राम दयाल मुंडा

भारतीय राजनीतिज्ञ

राम दयाल मुंडा (23 अगस्त 1939-30 सितंबर 2011) भारत के एक प्रमुख बौद्धिक और सांस्कृतिक व्यक्ति थे। आदिवासी अधिकारों के लिए राँची, पटना, दिल्ली से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों तक उन्होंने आवाज उठायी, दुनिया के आदिवासी समुदायों को संगठित किया और देश व अपने गृहराज्य झारखंड में जमीनी सांस्कृतिक आंदोलनों को नेतृत्व प्रदान किया। 2007 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सम्मान मिला, तो 22 मार्च 2010 में राज्यसभा के सांसद बनाए गए और 2010 में ही वे पद्मश्री से सम्मानित हुए।

राम दयाल मुंडा
जन्म23 अगस्त 1939
दिउड़ी, तमाड़, राँची, झारखण्ड, भारत
मौत30 सितम्बर 2011(2011-09-30) (उम्र 72)
राँची, झारखण्ड, भारत
पेशाशिक्षा, कलाकार, लेखक और राजनीति
राष्ट्रीयताभारतीय
विधाकहानी, नाटक, निबंध और कविता
विषयआदिवासी-हिन्दी साहित्य
आंदोलनझारखंड आंदोलन
सांस्कृतिक पुनर्जागरण आंदोलन
उल्लेखनीय कामsआदि धरम, सरहुल मंत्र, हिसिर, मुंडारी की नई कहानियां, नदी संबंधी गीत और अन्य नगीत, Jharkhand Movement (Ed.)
खिताबपद्म श्री
संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
जीवनसाथीअमिता मुंडा
बच्चे1

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा संपादित करें

राँची से 60 किलोमीटर दूर तमाड़ के दिउड़ी गांव में 1939 में जन्मे मुंडा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा 1947 से 1953 तक अमलेसा लूथरन मिशन स्कूल तमाड़ से प्राप्त की। माध्यमिक शिक्षा 1953 से 1957 तक खूंटी हाई स्कूल से और रांची विश्वविद्यालय, रांची से मानव विज्ञान में स्नातकोत्तर (1957-1963) किया। इसके बाद उच्चतर शिक्षा अध्ययन एवं शोध के लिए वे शिकागो विश्वविद्यालय, अमेरिका चले गए जहां से उन्होंने भाषा विज्ञान में पीएचडी (1963-1968) की। फिर वहीं से उन्होंने दक्षिण एशियाई भाषा एवं संस्कृति विभाग में शोध और अध्ययन (1968-1971) किया। शोध-अध्ययन के बाद अमेरिका के ही मिनिसोटा विश्वविद्यालय के साउथ एशियाई अध्ययन विभाग में 1981 तक एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कार्य किया। डॉ॰ मुंडा को अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज, भारत स्थित यूएसए एजुकेशन फाउंडेशन और जापान फाउंडेशन की तरफ से फेलोशिप भी प्राप्त हुआ था। 1982 में वे रांची लौट आए और तत्कालीन संभागीय आयुक्त व रांची विश्वविद्यालय के कुलपति कुमार सुरेश सिंह के सहयोग से रांची विश्वविद्यालय में आदिवासी और क्षेत्रीय भाषा विभाग की स्थापना की, जो देश के किसी भी विश्वविद्यालय में आदिवासी भाषा-साहित्य का पहला विभाग था।

व्यक्तित्व संपादित करें

डा. रामदयाल मुंडा न सिर्फ एक अंतरराष्ट्रीय स्तर के भाषाविद्, समाजशास्त्री और आदिवासी बुद्धिजीवी और साहित्यकार थे, बल्कि वे एक अप्रतिम आदिवासी कलाकार भी थे। उन्होंने मुंडारी, नागपुरी, पंचपरगनिया, हिंदी, अंग्रेजी में गीत-कविताओं के अलावा गद्य साहित्य रचा है। उनकी संगीत रचनाएं बहुत लोकप्रिय हुई हैं और झारखंड की आदिवासी लोक कला, विशेषकर ‘पाइका नृत्य’ को वैश्विक पहचान दिलाई है। वे भारत के दलित-आदिवासी और दबे-कुचले समाज के स्वाभिमान थे और विश्व आदिवासी दिवस मनाने की परंपरा शुरू करने में उनका अहम योगदान रहा है।

