ययाति

यादवों, पांडवों और कौरवों के पूर्वज

ययाति, चन्द्रवंशी राजा थे। वे राजा नहुष के छः पुत्रों याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति में से एक थे। ययाति की कथा महाभारत के आदि पर्व में, भागवत पुराण में, और मत्स्य पुराण में आती है। [1] याति राज्य, अर्थ आदि से विरक्त रहते थे इसलिये राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके करवा दिया। ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ।

राजा ययाति

देवयानी के साथ उनकी सखी शर्मिष्ठा भी ययाति के भवन में रहने लगे। ययाति ने शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी की वे देवयानी भिन्न किसी ओर नारी से शारीरिक सम्बन्ध नहीं बनाएंगे। एकबार शर्मिष्ठा ने ययाति से विवाह करने की इच्छा जताई परंतु निहुश को शुक्राचार्यजी का भय था लेकिन शमिष्ठा के लगातर प्रयास के बाद निहुश को शर्मिष्ठा से विवाह करना पड़ा । इस तरह देवयानी से छुपाकर शर्मिष्ठा एवं ययाति ने तीन वर्ष बीता दिए। उनके गर्भ से तीन पुत्रलाभ करने के बाद जब देवयानी को यह पता चला तो उसने शुक्र को सब बता दिया। शुक्र ने ययाति को वचनभंग के कारण शुक्रहीन वृद्ध होने का श्राप दिया।

ययाति की दो पत्नियाँ थीं। शर्मिष्ठा के तीन और देवयानी के दो पुत्र हुए। ययाति ने अपनी वृद्धावस्था अपने पुत्रों को देकर उनका यौवन प्राप्त करना चाहा, पर पुरू को छोड़कर और कोई पुत्र इस पर सहमत नहीं हुआ। पुत्रों में पुरू सबसे छोटा था, पर पिता ने इसी को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया और स्वयं एक सहस्र वर्ष तक युवा रहकर शारीरिक सुख भोगते रहे। एक हजार वर्ष बाद पुरू को बुलाकर ययाति ने कहा - 'इतने दिनों तक सुख भोगने पर भी मुझे तृप्ति नहीं हुई। तुम अपना यौवन लो, मैं अब वानप्रस्थ आश्रम में रहकर तपस्या करूँगा।' फिर घोर तपस्या करके ययाति स्वर्ग पहुँचे, परन्तु थोड़े ही दिनों बाद इंद्र के शाप से स्वर्गभ्रष्ट हो गए (महाभारत, आदिपर्व, ८१-८८)। अंतरिक्ष पथ से पृथ्वी को लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र, अष्ट, शिवि आदि मिले और इनकी विपत्ति देखकर सभी ने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें फिर स्वर्ग लौटा दिया। इन लोगों की सहायता से ही ययाति को अन्त में मुक्ति प्राप्त हुई।

ययाति ग्रंथि संपादित करें

चित्र:Sharmista was questined by Devavayani.jpg
देवयानी द्वारा शर्मिष्ठा से प्रश्न पूछा जाना

ययाति ग्रंथि वृद्धावस्था में यौवन की तीव्र कामना की ग्रंथि मानी जाति है। किंवदंति है कि, राजा ययाति एक सहस्र वर्ष तक भोग लिप्सा में लिप्त रहे किन्तु उन्हें तृप्ति नहीं मिली। विषय वासना से तृप्ति न मिलने पर उन्हें उनसे घृणा हो गई और उन्होंने पुरु की युवावस्था वापस लौटा कर वैराग्य धारण कर लिया। ययाति को वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होने कहा-

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥

अर्थात, हमने भोग नहीं भुगते, बल्कि भोगों ने ही हमें भुगता है; हमने तप नहीं किया, बल्कि हम स्वयं ही तप्त हो गये हैं; काल समाप्त नहीं हुआ हम ही समाप्त हो गये; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हुए हैं !

सन्दर्भ संपादित करें

विस्तृत अध्ययन हेतु संपादित करें