विजय सिंह पथिक

स्वतंत्रता सेनानियों में से एक

विजय सिंह पथिक उर्फ़ भूप सिंह गुर्जर[1] (अंग्रेजी:Vijay Singh Pathik, जन्म: 27 Feb 1882, निधन: 28 मई 1954) भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्हें राष्ट्रीय पथिक[2] के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म बुलन्दशहर जिले के ग्राम गुठावली कलाँ के एक गुर्जर परिवार में हुआ था।[1] उनके दादा इन्द्र सिंह बुलन्दशहर स्थित मालागढ़ रियासत के दीवान (प्रधानमंत्री) थे जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की थी। पथिक के पिता हमीर सिंह गुर्जर को भी क्रान्ति में भाग लेने के आरोप में सरकार ने गिरफ्तार किया था। इन पर उनकी माँ कमल कुमारी और परिवार की क्रान्तिकारी व देशभक्ति से परिपूर्ण पृष्ठभूमि का बहुत गहरा असर पड़ा। युवावस्था में ही उनका सम्पर्क रास बिहारी बोस और शचीन्द्र नाथ सान्याल आदि क्रान्तिकारियों से हो गया था।[3]

'विजय सिंह पथिक'

विजय सिंह पथिक का चित्र अंग्रेजी विकिपीडिया से
जन्म ग्राम गुठावली, जिला बुलन्दशहर, ब्रिटिश भारत
राष्ट्रीयता भारतीय
उपनाम भूप सिंह, राष्ट्रीय पथिक
माता-पिता कमल कुमारी (माता)
हमीर सिंह (पिता)
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1915 के फ़िरोज़पुर षड्यन्त्र के बाद उन्होंने अपना असली नाम भूप सिंह से बदल कर विजयसिंह पथिक रख लिया था। मृत्यु पर्यन्त उन्हें इसी नाम से लोग जानते रहे। मोहनदास करमचंद गांधी के सत्याग्रह आन्दोलन से बहुत पहले उन्होंने बिजौलिया किसान आंदोलन के नाम से किसानों में स्वतंत्रता के प्रति अलख जगाने का काम किया था। इनके पैतृक गांव में इनका एक स्मारक पार्क भी है। जिसमें उनकी भव्य प्रतिमा लगी है।उसमें एक पुस्तकालय और एक जिम हैं।जिसके संरक्षक सूबेदार जयचंद राठी हैं और अध्यक्ष धर्मेंद्र राठी अखत्यारपुर। पथिक के नाम पर ग्रेटर नोएडा में एक स्टेडियम भी बनाया गया है। इनकी जयंती और पुण्यतिथि पर गांव में भव्य कार्यक्रम आयोजित होते हैं।

बिजौलिया किसान आंदोलन संपादित करें

1912 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का निर्णय किया। इस अवसर पर भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने दिल्ली प्रवेश करने के लिए एक शानदार जुलूस का आयोजन किया। उस समय अन्य क्रान्तिकारियों ने जुलूस पर बम फेंक कर लार्ड हार्डिग को मारने की कोशिश की किन्तु वायसराय साफ बच गया। रास बिहारी बोस, जोरावर सिंह, प्रताप सिंह, पथिक व अन्य सभी सम्बन्धित क्रान्तिकारी अंग्रेजों के हाथ नहीं आये और वे फरार हो गए।

1915 में रास बिहारी बोस के नेतृत्व में लाहौर में क्रान्तिकारियों ने निर्णय लिया कि 21 फ़रवरी को देश के विभिन्न स्थानों 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर सशस्त्र विद्रोह किया जाए। भारतीय इतिहास में इसे गदर आन्दोलन कहते हैं। योजना यह थी कि एक तरफ तो भारतीय ब्रिटिश सेना को विद्रोह के लिए उकसाया जाए और दूसरी तरफ देशी राजाओं की सेनाओं का विद्रोह में सहयोग प्राप्त किया जाए। राजस्थान में इस क्रान्ति को संचालित करने का दायित्व विजय सिंह पथिक को सौंपा गया।

उस समय पथिक फिरोजपुर षडयन्त्र केस में फरार थे और खरवा (राजस्थान) में गोपाल सिंह के पास रह रहे थे। दोनों ने मिलकर दो हजार युवकों का दल तैयार किया और तीस हजार से अधिक बन्दूकें एकत्र की। दुर्भाग्य से अंग्रेजी सरकार पर क्रान्तिकारियों की देशव्यापी योजना का भेद खुल गया। देश भर में क्रान्तिकारियों को समय से पूर्व पकड़ लिया गया। पथिक और गोपाल सिंह ने गोला बारूद भूमिगत कर दिया और सैनिकों को बिखेर दिया गया। कुछ ही दिनों बाद अजमेर के अंग्रेज कमिश्नर ने पाँच सौ सैनिकों के साथ पथिक और गोपाल सिंह को खरवा के जंगलों से गिरफ्तार कर लिया और टाडगढ़ के किले में नजरबंद कर दिया।

