ में एक कानून बनाया गया जिसके जरिए किसानों की जोतों की सुरक्षा ओर उसके लगान की व्यवस्था की गई है।

बंबई प्रदेश में भूमिव्यवस्था का आधार रैयतवाड़ी भूमिव्यवस्था ही थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत जोतों की सुरक्षा रहती थी और भूमि के वर्गीकरण के अनुसार उस पर लगान निश्चित किया जाता था। छोटे किसान और सरकार के बीच में सीधा संपर्क रहता था। किसान को अपनी भूमि हस्तांतरित करने, बेचने, रेहन रखने या दान देने का अधिकारश् था। वह अपने इच्छानुसार अपनी जमीन छोड़ सकता था। प्रारंभ में बंबई में रैयतों के दो वर्ग थे, प्रथम 'मीरासदार' और द्वितीय, 'उपरी'। सन् १९३८ में बंबई में भूमिसुधार कानून की व्यवस्था की गई। बंबई में सन् १९४९ और १९५१ में भी भूमिसुधार कानून बनाए गए। भूमिव्यवस्था के इन सुधारों से किसानों की जोतों को पहले से अधिक सुरक्षित कर दिया गया है और उनके अधिकार भी बढ़ा दिए गए हैं।

वर्तमान मध्यप्रदेश, पुराने मध्यप्रदेश, भोपाल, ग्वालियर और इंदौर तथा रींवा और सेंट्रल एजेंसी के क्षेत्र को मिलाकर बनाया गया है। पुराने मध्यप्रदेश की भूमिव्यवस्था दो प्रकार की थी। प्रथम, कुछ क्षेत्र में रैयतवाड़ी व्यवस्था थी और द्वितीय, कुछ क्षेत्र में मालगुजारी की वसूली वसूल करने पर २५ प्रतिशत कमीशन मिलता था। रैयत का अपनी भूमि पर वंशानुक्रम से अधिकार रहता था लेकिन उसे भूमि हस्तांतरित करने का अधिकार नहीं रहता था। लगान न देने पर, गैरकानूनी ढंग से जमीन हस्तांतरित करने पर, खेती न कर सकने पर और भूमिव्यवस्था का उल्लंघन करने पर रैयत को भूमि से बेदखल किया जा सकता था। छोटे शिकमी काश्तकारों को किसी प्रकार की कानूनी सुरक्षा नहीं मिलती थी। धीरे धीरे रैयतवाड़ी क्षेत्र का पटेल अपने क्षेत्र का जमींदार सा बन बैठा। सन् १९५१ में मध्य प्रदेश में एक कानून बनाया गया जिसके द्वारा ऐसी जमींदारी को समाप्त कर दिया गया। सन् १९५३ में ग्राम पंचायत कानून बनाया गया जिसके द्वारा वहाँ की भूमिव्यवस्था में सुधार किया गया।

बिहार की भूमिव्यवस्था ब्रिटिश शासनकाल में तीन प्रकार की थी। प्रदेश के बड़े भूभाग पर स्थायी भूमिव्यवस्था लागू थी जिसे लार्ड कार्नवालिस ने शुरू किया था। कुछ क्षेत्रों में भूमि का प्रबंध अस्थायी रूप से कुछ निश्चित समय के लिये किया जाता था ओर कुछ ऐसी भूमि थी जिसका प्रबंध सरकार की ओर से ऐसे किया जाता था जैसे वह स्वयं उस जमीन की जमींदार हो। ऐसी भूमी को 'खास महाल' कहा जाता था। बड़े जमींदार के अतिरिक्त दो प्रकार के काश्तकार होते थे-एक, ऐसे किसान जिनका लगान स्थायी रूप से निश्चित रहता था और दूसरे, जो कुछ समय के लिय जमीन पर अधिकार पाते थे। सन् १९३८ में बिहार में कृषि आयकार कानून बनाया गया। उसके अधीन कृषि से होनेवाली ५००० रु० से अधिक वार्षिक आय पर आयकर लगाने की व्यवस्था की गई। सन् १९५० में बिहार भूमिसुधार कानून बनाया गया जिसके अधीन जमींदारी का उन्मूलन कर दिया गया। सन् १९५३ में बिहार की समस्त भूमि पर सरकार का स्वामित्व हो गया और अब वहाँ किसान जोतदार के और सरकार के बीच मध्यवर्ती नहीं रह गए हैं। अब किसानों की जोतों को सुरक्षित कर दिया गया और उनका लगान भी निश्चित कर दिया गया है।

उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमिसुधार कानून, जो सन् १९५१ में बना था, उसके पहले भूमिव्यवस्था के सुधार के अनेक प्रयास हो चुके थे। उत्तर प्रदेश भूमि राजस्व कानून १९०१ में बना था। बाद में सन् १९२६ तथा सन् १९३९ में उत्तरप्रदेश काश्तकारी (टेनेन्सी) कानून बनाए गए थे।

उत्तरप्रदेश की भूमिव्यवस्था का सविस्तार उल्लेख करने के पूर्व भारत में भूमिव्यवस्था के विकास का सिंहावलोकन कर लेना अच्छा होगा। हिंदू शासनकाल में मनुस्मृति के अनुसार देश राजतंत्र ग्रामों के संगठन पर आधारित था। दस ग्रामों का प्रशासन करनेवाला अधिकारी ग्राम अधिपति कहलाता था। उसे दो हल से खेती करने लायक भूमि दी जाती थी। २० ग्रामों के प्रशासन अधिकारी को पँाच हल की भूमि, एक सौ ग्रामों के प्रशासन अधिकारी को एक बड़े नगर की आमदनी दी जाती थी। 'अर्थशास्त्र' में भूमि व्यवस्था के विस्तृत उल्लेख हैं। राजस्व दो प्रकार का होता था, एक राष्ट्र और दूसरा सीता। राष्ट्र राजस्व सामान्य मालगुजारी की भाँति कृषकों से भूमिकर के रूप में लिया जाता था और सीता राजस्व उस भूमि से लिया जाता था जो राष्ट्र के अधीन रहती था और उसपर प्रशासन की ओर से कृषि की जाती थी। अर्थशास्त्र में भूमि की नापजोख और भूमिराजस्व निश्चित करने की विधि पर भी प्रकाश डाला गया है। पाँच या दस गाँव के प्रबंध को देखने वाले अधिकारी को गोप कहते थे। आजकल के कानूनगों को उसका समकक्ष कहा जा सकता है। भूमि का वर्गीकरण किया जाता था और इन्हीं वर्गों के अनुसार राजस्व निश्चित किया जाता था। ग्रामों की अपनी व्यवस्था का संचालन पंचायतों द्वारा होता था राजस्व अदा करने की जिम्मेदारी पूरे गाँव की सामूहिक रूप से होती थी।

मुसलमानी शासनकाल में और विशेष रूप से शेरशाह और बाद में अकबर शासनकाल में भारत की प्राचीन भूमिव्यवस्था में कुछ परिवर्तन किए गए। स्थानीय राजा अथवा सनद पाए जमींदारों के जरिए लगान वसूल किया जाने लगा। सामंतवादी प्रथा का विकास इस समय तक हो चुका था। राजस्व के अतिरिक्त 'अबवाब' अथवा अन्य प्रकार की गैरकानूनी वसूली भी होने लगी थी। इस्लामी कानून के अधीन मुसलमानों से 'उश्र' वसूल किया जा सकता था और गैरमुसलमानों से खिराज वसूल किया जा सकता था। खिराज दो प्रकार का होता था। प्रथम, 'मुकस्सीमाह खिराज' जो बँटाई की भाँति उपज के हिस्से के रूप में लिया जाता था और द्वितीय 'वजीफा खिराज' जो किसान की जोत के हिसाब से एक निश्चित रकम के रूप में वसूल किया जाता था। मुसलमान शासक जमीन पर शासक का स्वामित्व नहीं मानते थे। इस बात के प्रमाण उपलब्ध हैं कि अकबर, शाहजहाँ और औरंगजेब ने किला बनाने अथवा दूसरे शाही कामों के लिये जमीन खरीदकर ली थी।