डॉ॰ मुंडा 80 के दशक के अंत में भारत सरकार द्वारा बनायी गयी ‘कमेटी ऑन झारखण्ड मैटर’ के प्रमुख सदस्य थे। उसी दौरान उन्होंने ‘द झारखण्ड मूवमेंट रेट्रोसपेक्ट एंड प्रोस्पेक्ट’ नामक आलेख लिखा। भारत के आदिवासी समुदायों के परंपरागत और संवैधानिक अधिकारों को लेकर वे बहुत सजग थे। विकास को लेकर उनकी अवधारणा वैकल्पिक थी। आदिवासी अधिकारों के आंदोलन में उन्होंने हमेशा शिक्षा को महत्वपूर्ण माना, इसीलिए अमेरिका से प्राध्यापक की नौकरी छोड़ कर वे 1980-82 में रांची लौट आए।

रामदयाल मुंडा आदिवासियों के स्वतंत्र पहचान के पक्षधर थे और इसके लिए वे धर्म को सबसे महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने आदिवासियों के पारंपरिक धर्म को ‘आदि धरम’ के रूप में खड़ा किया और उसे प्रतिष्ठित करने की दिशा में काम किया। वे मानते थे कि आदिवासियों का जो धर्म है, वह मुख्यधारा के सभी धर्माे तथा इसलाम, हिंदू और ईसाई धर्म से अलग है। उन्होंने ‘आदि धरम’ नामक पुस्तक लिखी।

नागपुरी, मुंडारी, हिन्दीअंग्रेजी में भारतीय आदिवासियों के भाषा, साहित्य, समाज, धर्म व संस्कृति, विश्व आदिवासी आंदोलन और झारखंड आंदोलन पर उनकी 10 से अधिक पुस्तकें तथा 50 से ज्यादा निबंध प्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी में भी उन्होंने कई पुस्तकों का अनुवाद व संपादन किया है।

आदिवासी चिंतक वेरियर एल्विन का उदाहरण देते हुए वे समझाते थे कि आदिवासियों के विकास के तीन रास्ते हैं- अपने पुरातन रीति-रिवाजों के साथ अलग रहो, मुख्यधारा के स्थापित धर्माे के साथ घुल-मिल जाओ और उसकी संस्कृति अपना लो या अपनी शर्त के साथ ही विकास की मुख्यधारा में शामिल हो जाओ। डॉ॰ मुंडा तीसरे के पक्ष में थे। यह उनके जीवन शैली, पहनावा, आचार-विचार आदि में दिखता था। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है उनके रचित - ‘सरहुल मंत्र’। इस मंत्र में वे स्वर्ग के परमेश्वर से लेकर धरती के धरती माई, शेक्सपीयर, रवींद्रनाथ टैगोर, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन से लेकर सिदो-कान्हु, चांद-भैरव, बिरसा मुंडा, गांधी, नेहरू, जयपाल सिंह मुंडा और सैकड़ों दिवंगत व्यक्तियों को एक साथ बुला कर पंक्ति में बैठने का आमंत्रण देते हैं और कहते हैं -

हम तोहरे के बुलात ही,
हम तोहरे से बिनती करत ही,
हामरे संग तनी बैठ लेवा,
हामरे संग तनी बतियाय लेवा,
एक दोना हड़िया के रस,
एक पतरी लेटवा भात,
हामर संग पी लेवा,
हामर साथे खाय लेवा..।