उन्हीं दिनों लाहौर षडयंत्र केस में पथिक का नाम उभरा और उन्हें लाहौर ले जाने के आदेश हुए। किसी तरह यह खबर पथिक को मिल गई और वो टाडगढ़ के किले से फरार हो गए। गिरफ्तारी से बचने के लिए पथिक ने अपना वेश राजस्थानी राजपूतों जैसा बना लिया और चित्तौडगढ़ क्षेत्र में रहने लगे। बिजौलिया से आये एक साधु सीताराम दास उनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्होनें पथिक को बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व सम्भालने को आमंत्रित किया। बिजौलिया उदयपुर रियासत में एक ठिकाना था। जहाँ पर किसानों से भारी मात्रा में मालगुजारी वसूली जाती थी और किसानों की दशा अति शोचनीय थी। पथिक 1916 में बिजौलिया पहुँच गए और उन्होंने आन्दोलन की कमान अपने हाथों में सम्भाल ली।[4]

प्रत्येक गाँव में किसान पंचायत की शाखाएँ खोली गई। किसानों की मुख्य माँगें भूमि कर, अधिभारों एवं बेगार से सम्बन्धित थी। किसानों से 84 प्रकार के कर वसूले जाते थे। इसके अतिरिक्त युद्व कोष कर भी एक अहम मुददा था। एक अन्य मुददा साहूकारों से सम्बन्धित भी था जो जमीदारों के सहयोग और संरक्षण से किसानों को निरन्तर लूट रहे थे। पंचायत ने भूमि कर न देने का निर्णय लिया गया। किसान वास्तव में 1917 की रूसी क्रान्ति की सफलता से उत्साहित थे, पथिक ने उनके बीच रूस में श्रमिकों और किसानों का शासन स्थापित होने के समाचार को खूब प्रचारित किया था। विजय सिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित गणेशशंकर विद्यार्थी द्वारा सम्पादित पत्र प्रताप के माध्यम से बिजौलिया के किसान आन्दोलन को समूचे देश में चर्चा का विषय बना दिया।

1919 में अमृतसर कांग्रेस में पथिक के प्रयत्न से बाल गंगाधर तिलक ने बिजौलिया सम्बन्धी प्रस्ताव रखा। पथिक ने बम्बई जाकर किसानों की करुण कथा गांधीजी को सुनाई। गांधीजी ने वचन दिया कि यदि मेवाड़ सरकार ने न्याय नहीं किया तो वह स्वयं बिजौलिया सत्याग्रह का संचालन करेगें। महात्मा गांधी ने किसानों की शिकायत दूर करने के लिए एक पत्र महाराणा को लिखा पर कोई हल नहीं निकला। पथिक ने बम्बई यात्रा के समय गांधीजी की पहल पर यह निश्चय किया गया कि वर्धा से राजस्थान केसरी नामक पत्र निकाला जाये। पत्र सारे देश में लोकप्रिय हो गया, परन्तु पथिक का जमनालाल बजाज की विचारधारा से मेल नहीं खाया और वे वर्धा छोड़कर अजमेर चले गए।

1920 में पथिक के प्रयत्नों से अजमेर में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना हुई। शीघ्र ही इस संस्था की शाखाएँ पूरे प्रदेश में खुल गईं। इस संस्था ने राजस्थान में कई जन आन्दोलनों का संचालन किया। अजमेर से ही पथिक ने एक नया पत्र नवीन राजस्थान प्रकाशित किया। 1920 में पथिक अपने साथियों के साथ नागपुर अधिवेशन में शामिल हुए और बिजौलिया के किसानों की दुर्दशा और देशी राजाओं की निरंकुशता को दर्शाती हुई एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। गांधी जी पथिक के बिजौलिया आन्दोलन से प्रभावित तो हुए परन्तु उनका रुख देशी राजाओं और सामन्तों के प्रति नरम ही बना रहा।

कांग्रेस और गांधीजी यह समझने में असफल रहे कि सामन्तवाद साम्राज्यवाद का ही एक स्तम्भ है और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश के लिए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के साथ-साथ सामन्तवाद विरोधी संघर्ष आवश्यक है। गांधीजी ने अहमदाबाद अधिवेशन में बिजौलिया के किसानों को हिजरत (क्षेत्र छोड़ देने) की सलाह दी। पथिक ने इसे अपनाने से यह कहकर इनकार कर दिया कि यह तो केवल हिजड़ों के लिए ही उचित है मर्दों के लिए नहीं। सन् 1921 के आते-आते पथिक ने राजस्थान सेवा संघ के माध्यम से बेगू, पारसोली, भिन्डर, बासी और उदयपुर में शक्तिशाली आन्दोलन किए। बिजौलिया आन्दोलन अन्य क्षेत्र के किसानों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गया था। ऐसा लगने लगा मानो राजस्थान में किसान आन्दोलन की लहर चल पड़ी है। इससे ब्रिटिश सरकार डर गई। इस आन्दोलन में उसे बोल्शेविक आन्दोलन की प्रतिच्छाया दिखाई देने लगी।

दूसरी ओर कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन शुरू करने से भी सरकार को स्थिति और बिगड़ने की भी आशंका होने लगी। अंतत: सरकार ने राजस्थान के ए० जी० जी० हालैण्ड को बिजौलिया किसान पंचायत बोर्ड और राजस्थान सेवा संघ से बातचीत करने के लिए नियुक्त किया। शीघ्र ही दोनो पक्षों में समझौता हो गया। किसानों की अनेक माँगें मान ली गईं। चैरासी में से पैंतीस लागतें माफ कर दी गईँ। जुल्मी कारिन्दे बर्खास्त कर दिए गए। किसानों की अभूतपूर्व विजय हुई। इस बीच में बेगू में आन्दोलन तीव्र हो गया। मेवाड सरकार ने पथिक को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें पाँच वर्ष की सजा सुना दी गई। लम्बे अरसे की कैद के बाद पथिक अप्रैल 1927 में रिहा हुए।

अधेड़ आयु में विवाह संपादित करें

48 वर्ष की अधेड़ आयु में उन्होंने 1930 में एक विधवा अध्यापिका से विवाह करके गृहस्थ जीवन शुरू किया ही था कि एक माह बाद उन्हें फिर गिरफ़्तार कर लिया गया। उनकी पत्नी जानकी देवी ने ट्यूशन करके घर का खर्च चलाया। पथिक को इस बात का मरते दम तक अफ़सोस रहा कि वे राजस्थान सेवा आश्रम को ज्यादा दिनों तक चला न सके और अपने मिशन को अधूरा छोड़ कर चले गये।[5]

निधन संपादित करें

पथिक जीवनपर्यन्त निःस्वार्थ भाव से देश सेवा में जुटे रहे। भारत माता का यह महान सपूत 28 मई 1954 में चिर निद्रा में सो गया। पथिक की देशभक्ति निःस्वार्थ थी और जब वह मरे उनके पास सम्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं था जबकि तत्कालीन सरकार के कई मंत्री उनके राजनैतिक शिष्य थे। राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री शिवचरण माधुर ने पथिक का वर्णन राजस्थान की जागृति के अग्रदूत महान क्रान्तिकारी के रूप में किया। पथिक के नेतृत्व में संचालित हुए बिजौलिया आन्दोलन को इतिहासकार देश का पहला किसान सत्याग्रह मानते हैं।

कवि लेखक और पत्रकार संपादित करें

पथिक क्रांतिकारी व सत्याग्रही होने के अलावा कवि, लेखक और पत्रकार भी थे। अजमेर से उन्होंने नव संदेश और राजस्थान संदेश के नाम से हिन्दी के अखबार भी निकाले। तरुण राजस्थान नाम के एक हिन्दी साप्ताहिक में वे "राष्ट्रीय पथिक" के नाम से अपने विचार भी व्यक्त किया करते थे। पूरे राजस्थान में वे राष्ट्रीय पथिक के नाम से अधिक लोकप्रिय हुए।

उनकी कुछ पुस्तकें इस प्रकार हैं:

  • अजय मेरु (उपन्यास),
  • पथिक प्रमोद (कहानी संग्रह),
  • पथिक के जेल के पत्र एवं
  • पथिक की कविताओं का संग्रह[2]

गांधीजी का उनके बारे में कहना था-"और लोग सिर्फ़ बातें करते हैं परंतु पथिक एक सिपाही की तरह काम करता है।" उनके काम को देखकर ही उन्हें राजपूताना व मध्य भारत की प्रांतीय कांग्रेस का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।

भारत सरकार ने विजय सिंह पथिक की स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया।[6] उनकी लिखी हुई कविता की ये पंक्तियाँ[7] बहुत लोकप्रिय हुई थीं :

"यश वैभव सुख की चाह नहीं, परवाह नहीं जीवन न रहे; यदि इच्छा है तो यह है-जग में स्वेच्छाचार दमन न रहे।"

सन्दर्भ संपादित करें

  1. Sharma 1990, पृ॰ 80.
  2. Durga Das Pvt. Ltd (1985). Eminent Indians who was who, 1900-1980, also annual diary of events. Durga Das Pvt. Ltd. पृ॰ 238. मूल से 25 अक्तूबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 फ़रवरी 2013.
  3. Sharma, B.K. (1990). Peasant Movements in Rajasthan, 1920-1949. Pointer Publishers. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7132-024-0. अभिगमन तिथि 2022-06-01.
  4. वनास मंजूषा (स्मारिका) प्रकाशक: वरिष्ठ नागरिक समाज, ग्रेटर नोएडा पुस्तकालय, ग्रेटर नोएडा, पृष्ठ सं० 30
  5. वनास मंजूषा (स्मारिका) प्रकाशक: वरिष्ठ नागरिक समाज, ग्रेटर नोएडा पुस्तकालय, ग्रेटर नोएडा, पृष्ठ सं० 31
  6. Who's who on Indian stamps. Mohan B. Daryanani. 1999. पृ॰ xvi. ISBN 84-931101-0-8, ISBN 978-84-931101-0-9.
  7. जन-जागृति के जन्मदाता: विजय सिंह पथिक. विजय सिंह पथिक शोध संस्थान, दादरी, गौतम बुद्ध नगर. 1999. पृ॰ 80.