ब्रिटिश शासनकाल में उत्तरप्रदेश में समय समय पर प्राप्त क्षेत्रों में अलग अलग भूमिव्यवस्था की गई। सन् १७७५ में अवध के नवाब और ईस्ट इंडिया कंपनी में हुई संधि के अधीन बलिया, बनारस, जोनपुर और आजमगढ़ के कुछ क्षेत्र कंपनी को मिले; उनमें स्थायी भूमिव्यवस्था लागू की गई। सन् १८०१ में अवध के नवाब से आजमगढ़, गोरखपुर, बस्ती, इलाहाबाद, फतेहपुर, कानपुर, बदायूँ आदि जिले कंपनी को मिल गए। आगरा, मेरठ, मुजफ्फरनगर आदि जिले सन् १८०३ में ईस्ट इंडिया कंपनी को मिले। सन् १८०३, १८०७ और १८४० में बुंदेलखंड के जिले भी अंग्रेजों को मिल गए। सन् १८१५ में देहरादून जिला भी अंग्रजों के कब्जे में आ गया। अंत में सन् १८५६ में पूरे अवध पर अंग्रजों ने अधिकार कर लिया। १८५९ में आगरा और बनारस के क्षेत्रों में समान भूमिव्यवस्था कायम रखी गई। ब्रिटिश शासनकाल में जो जमींदार आरंभ में केवल राजस्व एकत्र करने का कम करते थे और जिनका स्वयं खेती करने से कोई विशेष संबंध नहीं था उनको स्थायी रूप से भूमि का प्रबंधक मान लिया गया और प्रशासन की ओर से उनसे ही संबंध रखा जाने लगा और किसानों के हितों का ध्यान नहीं रखा गया। जमींदारी व्यवस्था में जमींदारों से लिया जानेवाला राजस्व मालगुजारी या निश्चित कर दी जाती थी और किसानों से लगान वसूली की उन्हें छूट सी मिल गई थी। अस्थायी व्यवस्थावाले क्षेत्र में समय समय पर राजस्व निश्चित किया जाता था। रैयतवाड़ी क्षेत्र में भी राजस्व समय समय पर निश्चित होता था और रैयत के अपनी भूमि पर स्थायी अधिकार रहता था। आरंभ में सन् १८८६ में अवध रेंट ऐक्ट और सन् १९०१ में आगरा टैनेंसी ऐक्ट बनाए गए। सन् १९२१ और १९२६ में काश्तकारों को कुछ सुविधाएँ देने के लिये उक्त कानूनों में संशोधन किए गए। सन् १९३८ में यू० पी० टेनेंसी ऐक्ट नामक कानून बनाया गया। उसमें काश्तकारों का उनकी भूमि पर मौरूसी हक दिए गए। सन् १९५१ में उत्तरप्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमिसुधार कानून बनाया गया। इस कानून के अधीन किसानों के पुराने वर्गीकरण क समाप्त कर किसानों को चार श्रेणियों में बाँटा गया है, (१) भूमिधर, (२) सीरदार, (३) आसामी और (४) अधिवासी। इस कानून के पहले किसानों को सात श्रेणियों में रखा जाता था। जिनमें खुदकाश्त, मौरूसी काश्तकार, सीरदार, काश्तकार और शिकम काश्तकार आदि शामिल थे। नए कानून के अनुसार भूमिधर दो प्रकार के होते हैं, एक तो ऐसे भूमिधर जो पहले के जमींदार हैं और अब अपनी खुदकाश्त अथवा सीरवाली जमीन के भूमिधर बन गए हैं, दूसरे जिन काश्तकरों ने लगान का दस गुना लगान एक साथ जमा कर यह अधिकार प्राप्त कर लिया है। भूमिधरों को आधी मालगुजारी ही देनी पड़ती है। सीरदार की परिभाषा में कहा गया है कि वे सभी किसान जो जमीन पर मौरूसी काबिज थे, जिनके नाम पट्टा दवामी या इस्तमरारी था, ऐसे लोग जिन्हें गाँव सभा ने सीरदार काश्तकार के हक मिल गए हैं, ये सब लोग सीरदार काश्तकार मान लिए गए है। आसामी उन काश्तकारों को कहते हैं जो सीरवाली भूमि पर खेती करते थे अथवा ठेकेदारों की भूमि पर खेती करते थे। पहले के शिकमी कश्तकार भी इसी श्रेणी में आ गए हैं। अधिवासी ऐसे अस्थायी काश्तकारों को कहा जाता है जो भूमिधर और सीरदार की जमीन पर काश्त करते हैं, जिन्हें तीन वर्ष के लिये खेती करने के लिये जमीन मिलती है। २५० रु० से कम लगान देनेवाले ऐसे किसान जो स्वयं अपनी खेती नहीं कर सकते, उनकी जमीन पर खेती करनेवाले किसान भी अधिवासी कहलाते हैं।

इस प्रकार नवीन भूधृति की स्थापना हो चुकी है। अब इस बात का प्रयास किया जा रहा है कि काश्तकारों की श्रेणियों को इससे भी कम कर दिया जाय, जिससे किसानों की जोत की सुरक्षा हो और उन्हें खेतों में अधिक धन लगाकर अपनी उपज बढ़ाने के लिये उत्साहित किया जा सके।