रूपमती मालवा के अंतिम स्वाधीन अफगान सुलतान बाजबहादुर की प्रेयसी थी। बाजबहादुर और रूपमति के प्रेम कथानक को लेकर 1599 ई. में अहमद-उल्‌-उमरी ने फारसी में एक प्रेम-काव्य की रचना की थी और मुगल काल के अनेकानेक सुप्रसिद्ध चितेरों ने उसकी घटनाओं पर कई भावपूर्ण सुंदर चित्र बनाए थे। परंतु इस इतिहासप्रसिद्ध प्रेमिका की जीवनी का कोई भी प्रामाणिक विवरण प्राप्य नहीं है। प्राप्य ऐतिहासिक आधारग्रंथों में तद्विपयक उल्लेख अस्पष्ट या परस्पर विरोधी हैं। रूपमती को सारंगपुर की ब्राह्मण लिखा गया है। मकबरा अवश्य ही सारंगपुर (मालवा) में एक तालाब के बीच में बना हुआ है।

माण्डू का रूपमती मण्डप

यह तो सर्वस्वीकृत है कि रूपमती अपार सुंदरी थी; उसकी स्वरलहरी बहुत मधुर थी और वह गायन-वादन-कला में भी पूर्ण निष्णात थी। बाजबहादुर स्वयं भी गायन-वादन-कला का उस्ताद था। रूपमती के इन्हीं गुणों के कारण वह उसकी ओर आकर्षित हुआ था और तब उनमें परस्पर अगाध प्रेम हो गया। उस समय मालवा में संगीतविद्या बहुत ही बढ़ी चढ़ी थी; और अब तो बाजबहादुर और रूपमती दोनों ही उसकी उन्नति तथा साधना में ऐसे लीन हो गए कि जब अकबर के सेनानायक आदम खाँ के नेतृत्व में मुगल सेनाएँ मालवा पर चढ़ आई और सारंगपुर के पास तक जा पहुँची तभी उन्हें उनका पता लगा। अंत में सन्‌ 1561 ई. में सारंगपुर के युद्ध में पराजित होकर बाजबहादुर को भागना पड़ा। तब रूपमती आदम खाँ की बंदिनी बनी। उसके रूप और संगीत से मुग्ध आदम खाँ ने जब रूपमती को अपनी प्रेयसी बनाना चाहा तब रूपमती ने विष खाकर बाजबहादुर के नाम पर जान दे दी और अपनी प्रेमकहानी को अमर कर दिया। रूपमती द्वारा रचित अनेक गीत और पद्य जनसाधारण में तब से प्रचलित हैं तथा अब तक मालवा के कई भागों में लोकगीतों के रूप में गाए जाते हैं।

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