लंगर (पंजाबी : ਲੰਗਰ) सिखों के गुरुद्वारों में प्रदान किए जाने वाले नि:शुल्क, शाकाहारी भोजन को कहते हैं। लंगर, सभी लोगों के लिये खुला होता है चाहे वे सिख हो या नहीं। लंगर शब्द सिख धर्म में दो दृष्टिकोणों से इस्तेमाल होता है। सिखों के धर्म ग्रंथ में "लंगर" शब्द को निराकारी दृष्टिकोण से लिया गया है, पर आम तौर पर "रसोई" को लंगर कहा जाता है जहाँ कोई भी आदमी किसी भी जाति का, किसी भी धर्म का, किसी भी पद का हो इकट्ठे बैठ कर खाने की भूख अथवा पानी की प्यास मिटा सकता है।[1] इसी शब्द को निराकारी दृष्टिकोण में लिया जाता है, जिसके अनुसार कोई भी जीव आत्मा या मनुष्य अपनी आत्मा की ज्ञान की भूख, अपनी आत्मा को समझने और हुकम को बूझने की भूख गुरु घर में आकर किसी गुरमुख से गुरमत की विचारधारा को सुनकर/समझकर मिटा सकता है। सिखों के धर्म ग्रंथ में लंगर शब्द श्री सत्ता डूम जी और श्री बलवंड राइ जी ने अपनी वाणी में इस्तेमाल किया है।[2]

लंगर का दृष्य

सिख धर्म की एक प्रमुख सिखावन है- "वंड छको" (हिंदी अनुवाद- मिल बांट कर खाओ)। लंगर की प्रथा इसी का व्यवहारिक स्वरूप है।

इतिहास संपादित करें

लंगर शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द अनलगृह से हुई है।[3] अनलगृह का अर्थ है- पाकशाला या रसोई घर। सिख पंथ में यह प्रथा लगभग १५ वीं सदी में शुरू हुई थी।[4] श्री गुरू नानक देव जी के उपदेशों से वाणी में, जो एकता और भाईचारे का संदेश मिलता है, उससे स्पष्ट है कि लंगर प्रथा श्री गुरू नानक देव जी के समय शुरू हुई थी। बाला-मरदाना के साथ रहकर वह जहां भी गये, भूमि पर बैठकर ही भोजन करते थे। ऊंच-नीच, जात-पात से उपर उठकर ही श्री गुरू नानक देव जी ने अपनी कर्मशीलता को प्राथमिकता दी। भाई लालो की उदाहरण, जिसमें साधारण रोटी में दूध के उदाहरण दी गई, भाव कि ईमानदारी की साधारण रोटी दूध की तरह पवित्र होती है, जिसमें ईमानदारी की बरकत होती है। श्री गुरु नानक देव जी के प्रवचन, यात्राएं, सम्पर्क सूत्रों से स्पष्ट होता है, कि वह भूमि पर बैठकर साथियों, श्रद्धालुओं के साथ भोजन करते थे, परन्तु हालात की नाजुकता और बढ़ रहे अंधविश्वास, रूढिवाद, जातपात, ऊँच-नीच को समाप्त करने के लिए तीसरे गुरू अमरदास जी ने अमली रूप में लंगर प्रथा को शुरू किया।

लंगर प्रथा से विभिन्न जातियों के लोग, छोटे बड़े सब लोग एक ही स्थान पर बैठकर लंगर खाते हैं। इससे मोहभाव, एकता भाव, शक्ति बल से सांझी कद्र वाली कीमतों को चार चांद लगते हैं। पूर्ण विश्व में पंजाब ही एक ऐसा राज्य है, जहां सिख संगत में लंगर प्रथा की मर्यादा चली आ रही है। सिख कौम के लोग, जहां भी, देश या विदेश में, लंगर प्रथा सुरजीत है। इसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती।

लंगर तैयार करने की विधि बहुत ही सरल और शुद्ध पवित्र ढंग की है। जिस स्थान पर भी लंगर लगाना हो, विशेष रूप से औरतों की इसमें अहम भूमिका होती है। अस्थायी चुल्हा बनाना और उसका आधार जरूरत अनुसार बनाने उपरांत उसके इर्द-गिर्द मिट्टी का लेप कर दिया जाता है ताकि सेक और अग्नि का प्रयोग सही ढंग से हो सके। आटा काफी मात्रा में गूंथ लिया जाता है। जिसे मिलजुल कर औरतें करती हैं। जलाने के लिए गोबर, पाथी, लक्कड़ चूरा का प्रयोग किया जाता है। लंगर पकाने की सारी विधि और खर्च सामूहिक रूप से साधारण होता है जो किसी बड़े खर्च से रहित होता है।

सिख जगत में लंगर मर्यादा खुशी, गम के अतिरिकत त्यौहार मेले व शुभ अवसरों पर लाभकारी होता है और लोग खुशी-खुशी से इसमें अपना योगदान देते हैं। वर्तमान में लंगर तैयार करने के लिए आधुनिक तकनीक का भी प्रयोग होने लगा है जिसमें रोटी बेलना, आटा गूंथना और बर्तन साफ करने वाली मशीनें विशेष रोल अदा करती है। लंगर प्रथा सिख धर्म में एकता, सांझे भाई-चारे की मजबूत नींव का आधार है।

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "Sikhism: prejudice and discrimination". बीबीसी रिलिज़ियस स्टडीज़. मूल से 4 मार्च 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2015-09-01.
  2. जोशी, अनिरुद्ध. "Guru Nanak Jayanti 2019 : सिख धर्म में लंगर की शुरुआत किसने और कब की, जानिए". hindi.webdunia.com. अभिगमन तिथि 2020-11-14.
  3. Vishveshvaranand Indological Series. Vishveshvaranand Vedic Research Institute. 1990.
  4. "Guru Ka Langar" [गुरु का लंगर]. स्वर्ण मंदिर, अमृतसर. मूल से 1 सितंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २०१५-०९-०१.

इन्हें भी देखें संपादित करें