वीभत्स रस (अंग्रेजी-Odious, disgust)काव्य में मान्य नव रसों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इसकी स्थिति दु:खात्मक रसों में मानी जाती है।[1] इसके परिणामस्वरूप घृणा, जुगुप्सा उत्पन्न होती है।[2] [3] [4] [5]इस दृष्टि से करुण, भयानक तथा रौद्र, ये तीन रस इसके सहयोगी या सहचर सिद्ध होते हैं। शान्त रस से भी इसकी निकटता मान्य है, क्योंकि बहुधा बीभत्सता का दर्शन वैराग्य की प्रेरणा देता है और अन्तत: शान्त रस के स्थायी भाव शम का पोषण करता है।

साहित्य रचना में इस रस का प्रयोग बहुत कम ही होता है।[1] तुलसीदास ने रामचरित मानस के लंकाकांड में युद्ध के दृश्यों में कई जगह इस रस का प्रयोग किया है। उदाहरण- मेघनाथ माया के प्रयोग से वानर सेना को डराने के लिए कई वीभत्स कृत्य करने लगता है, जिसका वर्णन करते हुए तुलसीदास जी लिखते है-

'विष्टा पूय रुधिर कच हाडा
बरषइ कबहुं उपल बहु छाडा'

(वह कभी विष्ठा, खून, बाल और हड्डियां बरसाता था और कभी बहुत सारे पत्थर फेंकने लगता था।)

भारत के विभाजन पर लिखे साहित्य में उस समय मची मारकाट के कई वीभत्स दृश्यों का चित्रण सआदत हसन मंटो, खुशवंत सिंह, भीष्म साहनी की रचनाओं में देखा जा सकता है।

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "संग्रहीत प्रति". मूल से 28 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 दिसंबर 2014.
  2. http://khabar.ibnlive.in.com/image-gallery/Moviemasala/-22682-105592-5.html?ref=hindi.in.com%7Cवीभत्स[मृत कड़ियाँ] रस से पैदा होती है घृणा
  3. Bhartiya Manovigyan, By Ramnath Sharma & Rachana Sharma page 349
  4. "संग्रहीत प्रति". मूल से 29 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 28 दिसंबर 2014.
  5. "संग्रहीत प्रति" (PDF). मूल से 28 दिसंबर 2014 को पुरालेखित (PDF). अभिगमन तिथि 28 दिसंबर 2014.