जे नाची से बांची संपादित करें

डॉ मुंडा ने अपनी पारंपरिक सांस्कृतिक और अपने जीवन में ‘जे नाची से बांची’ के आदर्श को बार-बार दोहराया। एक सफल शिक्षक और संस्था निर्माता के रूप में अपने काम के माध्यम से आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए उन्होंने आजीवन अथक श्रम, संघर्ष और अतुलनीय योगदान किया।

जीवन यात्रा संपादित करें

  • 1960 के दशक में उन्होंने एक छात्र और नर्तक के रूप में संगीतकारों की एक मंडली बनायी।
  • 1977-78 में अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज से फेलोशिप किया।
  • 1980 के दशक में शिकागो में एक छात्र और मिनेसोटा विश्वविद्यालय में शिक्षक के रूप में डॉ मुंडा ने दक्षिण एशियाई लोक कलाकारों और भारतीय छात्रों के साथ प्रशंसनीय प्रदर्शन किया।
  • 1981 में रांची विश्विविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग रांची विश्वविद्यालय से जुड़े।
  • 1983 में ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी कैनबरा में विजिटिंग प्रोफेसर बने।
  • 1985-86 में रांची विश्वविद्यालय के उप-कुलपति रहे।
  • 1986-88 में रांची विश्वविद्यालय के कुलपति रहे।
  • 1987 में सोवियत संघ में हुए भारत महोत्सव में मुंडा पाइका नृत्य दल के साथ भारतीय सांस्कृतिक दल का नेतृत्व किया।
  • 1988 में अंतरराष्ट्रीय संगीत कार्यशाला में शामिल हुए।
  • 1988 में आदिवासी कार्यदल राष्ट्रसंघ जेनेवा गये।
  • 1988 से 91 तक भारतीय मानव वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया।
  • 1989 में फिलीपिंस, चीन और जापान का दौरा किया।
  • 1989-1995 में झारखंड विषयक समिति, भारत सरकार के सदस्य रहे।
  • 1990 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति आकलन समिति के सदस्य रहे।
  • 1991 से 1998 तक झारखंड पीपुल्स पार्टी के प्रमुख अध्यक्ष रहे।
  • 1996 में सिराक्यूज विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से जुड़े।
  • 1997-2008 तक भारतीय आदिवासी संगम के प्रमुख अध्यक्ष और संरक्षक सलाहकार रहे।
  • 1997 में ही वह अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के सलाहकार समिति सदस्य बनाये गये।
  • 1998 में केंद्रीय वित्त मंत्रालय के फाइनांस कमेटी के सदस्य बने।
  • 2010 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किये गये।
  • 2010 मार्च में राज्यसभा सदस्य मनोनीत किये गये।

इसके अलावा वे देश-विदेश की कई सरकारी, गैर-सरकारी समितियों, संगठनों, संस्थाओं और अकादमिक संस्थानों में प्रमुख भूमिका में रहे।

प्रेम और पुनर्विवाह संपादित करें

मिनिसोटा विश्वविद्यालय, अमेरिका में रहते हुए उनका प्रेम हेजेल एन्न लुत्ज से हुआ जो 14 दिसंबर 1972 को विवाह में बदल गया था। लेकिन भारत लौटने के कुछ समय बाद उनका संबंध टूट गया। हेजेल से तलाक के बाद 28 जून 1988 को उन्होंने अमिता मुंडा से दूसरा विवाह किया। जिससे उनका एक बेटा है - गुंजल इकिर मुण्डा।

मृत्यु संपादित करें

अपने अंतिम दिनों में डॉ॰ मुंडा कैंसर से पीड़ित रहे जो उनकी मृत्यु का कारण बना। 30 सितंबर शुक्रवार, 2011 को लगभग 5.30 बजे रांची के अपोलो हॉस्पीटल में उन्होंने अंतिम सांस ली।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Doctor Ram Dayal Munda – We Mourn His Demise
  2. Ram Dyal Munda
  3. Doctor Ram Dayal Munda: Musician and activist who fought for Indian tribal rights
  4. A scholar and championed the cause of tribal rights
  5. झारखंड के टैगोर थे डॉ रामदयाल मुंडा

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें